सनकादि सम्प्रदाय, सनकुआ और सेंवढ़ा
स्थान-नाम, भाषा की जीवन्त शब्दावली है, जो घिस-मँजकर रूपान्तरित होते हुए शताब्दियों तक अपना मूल्य स्थिर रखते हैं और जन-आस्थाओं के आधार बन जाते हैं, उनमें इतिहास स्थिर रहता है, जन श्रुतियाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को यह सम्पदा सौंपती चलती हैं। सब जानते हैं कि सनकुआ सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार, जो ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये हैं, की तपस्या भूमि है।
असल में विन्ध्यावटी, जिसे महाभारत के वनपर्व में घोर अटवी, दारूण अटवी, महारण्य और महाघोर वन से स्मरण किया गया है, तपस्यिों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रही है। विरागी, विरक्त और तपस्या के आकांक्षी जन अनायास इस में प्रवेश करने और किसी शान्त सुरम्य प्राकृतिक स्थल, नदी तट या जलाशय के आस-पास अपेन आश्रम, पर्णकुटि को बनाकर या किसी कन्दरा या गुफा को आश्रय बना तपस्या में लीन हो जाते थे।
आज का सेंवढ़ा-दतिया जनपद ऐसे तपस्यिों या भिक्षुओं के आश्रयस्थलों के अवशेषों से भरा पड़ा है। आदिकाल से जलधारायें जनजीवन से जुड़ी रही । इनके किनारे संस्कृतियों ने अपना कलेवर सजाया है। सिन्ध, सरस्वती, नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा-कावेरी, गोदावरी आदि नदियाँ और महानद ब्रह्मपुत्र के आसपास ही भारत ने अपना रूप संभाला है किन्तु चम्बल, बेतवा जैसी सहायक नदियाँ भी इसमें अपने योगदान में पीछे नहीं रही हैं।
पुराणों में सनक-सनातन आदि को ब्रहमा के मानस पुत्र तो कहा ही गया है। महाभारत में इन्हें योगविद और सांख्यविद भी कहा गया है। यह निवृत्तिमार्गी सप्तऋषि शस्त्र और शास्त्र दोनों के समान धनी थे। इनके आश्रम से जहाँ शास्त्र की गंगा बहती थी, वहीं शस्त्र विद्या पर भी इनका पूरा अधिकार था। सेंवढ़ा के सनकुंआ को इन्हीं सप्त ऋषियों से सम्बद्ध माना जाता है। वैसे यमुना के पश्चिमी भाग में नागवंशी राजाओं के कार्य क्षेत्र में इन तापस भिक्षुओं का फैलाव रहा है। नागों की पुराण-प्रसिद्ध राजधानियाँ मथुरा, कान्तिपुर (वर्तमान कुन्तित-कोंतवार मुरैना जिला) और पùावती (वर्तमान पवाँया, तहसील-डबरा, जिला ग्वालियर) और इनके आसपास का सम्पूर्ण क्षेत्र भी इनका विस्तार क्षेत्र रहा।
यह सांख्यविद् , योगविद् ,निवृत्तिमार्गी तापस भिक्षुओं के आश्रम उसकाल के ज्ञानार्थियों के लिए आकर्षण के केन्द्र थे और यहाँ से अध्ययन के पश्चात् जिस विचार धारा को वे सब अपने साथ ले जा रहे थे, वह सनकादि सम्प्रदाय के नाम से पहचानी गई, पूर्व में यह शैव और कालान्तर में वैष्णव कृष्णभक्त निम्बार्क मताबलम्बी हुए। समय के प्रवाह में यह साधु-समाज गृहस्थ होता चला गया और अपनी तपस्या तथा दान लेने व देने के कारण सनाढ्य कहलाने लगे। सन् $ आढ्य = सनाढय,, सन का शब्द- कोशीय अर्थ तपस्या तथा दान लेना व देना होता है। आज ब्रज, राजस्थान और इस जनपद के आसपास प्राप्त सनाढ्य ब्राह्मणों के आस्पद (पटा या अल्ल) अधिकांशतः इसी क्षेत्र के ग्राम-नामो के आधार पर मिलेंगे।
सनकादि सम्प्रदाय की गुरू परम्परा आद्याचार्यं, हंस, नारद और सनन्दनादि द्वारा व्यक्त हुई। निम्बार्क मत की ’हरिगुरुस्तवमाला’ में उल्लिखित गुरूपरम्परा के आद्याचार्य हंसनारायण राधाकृष्ण की युगलमूर्ति के प्रतीक हैं। उन्होंने इस मत की दीक्षा सनत्कुमार को दी, जो सनन्दनादि रूप से चतुर्व्यूहात्मक है। सनत्कुमार के शिष्य त्रेतायुग में प्रेमाभक्ति के सर्वश्रेष्ठ उपदेशक नारद जी थे, जिन्होंने इस तत्व को सुदर्शनचक्र अवतारभूत निम्बार्क को बतलाया।
’सौन्दर्य लहरी’ के टीकाकार पं0 लक्ष्मीनारायण के मत से प्रकट है कि सनकादि सम्प्रदाय के अनुयायी एवं प्रवर्तक साधु समाज हंस और परमहंस श्रेणी के हैं तथा सनक, सनन्दन, सनत्कुमार शुक्र और वशिष्ठ संहिता ही वेद से अविरूद्ध हैं। इन तंत्रों का आचार समयाचार है। स्पष्ट है कि इस मत ने आर्यो की सनातन निवृत्तिमार्गीय भक्ति और ’’भेदाभेद’’ का दार्शनिक रूप न केवल सुरक्षित रहा बल्कि उसे उचित वातावरण व स्थिति प्रदान कर आगे बढ़ाया, साथ ही इसमें तांत्रिक प्रभाव भी समाहित हो गया, जो इस क्षेत्र में अब तक दृष्टि गोचर और प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस क्षेत्र में व्याप्त कृष्ण भक्ति और तंत्र के प्रति लगाव का पूर्व रूप इसी सनकादि सम्प्रदाय का विस्तार है।
विदिशा से अहिच्छत्रा-मथुरा तक सारा क्षेत्र नागों के अधिकार में रहा। यह शैव मतावलम्बी थे। बाद में नाग यक्षों की भांति इतरदेव माने गए हैं। कृष्ण ने नागों और यक्षों के प्रभाव को नष्ट किया। हो सकता है क्योंकि संभवतः इनकी जीवनपद्धति में कुछ ऐसी विकृतियाँ आ गयी हों, जो समाज विरोधी हों और जिसके कारण इनके प्रभाव से तत्कालीन मानव समुदाय को छुटकारा दिलाने हेतु वासुदेव श्रीकृष्ण ने इनका वर्चस्व समाप्त करना आवश्यक समझा हो। सनाढ्य ब्राह्मणों का एक आस्पद नागार्च या नगायच इन्हीं नागों द्वारा अर्चित आचार्य होने का स्मरण दिलाता है। सेंवढ़ा स्थित सनकुंआ और पवायाँ ( पùावती ) के निकट ग्वालियर जिले की डबरा तहसील का एक छोटा गांव ’सनकुआ’ सनकानिकुलाय का अपभ्रंश होने का भान कराता है। जैसे ’भरकुआ’ ’’भारकुलाय’’ का ही विकसित रूप है। भार शिव नवनाग है। जिन्होंने इस भूभाग को बौद्धों से मुक्त कराकर पुनः वैदिक शिव भक्ति की ओर मोड़ा था। सनकादि के आश्रमों के अखाड़े एक विकसित सैन्य बल था। और वही सनकानीक नाम से विख्यात था वैसे अनीक का शब्दार्थ तीर का अग्रभाग होता है और सेना का अग्रभाग या खोजी दस्ता ’सनकानीक’ का उल्लेख समुद्र गुप्त को इलाहाबाद में अशोक स्तम्भ पर खोदी गयी विजय प्रशस्ति में है कि उसने आभीर प्रार्जुन ’सनकानीक’ खर्परिक आदि को विजित किया। ऐसा एक और उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त-द्वितीय का एक सामन्त सनकानीक था। उसके पिता, पितामह ’महाराज’ की उपाधि धारण करते थे। इसके साथ यह भी माना जाता है कि इनमें वंशानुगत सरदार शासन करते थे।
सनाढ्य ब्राह्मणों के पुराने घरों मे आज भी आपस में आदर सूचक महाराज शब्द ’बिन्नू महाराज’, ’मौसी महाराज’, ’’भैया महाराज’’ सहज रूप में बोला जाता है। यह सनकानीक जिसे इतिहासकार एक विलुप्त जाति मान बैठे हैं, इसी क्षेत्र के सनकादि के आश्रमों या सनकादि सम्प्रदाय के साधुओं की जमातों का अखाड़ा पक्ष था। जो इतना सशक्त और संगठित था कि अजेय माना जाता था और जिसको जीतना समुद्रगुप्त जैसे प्रतापी सम्राट को अपनी विजय प्रशस्ति में उल्लेखनीय लगा। इन सनकानीकों का प्रभाव क्षेत्र इसी विन्ध्यावटी में विदिशा तक था। क्योंकि अभी तक पुरा-सामग्री में इसी क्षेत्र में इनके चिन्ह प्राप्त हैं।
पूर्व गुप्त काल और गुप्तकाल में एक मुख शिव लिंग अनेक स्थानों पर स्थापित हुए। इस क्षेत्र के ’अमरेश्वर’’ जिनकी दो फुट ऊँची प्रतिमा आठ फुट ऊँचे चबूतरे पर विराजमान है, वह ऐसा ही एकमुख शिव लिंग है। दूसरे अक्षर अनन्य के वंशधरों के निवास के समीप खुले चबूतरे पर रखा शिरोभाग और तीसरे सिंधपार ’’अमरा’’ ग्राम से लाकर सम्वत् 1988 में पधराई यह प्रतिमा, जिनका सविस्तार वर्णन डॉ0 कामिनी के ’’सेंवढ़ा की मानव मुखाकृति वाली शिव प्रतिमाओं का रूपांकन’’ शीर्षक निबन्ध में किया गया है, हमें उसी काल के आस्था और विश्वासों को समझने में सहायक होता है। एक ऐसा ही एक मुख शिवलिंग दतिया के निकट छोटी बढ़ोनी में गुप्तेश्वर नाम से प्रसिद्ध है।
हमें अपने आस-पास इन मुखर संकेतों को समझने और जानने का यत्न करना चाहिए। जिससे हम अपने क्षेत्र को भली प्रकार भीतर तक पहचान सकें। हमारा अतीत हमें अपने वर्तमान को समझने में इस प्रकार सहायक हो सकता है। इसलिए हम इस सबको पहचान कर अपने आपको पहचानते हैं और पहचानना चाहिए।
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