केशव का युग और शाक्त मत
राधारमण वैद्य
भारतीय वाङमय में सम्प्रदाय का पोषण और साम्प्रदायिक परम्पराओं का खण्डन-मण्डन खूब हुआ है पर उसे उच्च साहित्य का लेबिल लगाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सका। यह सब होते हुए भी उच्च साहित्य पर तत्कालीन परिस्थितियों की छाप पड़े बिना भी न रही वे अनजाने प्रतिबिम्बित हो गई अथवा उसमें वे बरवश व्य´्जित हो उठी हमारा धार्मिक परिवेश ही सामाजिक गठन करता रहा है फिर समाज की विचारधारा एक दिन में न तो बनती है और न बिगड़ती है। कबीर से भक्ति काव्य की छठा निखरनी आरम्भ हुई। यद्यपि विद्यापति पदावली में भी शिव भक्ति की झलक तथा राधा-कृष्ण के माधुर्य की झाँकी स्पष्ट थी पर उसे सम्पूर्ण मध्य देश की बात नहीं माना जा सकता। मध्य देश के हृदय और मस्तिष्क को वाणी मिली कबीर के काव्य में। कबीर जहाँ हिन्दू और तुरक दोनों को मानवता की राह से भटका हुआ देखकर मस्तिष्क की संकीर्णता को कचोटता है वहीं वह उन साम्प्रदायिक तंग गलियों में भी अन्य किसी किस्म की राहजनी, ठगी या लुटई देखकर कह उठता है--
चंदन की कुटकी भली, नां बंबूर की अंबरांउं।
बेनों की छपरी भली, नां साषत का बड़ गाउँ।।
अथवा
साषत बांभण मति मिलै बैसनौं मिलै चँडाल।
अंक माल दे भेटिये, मानो मिले गोपाल।।
लगता है कि कबीर की तिक्तता उसे, जो उसके चारों ओर हो रहा था, सम्हाल नहीं पा रही थी, सारा उत्तरापथ विशेष रूप से मध्य देश शैवों (कापालिकांे) और शाक्तों की चपेट में आ चुका था, यौन परक प्रतीक ही दर्शन की सीमा में बंधने लगे थे, बँध चुके थे, विन्ध्याचल पर (विन्ध्यवासिनी के समक्ष) नग्न कुमारी की पूजा होने लगी थी, औघड़, कापलिक, अघोरी शाक्त कन्दरिया, कुण्डदेव (कूंडादेव) और विन्ध्यवासिनी के समक्ष उन्मुक्त हो उठे थे। समाज में एक बड़ी सेना उनकी तैयार हो गयी थी, जो निम्न वर्गीय थे, अवर्ण, अस्पृश्य थे, विदेशी थे, वर्ण च्युत थे, समाज विरोधी थे। वज्रयान और शाक्त दोनो के वे स्वीकार थे दोनों ने उनका स्वागत किया ’’प्रवृत्त भैरवी चक्र सर्वे वर्णा द्विजातयः’’ कुलार्णव तन्त्र कह उठा था और सिद्धियाँ तप और ज्ञान से नहीं, रजक और चाण्डाल कन्या के सम्भोग से मिलने लगी थी, इन तमाम बातों से शाक्तों के प्रतिकूल वातावरण बनने लगा था, बहुत कुछ बन चुका था, उनके बामाचार से सभी खिन्न और ऊबे हुए थे।
केशव का काल बहुत कुछ निश्चित-सा है । यद्यपि खोजियों ने उसमें भी बहुत से लेकिन परन्तु निकाले हैं, पर हम जैसे मोटी-मोटी बातें समझने वालों को उससे क्या ? हमारे लिए तो इतना ही अभीष्ट है कि वह युग अकबर और जहाँगीर का संधिकाल था, विन्ध्य भूमि में मधुकर शाह एवं वीर सिंह जैसे यशस्वी राजा अपना प्रभाव दिखा रहे थे। धार्मिक क्षेत्र चाहे निर्गुणिये हों या सगुणिये, वैष्णव प्रभाव में आने लगे थे, अवतारों की विचारधारा घर कर चुकी थी और अवतारवाद से शैव और शाक्त दोनों विमुख थे, नर रूप में ईश्वरत्व वहाँ कल्पित ही नहीं किया जा सकता था, निपटना नरों से ही था। असुरों और सुरों के युद्धों का युग समाप्त हो चुका था। प्रजापति जो वैष्णव थे अब राजा रूप में स्वीकारे जा चुके थे अतएव ’नर रूप हरि’ की स्थापना में मन झुकने लगा था शैव और शाक्त प्रभाव फैलाने के लिये आतंक से काम लेने लगे थे। प्रजा और प्रजापति दोनों की नियति म्लेच्छों से आक्रान्त थी, इधर इनके कर्म भी उन से कुछ कम न थे। यौन-उत्खचन तक मन्दिरों पर जा चढ़े थे। भीतर भी यौन-पूजन विहित था। मर्यादाओं को विदेशी भी तोड़ रहे थे और ये देशी भी। आर्यावर्त अपना आर्यत्व खोता चला जा रहा था और म्लेच्छत्व जीवन दर्शन बन चुका था। जैन और बौद्ध भी अब विकृत रूप में उपस्थित हो रहे थे। वज्रयान, हीनयान और भैरवी चक्र सब गड्ड-मड्ड हो गये थे, प्रज्ञापारमिता और शक्ति में भेद न रह गया था, दोनों की विधि-क्रियायें तांत्रिक हो चुकी थी। उन्होंने घोषित किया था कि जो ब्राह्मण (स्मार्त) धर्म में धर्म है, वह हमारे लिए अधर्म है और जो उनके लिए अधर्म है वह हमारे लिए धर्म हो गया। उन्होंने तप द्वारा वासनाओं को जीतने की जगह अति भोग से उनका निराकरण करना उचित समझा और भारत का मेरूदण्ड टूट गया। सिद्धों की परम्परा जगी। हो सकता है कि साधक स्वयं तो आचरणतः सशक्त रहे हों, पर इस प्रकार की शाक्त वजयानी या साधारण स्मार्त विरोधी जनता को न सम्हाल सके। वैसे तो उनकी आचरण की पवित्रता और काया की निर्मलता दोनों संदिग्ध हो उठी थी ’’विज्ञान गीता’ (पृ0 74, 75)में केशव कहते हैं-
यह कौन आवत है सखी मल पंक अंकित अंग।
शिर केश लुंचित नग्न हाथ शिषी शिखण्ड सुरंग।।
यह नर्क को कोऊ जीव है जिनि याहि देखि डराहि।
निज जातिये यह श्रावका अति दूर ते तज ताहि।।
कन्यका भगनि वधू मिलि जो रमै दिन राति।
चित्त मलिन न कीजई, गुरू पूजियै इहि भाँति।।
श्रावक के इसी रूप के कारण इस विन्ध्य-भूमि में नंगा-लुच्चा (नग्न-लुंचित) शब्द ही बदनाम हो गया। इस श्रावक की भाँति बौद्ध भिक्षु भी इसी रंग में रगा हुआ है। वह कहता है कि मैं सभी को दिव्य दृष्टि में देखता हूँ और भोग में तथा मुक्ति में कोई भेद नहीं मानता। भिक्षुक को रमणियों के साथ भोग करने से रोकना नहीं चाहता,
’विज्ञान गीता’ और रामचन्द्रिका’ के अनेक वर्णनों को पढ़कर ऐसा लगता है कि केशवदास के युग में चार्वाक, श्रावक, बौद्ध भिक्षु, कापालिक, मठाधीश, महन्त आदि सब में भैरवी च़क्र व्याप्त था। तान्त्रिकों और शाक्तों की कृपा से भैरवी चक्र में फँसे हुए वाम मार्गी व्यक्ति व्यभिचार को जीवन-विलास का लक्ष्य स्वीकार करते थे और दलित जाति की स्त्रियों को कुकर्म के लिए ग्रहण किया जाता था। रूद्रयामल तंत्र कहता है-
रजस्वला पुस्करं तीर्थ, चाण्डाली तु स्वयं काशी,
चर्मकारी प्रयागः स्यात् रजकी मथुरा मता, अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता
वैसे भी मथुरा-वृन्दावन में भैरवी चक्र का अड्डा बन गया था, केशव ’विज्ञान गीता’ में कहते हैं-
मथुरा-वृन्दावन सबै, ढूंढयो देवि अशेष।
कबहुं न श्रद्धा देखिये चित विचार करि देख।।
केशव ने इसी प्रसंग में ’’विज्ञान गीता’ में लिखा है कि श्रद्धा भैरवी के पाश में फँॅस गई थी कि उसे विष्णु भक्ति ही छुड़ा सकती है,
उधर तुलसी भी इस स्थिति से कम दुःखी नहीं, वे अपने प्रबंध ’रामचरित मानस’ के उत्तर काण्ड मंे कह रहे हैं-
तजि श्रुति पंथ वाम पथ चलहीं। बंचक विरचि वेष जग छलहीं।
जाके नख अरू जटा विशाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलि काला।।
असुभ वेश भूषन धरैं, भच्छाभच्छ जे खँाहि।
तेई जोगी तेई सिद्ध नर, पूज्य ते कलिजुग मांहि।।
परतिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह माया लपटाने।
तेई अभेदवादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।।
इन समाज की विकृतियों से ऊब कर हर एक निर्मलचित्त साधु, दुखी था। सामान्य जन हैरान था। वह छुटकारा चाहता था। सारा विन्ध्य का अंचल इस से पंकिल हो चुका था इसी को नजदीक से जिसने देखा, वह चौंका और कबीर की भाँति आगाह कर उठा। उस काल के तथा इसी भूमि के निकट का सम्बन्ध रखने वाले हरीराम जी व्यास कहते हैं-
’’व्यास’ डगर में परि रहे, सुनि साकत कौ गाँव।
मनसा-बाचा-कर्मना, पाप महा जो जाँव।।
साकत भैया सत्रु सम, बेगहि तजिये ’’व्यास’’।।
जो बाकी संगति करै, करिहै नरक निवास।।
साकत स्त्री छाँडियै, बैस्या करियै नारी।।
हरिदासी ह्वै रहै कुलहि न आवै गारी।।
साकत सगौ न भेटियै, ’’व्यास’’ सुकंठ लगाय।
परमारथ लै जाहिगो, रहै पाप लपटाय।।
इस भाँति व्यास जी मते भाई, स्त्री और सगौ (दामाद अथवा निकट संबंधी) शाक्त नहीं होना चाहिए। शाक्तों का मार्ग अतिभोगवाद और मर्यादा हीनता के कारण त्याज्य माना जाने लगा था। वे तो--
’आठैं चौदस कूँड़ौ पूजे, अभागों को ज्ञान अँध्यारौ।
व्यासदास यह संगति तजियै, भजियै स्याम सबारौ।।
कर मन साकत को मुँह कारो।।
बिना इन कुमार्गियों या वाममार्गियों का मुँह काला किये छुटकारा ही कहाँ था ? चाहे केशव जैसे रागी गृहस्थ हो, चाहे हरीराम व्यास की तरह वैरागी वैष्णव या जनमानस के उद्बोध का युग-निर्माता तुलसी हो, या साफ और बेलौस बात कहने वाले बेधड़क कबीर सभी इस कलयुगी मार से समाज को बचा लेना चाहते थे। इनके प्रभाव मे ब्राह्मण जाति जिसका कर्तव्य कर्म अध्ययन-अध्यापन था इस काल में पैसा लेकर वेदों के ज्ञान को बेच रही थी, क्षत्रिय प्रजापालन से विमुख होकर ब्राह्मणों की जीविका छीन रहे थेे, वैश्य वर्ग व्यापार शिथिल हो गया। शूद्र लोग मूर्ति पूजन में लीन थे। तस्करी करते थे और राजा से भयभीत न होकर मनमाना आचरण करते थे। यह युग मर्यादा-विरोधी हो उठा था।
ब्राह्मण बेचत वेदनि को सुमलेच्छमहीप की सेव करैं जू।
क्षत्रिय दण्डत हैं परजा अपराध बिना द्विज बृत्ति हरैं जू।।
छाँड़ दयो क्रय-विक्रय वैश्यनि क्षत्रिप ज्यों हथियार धरैं जू।
पूजत सूद्र सिला, धनु चोर चित्त में राजनि को न डरैं जू।।
वि0गी0 7/14
भूलत हैं कुल धर्म सबै तब हीं जब हीं वह आनि ग्रसै जू।।
केशव वेद पुराननि कौन सुनै समुझै न त्रसै न हँसै जू।।
देव तें नर देवनि तें सु़ित्रया बर बारन ज्यों बिलसे जू।।
अतंत्र मंत्रन भूरि गनै जग जौवन काम पिसाच बसै जू।।
वि0गी0 7/19
केशव युग दृष्टा न सही, पर अपने युग की दशा से तादात्म करके बहुत ही खिन्न थे--
गंगा काछनि वरित हों, पूजत साधु अयाट।
पाई कपिला गाय-सी पटु पाखण्ड चयाट।।
एक अन्य स्थान पर (रामचन्द्रिका में) उनकी खिन्नता और दुःख इन शब्दों में प्रकट हुआ है, जब रावण के हाथ में पड़ी हुई सीता का वर्णन केशव करते हैं--
पाखण्डी की सिद्धि कै मठेस बस एकादसी।
लीनी कै स्वपच राज साखा सुद्ध साम की।।
सभी ओर रावण थे, आखिर कवि क्या करता ? और क्या कहता ? घर-घर की सीतायें हरी जा रही थी ऐसे में पुरूषोत्तम राम को तो जूझना ही था कवि फिर उसकी कीर्ति गायन के लिए ’रामचन्द्रिका’ की छटा छिटकाते या ’राम चरित मानस’ में अवगाहन कराते, निर्गुणिये सन्त भी राम की बहुरिया बना अपने ’’भरतार’’ का इंतजार कराते, पर सभी इस मर्यादा हीनता से छुटकारा दिलाना चाहते थे-ऐसा मुझे लगता है।
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