ग्राम अभिधान और ’’पुरातत्व’’
राधारमण वैद्य
भाषा-विज्ञान और पुरातत्व पारस्परिक सहयोगी हैं। केवल ग्राम नामावली और यत्र-तत्र बिखरी पुरा-सामग्री का सम्बन्ध और उसकी संगति पर विचार करना है। इसी प्रकार जातीय आस्पद भी इसमें सहायक सिद्ध होते हैं। समाजशास्त्र के अध्येताओं द्वारा यदि उस क्षेत्र के मूल निवासियों के प्राचीन रीति-रिवाज का अध्ययन किया गया है, जो उस अध्ययन में इसकी भी सहायता ली जा सकती है। इस प्रकार एक मिला-जुला प्रयत्न किया जाय तो बहुत-सी ज्ञान की अज्ञात परतें पलटी जा सकती हैं। विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागाध्यक्ष यदि किसी क्षेत्र को पकड़कर इस प्रकार का मिला जुला प्रयत्न करें, तो इस प्रकारका अध्ययन और भी सुविधा और सुगमता से हो सकता है। दतिया जिले के ग्राम-अभिधानों पर विशेष रूप से और इधर-उधर सामान्य रूप से ध्यान देने, आसपास की पुरा सामग्री के अध्ययन से जो उपलब्धि हो सकी है, उसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है।
दतिया जिले के कुछ स्थानों के नाम किन्नरगढ़, भयथानों (कुरैठा-मयाथानों तथा सदका मयथानों), सनकुआ ;(सनकानीककुल), कुरथरा (कुरुथल), भरकुआ (भारकुल), भर्रोलियां (भारावलियां), भरसूला (भारसूल), बाजनी (वज्रयानी)-विभिन्न युगों की ओर संकेत करते हैं। किन्नर और मय महाभारत काल से पूर्व की संस्कृति का स्मरण करनेवाली जातियों के नाम हैं, जब यक्ष-पूजन विहित था। भाण्डेर (तत्कालीन ग्वालियर जिला), की सोनतलैया, जखौरा (यक्षक्षेत्र-यक्षोरा) तथा जाखलौन(यक्षावनि-यक्षलोन) (झांसी जिला ललितपुर के पास), पवायां (पद्यावती-ग्वालियर जिला) आदि नाम यक्षों का स्मरण दिलाते हैं। महाभारत काल के नाम कुरथरा, दतिया (दन्तवक्र से संबंधित), भाण्डेर ( कृष्ण के द्वारा नष्ट किये गये भंडीर वन) आदि ज्ञात होते हैं। भर्रौली, भरकुआ, भरसूआ द्वितीय शताब्दी के भारशिवों की कीर्ति को सुरक्षित रखे हैं। इस सब में कल्पना की उड़ान या निजी विश्वास का आरोप नहीं है, केवल व्याख्या-विश्लेषण का निरपेक्ष अवैयक्तिक निष्कर्ष पुरा-सामग्री के प्रकाश में प्रस्तुत किये गये हैं।
यह तो सर्व-विदित और सर्व-मान्य सत्य है कि विवेच्य क्षेत्र का सम्बन्ध यक्षों से रहा है। एक युग था महाभारत काल से पूर्व या महाभारत काल तक जब सर्वत्र इस क्षेत्र में यक्ष-पूजन किया जाता था। महाभारत में नलोपाख्यान का वर्णन है। नल से त्यक्त दमयन्ती निराश्रित होकर एक सार्थ (बंजारों का काफिला) के साथ चल दी। यह सार्थ चेदी जनपद की ओर जा रहा था। उसके सार्थवाह (सार्थ के मुखिया) ने मार्ग को निरापद और निष्कंटक बने रहने की कामना से मणिभद्र यक्ष की पूजा की थी। (वासुदेवशरण अग्रवालः भारत सावित्री, वन-पर्व-नलोपाख्यान)। मणिभद्र की एक विशालकाय मूर्ति पवायां (पदम पवायां-ग्वालियर जिला) से प्राप्त हुई है, जो गूजरी महल स्थित पुरातत्व संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह मूर्ति 300 वर्ष ईसा पूर्व की अनुमानी गई है। पदम पवायां का प्राचीन नाम पद्यावती है, जिसका आधार भी पद्यावती नामक यक्षिणी हो सकती है। पद्यावती नामक यक्षिणी तीर्थकर पार्श्वनाथ की शासन देवी मानी जाती है। एक काल था, जब यक्ष-पूजा बिना किसी भेदभाव के सभी जाति और सम्प्रदायों में प्रचलित थी। उसी काल में बसे गांवों के नाम यदि यक्षों से संबंधित रहे हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। भाण्डेर का सम्बन्ध भी भंडीर यक्ष से प्रतीत होता है और वहां की सोनतलैया का सोनभद्र यक्ष से। इस सोनतलैया को तीर्थ जैसा सम्मान प्राप्त है तथा इस पर एक मेला भी लगता है, जिस का हेतु लोगों को ज्ञात नहीं है। भाण्डेर नाम के कस्बे से तो सभी परिचित हैं, पर इसी नाम की एक पर्वत श्रेणी दमोह कटनी के बीच कैमूर पहाड़ियों तक फैली है। यह फैलाव भण्डीर यक्ष-पूजा का रहा होगा। जैनग्रंथ ‘‘आवश्यक चूर्णि’’ से ज्ञात होता है कि मथुरा भंडीर यक्ष की यात्रा के लिए प्रसिद्ध था। जैन धर्म के अनुयायी मध्यकाल तक भंडीर यक्ष की यात्रा के लिए इस ओर आते थे। ‘गोपाल सहस्त्रनाम’ में कृष्ण को भंडीर वन का संहारक कहा गया है। लगता है कि यक्ष पूजा की समाप्ति, इन्द्र-पूजन की तरह, कृष्ण ने कराई और वासुदेव पूजन का प्रसार किया। इसी सांस्कृतिक प्रसार में दतिया के ‘दन्तवक्र’ से भी कृष्ण को जूझना पड़ा था, जिसकी कथा सुप्रसिद्ध है।
इन सब बातों का इतिवृत्त न भी मिले पर उनका अपना सांस्कृतिक महत्व तो है ही। प्रागैतिहासिक काल की बहुत सी सामग्री इस भू-भाग में बिखरी है, जिनमंे बड़ौनी, परासरी, उनाव और क्योलारी के अपने महत्व हैं। यदि इन स्थानों पर विधिवत खुदाई कराई जाय, तो बहुत सी जानकारी प्रकाश में आ सकती है। उपरिलिखित यक्षों के महत्व को ही उजागर करने वाले अन्य नाम जखौरा और जाखलौन (ललितपुर के पास, झांसी जिला) भी है। सूरदास के एक पद-‘‘जसुदा तेरो मुख हरि जोवै। कमल नैन हरि हिचिकिन रोवै, बंधन छोरि जसोवै’’- में एक पक्ति हैं ‘‘ कोरी मटकी दही जमायों, जाख न पूजन पायो’’। यह जाख (यक्ष) घर-घर पूज्य था। कोरी मटकी में दही जमाया और उस दही को यक्ष-पूजन न कर सकने के पूर्व कृष्ण द्वारा खा लेने से जसोदा दुखी और शंकित हैं।
सनाढ्य ब्राह्मणों की उप-जाति ‘बड़ौनिया’ आस्पद छोटी बड़ौन की ओर इंगित करता है। इस गांव की प्राचीन स्थिति ख्याति सम्पन्न थी। आज भी आठवीं-दसवीं शती की पुरा सामग्री चौड़े में बिखरी है। पृथ्वी के गर्भ में क्या-क्या होगा, इसका तो अनुमान भी नहीं किया जा सकता। यहां गोपेश्वर नामक पहाड़ी पर स्थापित एकमुख लिंग, पूर्व गुप्त काल के नचना-भुमरा से प्राप्त शिवलिंगों का स्मरण दिलाता है। इसकी स्थापना जरायु के स्थान पर चौकोरबेदी पर है, जो उस युग की अपनी विशेषता थाी। इस छोटी बड़ौन के जोगियों की जातीय परम्परा भी अध्ययन की अपेक्षा रखती है। इस अध्ययन से भी धार्मिक विकास को समझने में सहायता मिलेगी। यह जोगी नाथ सम्प्रदाय से संबंधित रहे होंगे। डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक-‘‘नाथ सम्प्रदाय’’ (पृष्ठ-22) मंें लिखा है- ‘‘ग्वालियर के पास किसी ‘बरौन’’ (बडौन) नाम ग्राम में एक बाघ का बड़ा उपद्रव था। लोगों ने ‘‘बतूता’’ (इब्न बतूता-समय लगभग 1431 ई0) को बताया कि वह कोई योगी है जो बाघ का रूप धर के लोगों को खा जाता है। इन खौफनाक योगियों के वंशधर यह वर्तमान जोगी हैं, अतएव इनके घरेलू रीति-रिवाजों या पूजा-पद्धतियों में कुछ प्राचीन तत्व लक्षित हो सकते हैं। इसी बड़ौन के पास स्थित एक बाजनी, जिसका तत्सम रूप ‘बज्रयानी’’ हो सकता है, की स्थिति और इस क्षेत्र की आज भी पाई जाने वाली तांत्रिक परम्परा का ब्यौरेवार इतिहास हाथ लग सकता है।
इस छोटी बड़ौन में मिट्टी की ‘‘पाटल मुद्राएं’’ (लाल मोहरें) भी मिलती हैं। इन मोहरों पर ‘चैत्य चिन्ह’’ अंकित है और आसपास कुछ लिखा हुआ है, जो अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। यदि इन मोहरों पर अंकित मंत्र (या जो भी लिखा हो) पढ़े जा सकें, तो इन चैत्य-पूजकों के मत या सम्प्रदाय का पता लग सकता है। ऐसा इतिहासविदों का मत है कि इस प्रकार की मोहरें अपनी पूजा विधि सहित चैत्यों में चढ़ाई जाती थीं। परासरी (उनाव) में भी इस प्रकार के चैत्य चिन्ह या अवशेष अनुमानित हैं। बुन्देली शब्द ‘चतौरा’’ इसी चैत्य शब्द का तद्भव रूप होता है। जैन और बौद्ध दोनों मतों में चैत्य पूजन विहित रहा है। चैत्य शब्द ‘चिति’ से बना है। चिति का अर्थ है चिता अतः चिता पर बने स्मृति चिन्ह चैत्य है। चैत्य को आगे चलकर मड़िया भी कहने लगे। दतिया स्थित मड़िया के महादेव इसी तरह के किसी चैत्य पर स्थापित शिव ही हैं। चैत्य यक्षों के आवास गृह के रूप में प्रसिद्ध है और चैत्य शिला यक्ष-शिला के रूप में।
ईसा पूर्व से लेकर ईसा की चौथी शती तक पांच सौ वर्षो तक का ‘‘नाग राजाओं का इतिहास’’ जिसे काशीप्रसाद जायसवाल ने भरसक उजागर करने का प्रयत्न किया है, अभी भी अधूरा ही है। नव नाग राजा, जो भारशिव नाम से भी विख्यात हैं, इनकी तीनों राजधानियां पद्यावती (वर्तमान पवाया), कान्तिपुर (कन्तित, मुरैना जिला) तथा मथुरा इसी भू-भाग से संबंधित हैं। अनेक गांव भर्रौली नाम से अभिहित हैं। वे सभी भर्रौलियां (भारावलियां) उन्हीं भारशिवों के यश के स्मारक के रूप हैं। भरकुआ ( भारकुल), भदौना (भारद्रोण), भड़ौल (भरौल) भी इसी के सूचक हैं। (दृष्टव्य दैनिक निरंजनः 04 फरवरी 71 व दैनिग जागरणः 20 जून 71) इन भारशिवों ने बौद्धों को हटाकर अपने इष्ट शिव की स्थापना की होगी-ऐसा अनुमान है। इन भारशिवों के समय का एक शिव मंदिर भाण्डेर के पास स्थित भर्रौली में बना हुआ है, जिसका स्थापत्य पूर्व गुप्त काल का है, अभी तक इस अद्भुत उपलब्धि पर ऐतिहासिक विद्वानों का ध्यान नहीं है। उपर्युक्त छोटी बड़ोन की एकमुख लिंग की गोपेश्वर वाली मूर्ति भी उसी काल की प्रतीत होती है।
छोटी बड़ौन में ‘सात पूत की माता’’ के नाम से विख्यात मूर्ति की चरण चौकी पड़ी है, जिस पर कुछ लेख भी अंकित हैं, जिसके अक्षरों की बनावट के आधार पर डॉ0 मोतीचंद जी ने उसे आठवीं-दसवीं सदी का बताया है। यदि इसे किसी संग्रहालय में उठा लिया जाय, तो न केवल उसकी सुरक्षा हो जावेगी, वरन् एक इतिहास खण्ड सुरक्षित रह जावेगा। गोपेश्वर (छोटी बड़ौन) पर पड़ी एक ओर मूर्ति, जो धड़ मात्र है, ध्यान देने योग्य है। इनके पैरों में बद्दियों वाले पदत्राण बनाये गये हैं। ऐसे अब तक या तो कुषाणकालीन सूर्य की मूर्ति में पाये गये हैं अथवा सम्राट कनिष्क की मूर्ति में । इस मूर्ति की पहचान आवश्यक है, अन्य मूर्ति खण्ड जो स्पष्ट रूप से आठवीं दसवीं शती के हैं, किसी पुराविद की कृपा-दृष्टि के अभाव में उपेक्षित पड़े हुए हैं।
एक उल्लेखनीय मूर्ति, जो अब तीन टुकड़ों में पड़ी है, बड़ी अद्भुत और कला की दृष्टि से श्रेष्ठ है। इस मूर्ति में उमा-महेश्वर को कैलाश सहित रावण उठाये हुए उकेरा गया है। एक सिद्वासन में प्राप्त मूर्ति कुछ लोगों की दृष्टि में जैन तीर्थकर की और कुछ लोगों की दृष्टि में बुद्ध की बताई जाती है। इस मूर्ति की भी पहचान आवश्यक है। इस प्रकार की एक जैन तीर्थकर की मूर्ति, एक शिव की मूर्ति का अत्यन्त कलात्मक शिरोभाग, कुछ अन्य मूर्तिया दतिया जिला संग्रहालय में रखी गई है।
अब इन सबकी ओर ध्यान दिया जाय, कुछ भाषा-वैज्ञानिक ग्राम-अभिधानों, स्थान के नामों और विभिन्न जातियों के आस्पदों का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन करें, समाजशास्त्री जन-जातियों का अध्ययन करें। पुरातत्वविद् कुछ स्थानों का सर्वेक्षण करके उत्खनन योग्य स्थान निश्चित करें तथा उस दिशा मंे क्रियाशील हों, इधर-उधर बिखरी और नष्ट हो रही पुरा सामग्री को जिला स्तरीय, संभागीय या विश्वविद्यालयीन स्तर पर किसी संग्रहालय में संग्रहीत करें, तो गुजर्रा के शिलालेख जैसी पुरातत्व की विख्यात धरोहर का धनी यह भू-भाग अपना ऐतिहासिक यश उजागर कर सकेगा और हम सब अपने अतीत की गरिमा से गौरवान्वित हो सकेंगे।
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