Aag aur Geet - 1 in Hindi Detective stories by Ibne Safi books and stories PDF | आग और गीत - 1

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आग और गीत - 1

लेखक : इब्ने सफ़ी

अनुवादक : प्रेम प्रकाश

(1)

तर्रवान की पहाड़ियां कई देशों की सीमाओं का निर्धारण करती थी । यह मख्लाकार पहाड़ियां अपने अंचल में एक ऐसी सुंदर घाटी रखती थीं कि उसका नाम ही कुसुमित घाटी रख दिया गया था ।

इस सुंदर और विकसित घाटी में किसी परदेशी का दाखिल होना असंभव ही था क्योंकि हवाई जहाज से इस इलाके में किसी को उतारना संभव नहीं था और घाटी तक पहुंचने के जो मार्ग थे वह स्थानीय लोगों के अतिरिक्त दूसरे किसी को मालूम नहीं थे – और वह मार्ग थे दर्रे – ऐसे संकुचित दर्रे जिनसे कहीं कहीं पर दो आदमी से अधिक गुज़र नहीं सकते थे । कदाचित इसलिये राजनैतिक भूगोल में इसे नॉ मेन्स लैंड का नाम दिया गया था ।

चूँकि घाटी में दाखिल होने के लिये दर्रे थे, इसलिये स्मगलिंग भी होती थी मगर बहुत ही मामूली तौर पर – कदाचित इसका कारण यह था कि घाटी में रहने वाले वर्तमान युग की तफरीहों और सुख समृद्धि से अनभिज्ञ थे । इसलिये घड़ियों, ट्रांसमीटरों, टेप रेकार्डरों तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं की स्मगलिंग नहीं होती थी – बस केवल चाय या फिर कभी कभी कपड़ें वहां आया करते थे ।

और कुसुमित घाटी से बाहर जाने वाली वस्तुओं में केवल जानवरों की खालें थीं । कभी कभी वहां के फूल और जड़ीबूटियां भी बाहर भेजी जाती थीं ।

कुसुमित घाटी में क़बायली आबाद थे और आज भी उनका रहन सहन वही प्राचीन ढंग का था । नर नारी की कोई प्रमुखता नहीं थी । आज कल उस कबीले की सरदार एक औरत थी ।

कहा यह जाता था कि सरदार औरत के पति का अपहरण हुआ है – अपहरण करने वालों को तलाश भी किया जा रहा था मगर अभी तक सफलता नहीं मिली थी ।

उसी कुसुमित घाटी में एक नाले के किनारे सीक्रेट सर्विस का एक सदस्य नायक खड़ा था ।

विभाग की ओर से उसे बस इतना काम सौंपा गया था कि सीमांत प्रदेश में जो हवाई दुर्घटना हुई थी उसके प्रति छानबीन करे और उस स्थान का पता लगाये जहां वायुयान गिर कर नष्ट हुआ था – इसलिये नायक उसी और घूमता फिरता था जिधर कुहरे में डूबी हुई एक पहाड़ की चोटी से टकरा कर वायुयान टुकड़े टुकड़े हो गया था ।

आज दोपहर में एक संकुचित दर्रे के पास उसे एक लड़की मिली थी । लम्बा कद, स्वस्थ शरीर लाली लिये गोरा रंग – बड़ी बड़ी भूरी आंखें और मोटे मगर सुलगते हुए होंठ । वह भेड़ें चरा रही थी और नायक की और देखकर कुछ इस प्रकार मुस्कुराई थी कि नायक जैसे आदमी के लिये सब्र करना कठिन हो गया था ।

वह उन लोगों की नजरें बचाकर उस पहाड़ी राजकुमारी की ओर बढ़ा था जो गिलहरियों और बड़े बालों वाली लोमड़ियों को इधर उधर तलाश करते फिर रही रहे थे ।

वह लड़की के निकट पहुंचा और फिर उसे देखता ही रह गया । दूर से जो होंठ मोटे दिखाई दिये थे वही होंठ निकट से देखने पर अत्यंत सुंदर लग रहे थे ।

नायक सौंदर्य की उस मूर्ति को अपलक देखता रहा ।

लड़की उसकी ओर से बिलकुल लापरवाह नज़र आ रही थी । वह उसी ओर देख रही थी जिधर उसकी भेड़ें थीं – फिर उसने गर्दन घुमाकर नायक की ओर देखा ।

नायक की स्थिति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ । वह अब भी पलक झपकाये बिना लड़की को देखे जा रहा था ।

अचानक लड़की ने टूटी फूटी हिंदुस्तानी में कहा ।

“तुम कौन हो और मुझको इस तरह घूर क्यों रहे हो ?”

“पहले यह बताओ कि तुम मुझे देखकर मुस्कुराई क्यों थी ?”

“मैं !” – लड़की ने विस्मय के साथ कहा – “मैं क्यों मुस्कुराने लगी । तुम झूठ बोल रहे हो । तुम ख़ुद ही मुस्कुराये होगे ।”

इतने में एक भेड़ का बच्चा उसके पास आ गया और वह बड़े प्यार से उसका सर सहलाने लगी ।

नायक ने चारों ओर देखा – अब कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था । वह थोडा सा आगे बढ़ आया – फिर लड़की से बोला ।

“तुम कहां रहती हो ?”

“उधर...” – लड़की ने हाथ उठाकर पहाड़ियों के उस पार संकेत किया ।

“कुसुमित घाटी में ?” – नायक ने पूछा ।

“हां ।” – लड़की ने कहा फिर पूछा – “क्या तुम कभी उधर गये हो ?”

“नहीं । मगर जाना चाहता हूं । तुम कब तक इधर रहोगी ?”

“सूरज डूबने से पहले ही वापस चली जाऊँगी ।”

“तुमको इधर आते समय किसी ने टोका रोका नहीं ?”

“मैं तो आई नहीं थी कि कोई मुझे रोकता टोकता ।”

“क्या बात हुई ?” – नायक ने विस्मय के साथ पूछा ।

“सीधी सी बात है । पहले मेरी भेड़ें आईं फिर मुझे भी आना पड़ा ।” – लड़की ने कहा – “और फिर कोई यह मार्ग जानता भी नहीं जो मुझे रोकता टोकता ।”

“कौन सा मार्ग ?” – नायक ने पूछा ।

“जिस मार्ग से मैं आती जाती हूं ।”

“क्या उस मार्ग के आसपास कभी कोई रहता नहीं ?”

“नहीं ।”

“मुझे अपने साथ ले चलोगी ?”

“चलो ।”

“तुम्हारा नाम क्या है ?”

“निशाता ।” – लड़की ने कहा – “मैं अकेली रहती हूं । तुम्हें पनीर भी मिलेगा और चाय भी ।”

“वहां के लोग मुझे क़त्ल तो नहीं करेंगे ?”

“तुम कैसी बातें करते हो जी !” – निशाता ने आंखें निकालकर कहा – “हम लोग किसी को जान से नहीं मारते ! अभी कुछ ही दिन हुए कि एक हवाई चिड़िया गिर पड़ी थी । फिर उसमें से आग निकलने लगी थी । बहुत सारे मरे हुए आदमी भी दिखाई दिये थे । मगर एक आदमी बच गया था ।”

“तो वह बचे हुए आदमी का क्या हुआ ?” – नायक ने जल्दी से पूछा ।

“हमारे ही यहां रहता है ।” – निशाता ने कहा – “बहुत सारे लोग उसे मांगने आये थे, मगर हमने नहीं दिया । वह झगड़ा भी करना चाहते थे मगर हमने झगड़ा नहीं किया । हम लोग झगड़ा करते ही नहीं । फिर किसी को जान से क्या मारेंगे !”

निशाता बोलती जा रही थी मगर नायक का दिमाग कहीं और था । हवाई चिड़िया का नाम सुनते ही वह समझ गया था कि वह वही हवाई जहाज था जो पहाड़ की चोटी से टकरा कर बर्बाद हो गया था और जिसके बारे में जानकारी प्राप्त करने का भार उसके सर डाला गया था ।

और निशाता के मिल जाने तथा उसके मुख से वायुयान दुर्घटना की बात सुन लेने के बाद उसे पूरा विश्वास हो गया था कि वह अपने अभियान में सफल रहेगा ।

निशाता सुंदर ही नहीं बल्कि अत्यंत सुंदर थी और नायक की कमजोरी औरत थी । मगर इसके बावजूद वह इस समय निशाता का ध्यान छोड़ कर अपने अभियान की सफलता के बारे में सोच रहा था ।

“अरे ए...” – निशाता ने उसे संबोधित करते हुए कहा – “यह तुम चुप क्यों हो गये ?”

“आंय ! हां... कुछ नहीं ।” – नायक ने चौंकते हुए कहा – “मैं यह सोचने लगा था कि जब में तुम्हारे साथ चलूंगा तो यह सब शिकारी भी हमारे पीछे लग जायेंगे । फिर क्या होगा ?”

“तुम भी क्या बातें करते हो ।” – निशाता हंस पड़ी – “किसी को मालूम भी न होने पायेगा ।”

“भला वह कैसे ?” – नायक ने आश्चर्य के साथ पूछा ।

“आओ मेरे साथ, ख़ुद ही देख लोगे ।” – निशाता ने कहा फिर भेड़ों की ओर दौड़ पड़ी ।

“आब आओ ।” – निशाता ने कहा और फिर ख़ुद हिरनी के समान चौकड़ियाँ भरने लगी ।

नायक उसे विचित्र निगाहों से देख रहा थ्ज्ज़ असमतल चट्टानों पर वह इस प्रकार चौकड़ियाँ भर रही थी जैसे वह समतल भूमि हो ।

एक स्थान पर वह रुक गई और पीछे मुड़ कर देखा । नायक बहुत पीछे रह गया था । उसने वहीँ से हांक लगाई ।

“अरे आओ ना !”

फिर जैसे ही नायक उसके निकट पहुंचने वाला हुआ वह फिर आगे बढ़ गई ।

इसी प्रकार दोनों चलते रहे । निशाता आगे बढ़ कर रुक जाती और फिर जब नायक उसके समीप पहुंचने वाला होता, वह फिर आगे बढ़ जाती ।

एक बार इसी प्रकार जब निशाता आगे बढ़ने वाली हुई, नायक ने चीख कर कहा ।

“इतना तेज न चलो ।”

“क्यों ?” – निशाता ने पूछा ।

“मैं तुम्हारे समान इतनी तेजी से नहीं चल सकता ।”

“तो तुम धीरे धीरे आओ, मुझे क्यों रोकते हो ?”

“इसलिये कि जब तुम मुझको अपने साथ लिये जा रही हो तो फिर साथ साथ चलो भी ।”

निशाता मुस्कुरा पड़ी और नायक के दिल पर बिजली सी गिर पड़ी । नायक जैसा औरतों का रसिया आदमी शायद परिस्थिति से विवश था वर्ना कुछ न कुछ अवश्य कर गुजरता ।

फिर दोनों साथ साथ चलने लगे । भेड़ें उनके पीछे थीं ।

“तुम क्या करते हो ?” – कुछ देर बाद निशाता ने पूछा ।

“गीत लिखता हूं और गीत एकत्र भी करता हूं ।” – नायक ने कहा ।

“तुम कवि हो ?”

“हां ।”

“मेरे ऊपर गीत लिखोगे ?”

“तुम तो ख़ुद ही गीत हो ।” – नायक भावुक हो उठा – “भला पर कोई क्या गीत लिखेगा ।”

निशाता हंस पड़ी । फिर बोली ।

“अब जरा संभल कर आना ।”

“क्यों ?” – नायक एकदम से चौंक पड़ा ।

“इसलिये कि अब दर्रा आ गया है और दर्रे में बिलकुल अंधेरा होगा ।” – निशाता ने कहा – “अच्छा यह होगा कि किसी भेड़ की पूंछ पकड़ लो ।”

“क्यों न तुम्हारा हाथ पकड़ लूं ?” – नायक ने कहा ।

मगर निशाता ने कोई उत्तर नहीं दिया और दर्रे में दाखिल हो गई ।

विवश हो कर नायक को एक बड़ी सी भेड़ की पूंछ पकडनी पड़ी । यह था तो परिहासजनक कार्य मगर दर्रे में दाखिल होते ही उसकी समझ में आ गया कि निशाता ने ठीक ही कहा था । इसलिये कि दर्रे के अंदर इतना गहरा अंधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा था । दर्रा इतना संकुचित था कि बस एक ही आदमी गुजर सकता था । ऐसा लग रहा था जैसे वह दर्रा नहीं है बल्कि एक दराड़ सी पड़ गई है ।

“आ रहे हो ना ?” – कुछ आगे से निशाता की आवाज आई ।

“हां ।” – नायक ने आवाज दी ।

इसी प्रकार निशाता आवाजें देती आगे बढ़ती रही और नायक “हां” कह कर उत्तर देता रहा ।

दस मिनिट बाद नायक को रौशनी की मंद सी झलक दिखाई पड़ी । फिर क्रमशः अंधकार कम होता रहा और उजाला बढ़ता रहा ।

ठीक बारहवें मिनिट पर वह मार्ग समाप्त हो गया और नायक ने अपने को एक चट्टान पर खड़े पाया । उसने सर उठा कर इधर उधर देखा । पहाड़ियों का सिलसिला मंडलाकार रूप में फैला हुआ था – और नीचे कई सौ फिट नीचे एक विस्तृत मैदान था जिसमें चारों ओर हरियाली ही हरियाली नज़र आ रही थी । जगह जगह भांति भांति रंगों के विकसित पुष्पों के कुंज भी थे । वृक्ष भी थे मगर छोटे छोटे । उनके तने सफ़ेद थे और वह उपर जा कर छतरी से बन जाते थे ।

जहां जहां वृक्ष थे वहां वहां उनकी छांव में पत्थरों को रख रख कर रहने के स्थान बनाये गये थे – हां – दाहिनी ओर श्वेत पत्थरों की एक इमारत नजर आ रही थी ।

“आओ ।” – निशाता की आवाज उभरी और वह चौंक पड़ा ।

उसने देखा कि निशाता बड़ी तेजी से पत्थरों पर क़दम जमा जमा कर नीचे कूदती जा रही है । उसकी भेड़ें भी उतनी ही ट्रैंड मालूम होती थीं । वह भी बिलकुल सुधे हुए भाव में एक चट्टान से दूसरे चट्टान पर कूदती जा रही थी । जरा सा भी क़दम बहकता तो मौत निश्चित थी ।

नायक के लिये इस प्रकार उतरना असंभव था । वह एक चट्टान को दोनों हाथों में पकड़ कर पांव नीचे लटकाता तब दूसरे चट्टान पर पहुँचता ।

“अरे कवि महाराज !” – निशाता हंसती हुई बोली “तुम तो बहुत डरपोक मालूम हो रहे हो । मुझे देखो ।”

“मैं तुम्हारे समान इसका आदी नहीं हूं ।” – नायक ने कहा ।

लगभग सौ फिट तक इसी प्रकार उतरना पड़ा था । उसके बाद एक गुफा में दाखिल होना पड़ा । गुफा तै करने के बाद फिर एक दर्रे में घुसना पड़ा ।