twailth fail-vilakshan upanyas in Hindi Book Reviews by राज बोहरे books and stories PDF | ट्वेल्थ फेल: विलक्षण उपन्यास

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ट्वेल्थ फेल: विलक्षण उपन्यास

समीक्षा- ट्वेल्थ फेल: विलक्षण उपन्यास

राजनारायण बोहरे

पुस्तक- ट्वेल्थ फेल

(उपन्यास)

लेखक-अनुराग पाठक

प्रकाशक-नियो लिट पब्लिकेशन इन्दौर

मूल्य-196/- रू

‘‘ अगर दुनिया का सबसे निराश व्यक्ति भी इस पुस्तक को पढ़ लेता है तो उसमें एक नई ऊर्जा का संचार हो जायेगा।’’ आनंद कुमार संस्थापक , सुपर 30

उपन्यास ‘‘ट्वेल्थ फेल: हारा वही जो लड़ा नही’’ के बारे में आनंद कुमार द्वारा कहा गया यह वाक्य उपन्यास के कवर पृष्ठ पर छपा है, यही नहीं भारत वर्ष के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ.पी.रावत, मुम्बई के विख्यात शासकीय अधिवक्ता उज्जवल निकम, पत्रकार रजतशर्मा एवं दिवांग, जम्मू कश्मीर के गवर्नन के सलाहकार विजयकुमार, फिल्म निर्देशक राजकुमार हिरानी-अनुराग कश्यप-विशाल भारद्वाज व फिल्म अभिनेता मनोज बाजपेयी-आसुतोष राणा और प्रसिद्ध क्रिकेटर सचिन तेन्दुलकर-सुनील गावस्कर ने भी इस पुस्तक पर अपनी ऐसी ही टिप्पणी दी हैं।

अनुराग पाठक का यह उपन्यास पिछले दिनों नियो लिट पब्लिकेशन इन्दौर द्वारा प्रकाशित किया गया है, इसके पहले अनुराग पाठक का कहानी संग्रह ‘वॉट्स एप पर क्रांन्ति’. अपने दिनों में खूब चर्चित रहा। उक्त संग्रह के अग्रलेख में प्रख्यात कथाकार महेश कटारे ने लिखा था कि ‘ कहानियों की जड़ें आसपास के यथार्थ की भूमि में हैं जिसके अन्तर्द्वंद्वों को नए सन्दर्भ और प्रभावों को देखने की जरूरत है। अनुराग इन्हीं अन्तर्द्वंद्वों के साथ अनुभव का संतुलन बनाते हैं तथा विषय वस्तु को सहज संवेदना के ऐसे दायरे में उदघाटित करते हैं जो चेतन भगतों जैसी अंग्रेजी सरलता आस्वादी पाठकों के आसपास ठहर और आकर्षित कर पाती है। आज का युवा उस भविष्य को लेकर उत्कंठित है जो अस्पष्टता के बावजूद अपनी चमक से अभिप्रेत प्रतीत होता है।’

उपन्यास ‘‘ट्वेल्थ फेल: हारा वही जो लड़ा नही’’ की कथा बहुत सहज ढंग से आरंभ होती है। डकैत समस्या और अक्खड़ स्वभाव के लिये कुख्यात मुरैना जिले के एक बड़े से गांव जौरा के म0प्र0 के शिक्षा मण्डल की बोर्ड की बारहवीं कक्षा के एक परीक्षा केेन्द्र पर होने वाली नकल के सिलसिले मंें अचानक व्यवधान आता है और रोज की तरह गणित की परीक्षा के दिन एक भी परीक्षार्थी इसलिए नकल नही कर पाते क्योंकि उस दिन इलाके के एस.डी.एम. यानि सब डिवीजनल मैजिस्टेªट ने उस परीक्षा केन्द्र पर अचानक छापा मार दिया था। केंद्र के परीक्षार्थियों में मनोज नामक एक किशोर भी है जो इलाके के हजारों दूसरे परीक्षार्थियों की तरह केवल नकल के सहारे परीक्षा केंद्र पर परीक्षा उपस्थित हुआ है अचानक एसडीएम दुष्यंतसिह वहां उपस्थित होते हैं और नकल रूक जाती है। मनोज को बड़ा अचरज होता है कि एक एसडीएम इतने सारे नकल नहीं करने देने में समर्थ होता है। नकल न कर पाने की वजह से दूसरों के साथ मनोज भी ट्वेल्थ में फेल हो जाता है जबकि बिना नकल दिये गये हिन्दी के प्रश्नपत्र में उसे सर्वाधिक प्राप्तांक मिलते हैं । मनोज के पिता रामवीरशर्मा सरकारी नौकरी में हैं और सनकी होने की हद तक ईमानदार हैं, इस कारण विभाग के सारे अधिकारियों से झगड़ते रहते हैं और नौकरी पर बहाली से ज्यादा निलम्बन पर रहते हैं। वे मनोज के फेल हो जाने पर आगे पढ़ाने से इन्कार कर देते हैं तो मनोज किसी रोजगार की तलाश में अपने गांव के दूसरे दोस्तों के उकसाने पर कर्ज लेकर एक टेम्पो खरीद लेता है और अपने भाई के साथ जौरा से मुरैना के बीच सवारियां ढोने लगता है। एक बार सड़क पर चेकिंग में उसका टेम्पो धर लिया जाता है, क्योंकि उस रूट पर चलने वाली बस के मालिकों ने अपनी बस की संभावित सवारियां उठा लेेने वाले सारे टेम्पो बन्द करवाने कि लिए पुलिस दारोगा से सैटिंग की है। मनोज अपना टेम्पो छुड़वाने के लिए एसडीएम दुष्यंतसिह के पास जाता है उसे विश्वास है कि एक क्रिकेट मैच में शानदार कमेंट्री करने की वजह से उसकी तारीफ कर चुके उससे परिचित हैं और टेम्पो जरूर छोड़ देंगे लेकिन उसकी हिम्मत नहीं होती कि अपने टेम्पों को छोड़ने की बात करें तो मनोज एसडीएम से मिलने के लिए भरी गयी पर्ची पर मिलने का सबब लिखता है- कैरियर और पढ़ाई पर चर्चा करना, एसडीएम दुष्यंतसिह उसे तुरंत ही बिठा लेते हैं, उनकी और मनेाज के बीच हुई बातचीत का यह अंश उपन्यास की कथा में महत्वपूर्ण है-

‘ मनोज तुम अपने कैरियर के बारे में बात करना चाहते थे।’ दुष्यंतसिह उसके आने का कारण भूले नहीं थे।

‘ जी सर ।’ मनोज ने जैसे किसी स्वप्न से जागते हुए कहा।

‘ क्या लक्ष्य है तुम्हारा मनोज, तुम क्या बनना चाहते हो?’ दुष्यत सिंह ने पूछा।

‘ सर मैं आप जैसा बनना चाहता हूं ।’ दुष्यंतसिह के सम्मोहन के जादू में बंधे मनोज के मुंह से निकल पड़ा। पर ट्वेल्थ फेल मनोज को पता नहीं था कि कैसे बनते हैं एसडीएम? वह तो बस उस पद के आकर्षण में बंध सा गया था।

‘मनोज स्टेट सर्विस मे जाने के लिए पीएससी की परीक्षा देनी पड़ती हे। पीएससी में सिलेक्ट होकर डिप्टी कलेक्टर बनते हैं। सब डिवीजन में काम करने वाले डिप्टी कलेक्टर को एसडीएम कहते हैं।’ दुष्यंतसिह ने बहुत सरल तरीके से उसे समझाया।

कुछ महीने पहले ट्वेल्थ में फेल हुए निराश मनोज को दुष्यंतसिह ने दूर झिलमिलाता हुआ धुंधला सा कोई सपना सौंप दिया। उस सपने को मन में बसाए वह अपने घर लौट आया। टेम्पो को छुड़ाने की कोई सिफारिश नही हो पाई। (पृष्ठ 32,33)

यह मनोज के जीवन का टर्निंग पॉइंट है, उसे लगन लग जाती है कि किसी भी तरह बी ए करना है और लोक सेवा आयोग की परीक्षा देना है, अब तो एसडीएम यानि डिप्टी कलेक्टर बनना है।

मनोज अपने गाँव से निकल कर ग्वालियर आता है जहां वह अपनी मांँ द्वारा दिये गये पैसे से कंुछ दिन का समय काटता है, फिर अपने एक परिचित की सिफारिस पर साहित्य सभा के एक पुस्तकालय में लाइब्रेरियन की नौकरी कर लेता है और स्नातक पाठयक्रम यानि ग्रेज्यूयेशन की परीक्षा देता है। पुस्तकालय में ही निवास होने से मनोज के चारों ओर फैली पुस्तकें और वहां होते रहने वाले कार्यक्रम उसके संकल्प को बल देते हैं। वह भी जोश में आकर रात को खाली पुस्तकालय में वहां के कार्यक्रमों में आने वाले वक्ताओं की तरह एकाकी भाषण देता है और पुस्तकालय की पुस्तकों का गहन अध्ययन भी करता रहता है । एक बार पुस्तकालय के हॉल की पुताई के आर्थिक प्रबंध के लिए लाइब्रेरी के मैनेजर हुकुचंद का पुरानी रद्दी बेचने का आदेश पाकर मनोज पांच हजाार रूपये में अखबार की रद्दी बेच देता है कि पुस्तकालय के मैनेजर कहते है -‘ पिछले साल तो सात हजार की रद्दी बिकी थी । इस साल केवल पांच हजार की कैसे बिकी ?’

वे समझते हैं कि बीच में मनेाज ने कुछ पैसा बचा लिया हैं। सीधा आरोप न होने पर भी मनोज का मन विचलित और निराश होता है वह पुस्तकालय छोड़ देता है और टयूशन की तलाश व चक्की पर आटा पीसने का काम करते हुए पढ़ाई करने लगता है। बाद अपने मित्र पांडेय के प्रस्ताव पर वह उसके साथ साझेदार हो कर उस पीली कोठी मंे होस्टलर बन जाता है जिसके बारे में यह कहा जाता है कि यहां पढ़ाई का बहंुत जबरदस्त माहौल है और यहां रह कर पढ़ने वालों ंका सदा ही लोक सेवा आयोग की परीक्षा में चयन होता है। पहली साल किसी तरह का गाइडेंस न होने की वजह से पांडेय ओर मनोज लोक सेवा आयोग की तीन स्तर की परीक्षा के पहले चरण में ही पास नही होते तो बहुत निराश हो जाते है कि नगर की दबंग युवती अंशु गुर्जर वहां आ जाती है जो कि अभी अभी डिप्टी सुप्रिंटेंडेट ऑफ पुलिस के पद पर चुनी गयी है। वह मनेाज को न केवल निराशा से उबार कर प्रेरणा देती है बल्कि आर्थिक सहायता भी देती है। बाद में मध्यप्रदेश की सरकार सारी भर्ती परीक्षाओं को स्थगित कर देती है तो अंशु की प्रेरणा इन शब्दों में मिलती है-राज्य लोकसेवा का अब कोई भविष्य नही दिख रहा, इसलिए तुम लोग संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सर्विसेज पर फोकस करो।’ अपने आपको बहंुत योग्य समझने वाला गुप्ता कहता है-दीदी आईएएस आयपीएस बनना बहुत कठिन है। उसकी तो कभी प्रिलिम्स ही नहीं निकलेगी। मेहनत करके पीएससी में तो कही लटक सकते थे पर सिविल सर्विस में होना तो नामुमकिन है।’ जिसके जवाब में अंशु कहती है-मैं जानती हूं कि यदि तुम लोग दो साल दिल्ली में रहके कोचिंग करोगे तो सिविल सर्विस कोई बहुत कठिन नहीं है। वहां कोई आसमान से लडके नहीं आते। (पृष्ठ 77)

पांडेय और मनोज संघ लोक सेवा आयोग दिल्ली( यू पी एस सी) की परीक्षा देने यानि कि अखिल भारतीय सेवाओं में चयन के लिए भाग्य आजमाने हेतु कोचिंग करने के वास्ते दिल्ली का रूख करते हैं। दिल्ली में मुखर्जीनगर स्थित एक कोंचिंग इंस्टीटयूट में उन लोगों का प्रवेश होता है और संयोग से हिन्दी के एक टेस्ट में मनोज को अपने बैच में सबसे ज्यादा नंबर मिलते हैं और विकास सर पूरे छात्रों के सामने उसकी तारीफ करते हैं और आशा करते हैं कि मनोज के सफल होने की उम्मीत है, तो उसका उत्साह आसमान से जा टकराता है। यहां मनोज की दोस्ती श्रद्धा नाम की एक बहुत मेधावी छात्रा से होती है जो कि मनोज के आत्मविश्वास और उसकी लगन से गहरे से प्रभावित है। मनोज श्रद्धा से प्यार कर बैठता है, यह प्यार का चक्कर मनोज के रूमपार्टनर और ग्वालियर के साथी पांडेय को पसंद नही आता। वह मनोज को अपने रूम पार्टनर के रूप में अस्वीकार कर दूसरी जगह रहने चला जाता है, और मनोज नये पार्टनर रा लेता है जिनके साथ कभी कुक के रूप में काम करके तो कभी एक पॉश कॉलानी में कुत्ता घुमाने की नौकरी करके वह अपना खर्च निकालता है। समय निकलता रहता है और वे लोग परीक्षा देते रहते हैं। परीक्षा देने हेतु छात्रों को सीमित अवसर ही देने का नियम है । एक एक करके दो अवसर व्यर्थ चले जाने पर मनेाज बहुत तनाव में आजाता है और आखिरी बार में जब वह मुख्य परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो श्रद्धा की प्रेरणा मिलते रहने के बाद भी भीतर से घबराया हुआ है । मौखिक साक्षात्कार इस परीक्षा का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है , क्योंकि साक्षात्कार बोर्डमें देश के चुने हुये विद्वान और घाघ राजनयिक व अधिकारियों को सम्मिलित किया जाता है जिनके द्वारा छात्र से साक्षात्कार लिया जाता हैै। साक्षात्कार मंे मनोज को एक एसेे अंग्रेजी समर्थक प्रोफेसर का सामना करना पड़ता है जो पूर्व से यह तय किये बैठा है कि देश की अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में ऐसे व्यक्ति का चयन नहीं होना चाहिए जो अंग्रेजी नही जानता। इस मुददे पर हुई साक्षात्कार के समय हुयी बातचीत के अंश दिलचस्प हैं-

डॉ. मेहता मनोज के इस भाव प्रवण उत्तर से प्रभावित नहीं हुए,उन्होंने मनोज से आगे कहा-‘ आप कुछ भी कहिए, पर मैंने आपका पूरा कैरियर देखा। आप इंग्लिश में बहुत वीक हैं, इग्लिश लिटरेचर में आपके हमेशा सिर्फ पासिंग मार्क्स आये हैं। एडमिस्टेªशन केन नॉट बी रन इद द एब्सेंस ऑफ इंग्लिश।’

मनोज फिर फंस गया। डॉ. मेहता भावुक नहीं निकले। वह कट्टर और अपने मत पर कायम हरने वाले निकले। पर मनोज ने हिम्मत नही हारी-‘ सर प्र्रशासन में भाषा उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितनी आपकी सच्ची नीयत। ’

मनोज ने डॉ.मेहता की इंग्लिश को महत्व देने वाली विचारधारा का विरोध कर दिया। डॉ. मेहता को उसका यह विरोध पसंद नहीं आया। उन्हांेने नाराजगी के स्वर में कहा- नो दिस इज एन एक्सक्यूज टू हाइड योर इग्नोरंस इन इंग्लिश। हाउ केन यू सर्व द कंट्री विथ दिस वीकनेस।?’

इंग्लिस में कमजोर परीक्षार्थी से डॉ. मेहता इंग्लिस में ही सवाल पूछ रहे थे। (पृष्ठ 170)

आगे का संवाद भी महत्वपूर्ण है-

एक अन्य मैम्बर ने आश्चर्य से पूछा-‘ आप कैसे योग्य हैं उस लड़के से, जो क्लास फर्स्ट से आज तक अपनी हर परीक्षा में टॉप करता आ रहा है?’

मनोज ने जवाब दिया-‘अपनी अयोग्यता को जीतना ही सबसे बड़ी योग्यता होती है। मैं ट्वेल्थ फेल एक अयोग्य लड़का हुआ करता था सर! क्यों कि गाँव के बच्चों को गाँव के सरकारी स्कूलों मे पढ़ाई का वह स्तर नहीं मिलता जो शहरों केे इंग्लिस मीडियम स्कूलों के लड़कों से कॉम्पीट कर सकें। इन अभावों के बावजूद अपने संघर्ष और संकल्प के कारण मैं यहां तक आ सका हूँ। किन्हीं दो लोगों की तुलना उनके परिणामों से नहीं होना चाहिए, बल्कि उनकी परिस्थितियों और सुविधाओं के आधार पर भी होनी चाहिए।’(पृष्ठ 171)

और अन्त में इस ट्वेल्थ फेल के नाम से पहचाने जाते लड़के का आई पी एस सेवा के लिए चयन हो जाता है।

पात्र एवं चरित्रों के नजरिये से इस उपन्यास को देखा जाये तो हम पाते हैं कि उपन्यास में जरूरत मुताबिक पात्र हैं। मनोज का मित्र पांडेय इस उपन्यास का मजेदार पात्र है, जो कभी तो मनोज को बहुत उत्साहित करता है कभी एकदम हतोत्साहित। दुराव छिपाव पांडेय में कम है, वह किसी के भी साथ भेंट होते वक्त बिना हिचक के मनोज द्वारा छिपाई गई बातें प्रकट कर देता है । पांडेय मनोज के साथ मन से जुड़कर राज्य लोक सेवा आयोग और संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षायें देता है, लेकिन श्रद्धा से मनोज के एफेयर की वजह से वह चिढ़ कर अलग हो जाता है, जबकि मजेदार बात यह है राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा देते समय वह खुद एक जगह एक तरफा प्यार कर चुका है। आरंभ में मनोज की आर्थिक और मानसिक दुश्चिंताओं से निवारण के लिए त्यागी जी के पास वही ले जाता है तो पीली कोठी के छात्रावास में वही मनोज को अपने खर्चे पर अपने कमरे मंे ंसाझेदार बना कर रहता है। मनोज जब परीक्षा के बाद अपने घर जाचुकी श्रद्धा से मिलने अल्मोड़ा जाता है तो श्रद्धा की मां को फोन करके पांडेय ही मनोज और श्रद्धा के प्रणय की सूचना देता है। एक अन्य अविस्मरणीय चरित्र रजनीश त्यागी हैं। त्यागी जैसे सहयोगी चरित्र समाज में कम संख्या में हैं लेकिन वास्तविक हैं, तो मनोज के पिता जैसे सनकी और मनोज की मां जैसी सहनशील और थोड़े मंे सब सम्हाल लेने वाली भी महिलाएं इस समाज में मिल जाती हैं। एक चरित्र कोचिंग प्रमुख विकास सर का है , विकास सर भी जीनियस और सहज सरल विलक्षण चरित्र हैं तो श्रद्धा और अंशु गुर्जर भी वास्तविकता के बहुत निकट हैं। कथा नायक मनोज एक सहज सरल और जबर्दस्त लगनशील युवा है जो लेखक की मर्जी से खड़ा किया गया फर्जी चरित्र सर कठपुतली नहीं बल्कि एक जीवित, जाग्रत व वास्तविक पात्र ही दिखता है। चम्बल घाटी के एक आम किशोर का भोलापन उसमें पूरी तौर पर उभर कर आता है जिसका चरित्र बहंुत इत्मीनान से विकसित होता है। आरंभ में भी जब परीक्षा केंद्र पर परीक्षा देने छात्रों से नकल सामग्री छीन ली जाती है,तब ही मनोज की पहली नजर इस लक्ष्य पर पड़ती है-

लेकिन दस मिनट बीत गए और मामला सेटल नहीं हुआ तो विद्यार्थियों में बेचैनी बढ़ने लगी। उनके ऊपर फेल होने का खतरा मड़राने लगा। आज के इस रंगमंच के केन्द्र में खड़े एक युवक की ओर इशारा करते हुए एक लड़का बोला-‘‘जे तो एसडीएम दुष्यंतसिह है।’’

दुष्यंतसिह ने नरेंद्रसिंह से कहा-‘‘आपको शर्म आनी चाहिए, आप खुलेआम नकल करा रहे हैं।’’

घबराये हुए लड़के और अधिक घबरा गए। एक सरकारी अधिकारी की ताकत देख कर मनोज को आश्चर्य हो रहा था। एसडीएम का रौब-रूतबा गजब का था। हमेशा अपनी दबंगई में रहने वाला जौरा थाने का थानेदार कुशवाह भी अपने से आधी उम्र के एसडीएम के सामने हाथ बांधे खड़ा था। नकल के इंतजार में बैठे लड़के एसडीएक को कोस रहे थे। (पृष्ठ 15)

ट्वेल्थ फेल हो जाने पर टेम्पो चलाने के दौरान जब वह दुष्यंतसिंह के पास जाता है तो एक फर्जी मुकदमे का पर्दाफाश करता दुष्यंतसिह अचानक मनोज को एक नायक के रूप मे ही नही बल्कि एक पद के रूप में भी एसडीएम का पद उसे लुभाने लगता है। बाद में कितने संकट आते हैं । उसका दोस्त जब उसे पीएससी की परीक्षा छोड़ देने पर शर्मिंद करता है-मनोज देश की सेवा करबे के लिए पीएससी मे ंपास होना जरूरी है नही ंतो ऐसे ही मठ, आश्रम में अपनी जिंदगी से भगने वाले तमाम लोग टेम काट रहे हैं।’ मनोज पर इस असर हुआ तो मनोज का जवाब था -‘‘ तू सही कह रहा है, पीएससी की तैयारी से भागना कायरता होगी। लोग यही कहेंगे कि मुझमे ंपरीक्षा पास करने का दम नहीं था,इसलिए तैयारी छोड़ दी। मुझे अपनी योग्यता एवं क्षमता को जांचना है, इसलिए मैं पीएससी में सिलेक्ट हो कर ही देश की सेवा करूंगा।’’(पृष्ठ 51)

पीएससी में सिलेक्ट हो कर ही देश की सेवा के संकल्प के साथ ग्वालियर आकर मनोज बहुत असहनीय तकलीफ भोगता है जिसमें एक विकट तकलीफ तो आरंभिक दिनों में ही आ जाती है कि उनका रूम पार्टनर कमरे की चाबी लेकर मनोज को बिना बतायें हीअपने गांव चला जाता है, और असहाय लेकिन खुदगर्ज मनोज किसी को नहीं बताता कि उसकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं है। तीन दिन तक मनोज बिना खायेपिये रहता है और रात को सड़क किनारे की बैन्च पर लेट जाता है और आखिरशः एक भोजनालय वाले से कहता है कि उसको खाना चाहिए जिसके बदले में वह बर्तन मांजकर कीमत खाने की कीमत चुकाने को तैयार है, भोजनालय वाला मनोज को भोजन कराता है और लाख जिद करता है कि बर्तन नहीं मंजवाना जब तुम्हारे पास पैसे आ जाये ंतो दे जाना लेकिन अपनी जिद्द की लिए यादगार यह चरित्र बिना बर्तन मांजे वहां से हटता नही है। दुकान पर ही एक अन्य मित्र के मिल जाने पर मनोज का यह लावारिस भटकना बंद हो जाता है।

दिल्ली जाकर यू पी एस सी की परीक्षा देने का साहस करने वाला मनोज अंग्रेजी कितनी जानता है इस का तब मिलता है जब वह सामान्य अध्ययन और कम्पल्सरी अंग्रेजी की परीक्षा देकर लौटता है,यह अंश देखिये-

अविनास के पूछने पर मनोज न बताया - ‘मुझे लगता है कि इंग्लिश में तो मैं पास हो जाऊंगा मैंने ‘टेरेरिज्म इन इंडिया’ का एस्से बहुत अच्छा लिखा है।’

अविनाश ने पेपर देखते हुए मनोज से पूछा-‘ मनोज कहां है ‘टेरेरिज्म इन इंडिया’ का एस्से?’

‘ अविनाश भाई आप भी ठीक से देख नहीं पाते, पीछे के पेज पर देखो तीसरे नम्बर पर है।’ मनोज ने आत्मविश्वास से कहा।

‘इस एस्से में मैने बहुत विस्तार से टेरेरिज्म के बारेमें लिखा है। टेरेरिज्म के कारण, उसके इंडिया पर इम्पेक्ट, हाउ टू सॉल्व दिस प्रोब्लम ,डिफरेंस बिटवीन कश्मीर एण्ड पंजाब टेरेरिज्म।’ मनोज ने जोश और उत्साह से परीक्षा में लिखे गए अपने एस्से की विशेषताएं अविनाश को गिनाईं।

अविनाश अभी भी पेपर में ‘टेरेरिज्म इन इंडिया’ टॉपिक ढूढ़ रहा था। पर जबवह एस्से नहीं ढूढ़ पाय तो मनोज ने पेपर लिया ओर और उस स्थान पर उंगली रखदी जाहं वह टॉपिक लिखा था।

‘ ये रहा । तुम देख नहीं पा रहे अविनाश।’-मनोज ने अविनाश से खीझते हुए कहा।

अविनाश ने उस स्थान को देखते हुए कहा जहां मनोज की उंगली रखी हुई थी- ‘ यह तो ‘टूरिज्म इन इंडिया’ है।’

मनोज ने जब दोबारा ध्यान से पढ़ा तो वहां ‘टेरेरिज्म नही टूरिज्म लिखा हुआ था। मनोज को समझ नहीं आया कि यह कैसे हो गया? इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी। वह जिस एस्से को सही समझ रहा था , वह गलत हो गयाथा। वह टूरिज्म और टेरेरिज्म की स्पेंलिंग में कन्फ्युज हो गया था। मनोज को लगा कि उसके भीतर का खून सूख गया है। उसकी आंखांें के सामने अंधेरा छा गया।(पृष्ठ 95)

कहानी तीन जगह बंटी है, जौरा, ग्वालियर और दिल्ली। ट्वैल्थ फेल में तीनों के लोकेल खूब उभर कर आते हैं।ग्वालियर की नई सड़क का माहौल, रात विरात निकलती बारातें, नाचगाने और टैम्पो तथा एम एल बी कॉलेज का कैम्पस उपन्यास में जीवंत होता है, तो जौरा की स्थानीयता वहाँं की भाषा, अवधारणाओं और वेष से प्रकट होती है। मुखर्जीनगर में अध्ययनरत देश के भावी प्रशासकों की जीवनपद्धति, मानसिकता ,दिनचर्या और अपनी शब्दावली माहौल को वास्तविकता देती है। इस नजरिये से उपन्यास सराहनीय है।

इस उपन्यास में पात्रों का अन्तर्द्वंद्व एक महत्वपूर्ण बिन्दु के रूप में उभर के आया है। मनोर्द्वंद्व की जितनी संभावना इस कथानक में थी, वह पूरी हुई है और लगभग वैसे ही प्रचण्ड व प्रचुर रूप में पाठकांें के समक्ष मनोर्द्वंद्व आता भी है। मनोज यानि नायक जब बारहवीं की परीक्षा देने के लिए नकल की प्रत्याशा में परीक्षा केंद्र पहुंचता है और यकवयक नकल नहीं होने दी जाती तो वह कैसे अन्तर्द्वंद्व में जीता होगा ? इसकी सहज कल्पना ही की जा सकती है, इस द्वंद्व को लेखक ने बिना किन्ही मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों और बिना किन्ही कठिन भाषायी मुहाविरों की जगह सहज रूप से चित्रित किया है।

इस उपन्यास में प्रेम अपनी ऊर्जा और माधुर्य के साथ अनायास आता है, जिसमें पहला प्रेम पांडेय का है दूसरा मनोज और श्रद्धा का है। पांडेय का प्रेम तो द्धिपक्षीय हो ही नहीं पाया पर मनोज के यहां आया तो बहुत प्रेरक बन कर आया।

श्रद्धा की आंखें अब हिल नहीं पा रही थीं, वे मनोज के चेहरे पर जम सी गई थीं। मनोजकी नजरें अंधेरे पार्क में कुछ ढूंढ़ने लगीं। जब उसे अपनी नजरें पार्क में घुमाने के बाद भी कुछ नहीं मिला तो उसने लम्बी सांसे भरकर श्रद्धा से फिर कहना शुरू किया-‘ पांडे कहता है मेरा सिलेक्शन नहीं होगा। क्या मैं इतना कामचोर नही हूं?क्या प्यार कमजोर देता है? बस मुझे लगे कि तुमने दो घड़ी मेरे बारे में सोचा । इतने से ही मैं भरा-भरा घूमता फिरूं। बस एक नजर मुझे देख भर लो इतने से ही मैं यह दुनिया उलट-पुलट कर दूं, ये नौकरी,सिलेक्शन क्या चीज है?’अपने वाक्य के अंत तक आते-आते श्रद्धा के प्यार में मनोज पूरी तरह डूब चुका था। इसी डूबने से वह बच पाएगा, ऐसा उसे लग रहा था। (पृष्ठ 144)

श्रद्धा ने मनोज को एकटक देखते हुए कहा-‘अब उलट-पुलट दो ना ये दुनिया प्लीज।’ श्रद्धा ने मनोज के प्यार और उसकी क्षमताओं को एकसार कर दिया। इतना कहकर श्रद्धा ने एकपल मनोज को देखा और पलट कर होस्टल में चली गई। मनोज गेट पर खड़ा रह गया। उसकी दुनिया अचानक एक पल में बदल गई थी। श्रद्धा की आवाज उसके कानों मेें गूंज रही थी-‘अब उलट पुलट दो ना ये दुनिया प्लीज।’

बैडमिन्टन में जीतने वाली लड़की ने हारने वाली लड़की से कहा -‘ तू शटल पर फोकस नहीं कर रही है, इसलिए बार बार हार जाती है। फोकस कर ना।’

मनोज ने लड़की की आवाज सुनी और हलकी सी मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई।(पृष्ठ 145)

मनोज को अपना प्यार मिल चुका है तो वह हर कीमत पर परीक्षा पास करना चाहता है और अपने कहे अनुसार दुनिया का उलट-पुलट करना चाहता है तो उसी समय मीलों पैदल चलकर अपने एक बहुत काबिल और अनुभवी मित्र अविनाश के पास उसी समय रात दस बजे पहुंचता है -

अविनाश ने उससे कहा-‘ कल आ जाते, रात को क्यों परेशान हुए?’

‘ मेरे पास बिलकुल समय नहीं है। एक एक पल मेरे लिए कीमती है।’-मनोज तपाक से कहा।

अविनाश ने कहा -‘ अब तुम्हें एक एक मिनिट का ध्यान रखना पड़ेगा, इसलिए यह स्टॉप वॉच हमेशा अपनी कलाई पर बांधों। जब तुम पढ़ाई कर रहे तो स्टॉप वॉच चालू रखना। जब तुम खाना खा रहे हो, कोई मिलने आ गया हो या किसी से बात कर रहे हो तो इसे रोक देना। एक डायरी में स्टॉप वॉच के हिसाब से पढ़े गए रोज के घण्टे आपको रिकॉर्ड के लिए दर्ज करने हैं। आठ घण्टे पर पुअर, दस घण्टे पर गुड, और बारह घण्टे पर वेरी गुड खुद को दो। अब तुम्हें सेल्फ मोटीवेटेड होकर पढ़ाई करना है।’

(पृष्ठ 147)

जो कहा गया उससे ज्यादा अनकहा है इस उपन्यास में। ...संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कारों में अंग्रेजी-दां लोगों का ही चयन किये जाने के पूर्वाग्रह का प्रकट यह उपन्यास करता है बल्कि अंग्र्रेजीदां लोगों के चयन की अघोषित नीति का पर्दाफाश एक तरह से इस उपन्यास में होता है। यह उपन्यास अपनी कथा और प्रसंगों से बताता है कि एक खास वर्ग के लोग ही आईएएस और आईपीएस पदों पर क्यों चुने जाते हैं ? अवसर की समानता होने के बाद भी भाषायी आधार पर हिन्दी वालों के साथ जिस तरह की अवहेलना का व्यवहार होता है वह ध्यान देने योग्य है।

...एक अन्य प्रसंग इस उपन्यास में कथा के संग संग आता है, वह प्रसंग है हुक्मरानों द्वारा अचानक से राज्य में सारे पदों की भर्ती बन्द कर देने का तुगलकी फैसला! यह फैसला असंख्य प्रतिभाशाली युवाओं की महत्वाकांक्षा ही नहीं सामान्य रोजी-रूजगार पाने की इच्छा को भी जबर्दस्त तरीके से तहस-नहस कर गया था, जिसके दबाब में कितनों ने मानसिक संतुलन खोया होगा और कितनों ने बहिर्गमन किया होगा, इसकीसहज कल्पना की जा सकती है और इसकी झलक उपन्यास मंे भी खूब आती है। शिक्षा संस्थानों से निकलती युवाओं की भीड़ को जब यह दिखाई देे कि आगे रास्ता ब्लॉक है तो उसका मस्तिष्क कुण्ठित हो उठता है। आंकड़े देखें जाये ंतो हम पायेंगे कि जिन बरसों में सभी श्रेणियों की भर्ती बन्द हुई तब मध्यप्रदेश में अपराध दर मंें एकाएक बढ़ोत्तरी हो उठी थी, क्योंकि सब के सब प्रतियोगी छात्र तो दिल्ली जाकर संघ लोक सेवा आयेाग की तैयारी या आसपास के किसी अन्य राज्य में किसी लोक सेवा आयोग की तैयारी या अन्य छोटे-मोटे पद पर बहाली का आवेदन नहीं कर सकते न! उन बरसों में हजारों लोग बेरोजगार रह गये तो उनके शादी-ब्याह में दिक्कत हुई, जिन लोगों ने शिक्षा ऋण निकाला वे तो बेरोजगार रह जाने से ऋण भी जमा नही कर सके और कतई हतोत्साहित हो गये फिर बैंन्कों की वसूली कार्यवाही के शिकार हुए। कितने लोग अफसर-अहलकार का सपना संजोये थे और इसके सर्वथा योग्य भी थे लेकिन उन्हे किसी प्राइवेट नौकरी में घुसना पड़ा या नून-तेल की दुकान में बैठकर अपने सपनों को दफनाना पड़ा। उधर नयी भर्ती न होने से सरकारी कार्यालयों में एक-एक आदमी पर कई-कई लोगों का कार्यभार आया तो कर्मचारी और अधिकारी लोग मनोवैज्ञानिक दबाब में आये और अनेक लोग असमय काल कवलित हुए। समाज में रोजगार घटे तो आय और व्यय भी प्रभावित हुआ।

भाषा को लेकर इस उपन्यास पर खूब बात की जा सकती है, क्योंकि हिन्दी के शुद्धतावादी लोग इसमें अंग्रेजी भाषा के देवनागरी लिपि में लिखेे बहुसंख्यक शब्दों कोचिंग, प्रिलिमस, पीएससी, यूपीएससी, लास्ट अटेम्ट, रिस्क, सस्पेंड, सिलेक्शन,डीएसपी,शटल, बैडमिन्टन,स्टॉप वॉच इत्यादि के प्रयोग को लेकर आपत्ति कर सकते हैं, लेकिन निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो हम पायेंगे कि माहौल और द्वंद्व को यथारूप चित्रित करने के लिए इन शब्दों का प्रयोग करना जरूरी भी था और लेखक की मजबूरी भी। उपन्यास का कथानक जिस वर्ग और जिस माहौल से जुड़ा हुआ है, वहाँ के लोगों में आपसी वार्तालाप और वहां प्राप्त अध्ययन सामग्री में अंग्रेजी भाषा का ही ज्यादा उपयोग होता है, बल्कि वहां अनेक वस्तुओं और प्रक्रियाओं के प्रचलित नाम अंग्रेजी में ही हैं , कोचिंग संस्थानों के कुछ व्याख्यानों में व खास तौर पर संघ लोक सेवा आयोग में साक्षात्कार में तो अंग्रेजी का ही बोलबाला रहता है इसलिए बीच बीच में अंग्रेजी स्वाभाविक और अनिवार्य है। कथानक के पहले हिस्से में उपन्यास के संवादों की भाषा में चम्बल क्षेत्र की सिखरवारी कही जाने वाली बोली अपने पूरे तर्राटेदार अंदाज में अपने संपूर्ण ठाठ और वैभव के साथ आती है तो त्यागीजी जैसे राष्ट्रवादी के संवादांें और विवेकानंद केंद्र के व्याख्यानों में तत्सम शब्दावली की हिन्दी उचित ढंग से प्रयुक्त हुई है। वैसे संपूर्ण उपन्यास की भाषा एक जीवंत और खिलंदड़ भाषा है, जिसमें न तो ऊब होती न ही किसी तरह की उदासी, निराशा । पूरे उपन्यास से गुजर जाने के बाद भी भाषा का मरा हुआ बौद्धिक रूप कहीं नही दिखता है यह लेखक द्वारा अर्जित की गयी अपनी भाषा है जो सराहनीय है।

यह उपन्यास किसी खास शिल्प में नही है बल्कि बहुत सहज अंदाज लिखा गया है। लेकिन ज्योंही यह उपन्यास पाठकों तक पहुंचा कि वह हिन्दी पुस्तकों के ऑनलाइन ग्राहक संसार में लोकप्रियता एवं बेस्ट सेलर का एक नया रिकॉर्ड बनाने लगा है, इसकी अब तक लगभग तीस हजार प्रतियां बिक चुकी हैं। खरीदने वालों में किशोरावस्था के महत्वाकांक्षी अध्ययनशील लड़कों से लेकर बुजुर्ग पीड़ी के गम्भीर पाठक भी सम्मिलित हैं। उपन्यास न केवल प्रेरक है बल्कि एक असंभव बात को बहुत यथार्थ ढंग से बताता है कि एक ट्वेल्थ फेल किशोर भी हार न मान कर अगर लगन से तैयारी करे तो आई.पी.एस. में चयनित हो सकता है।

उपन्यास के लोकप्रिय होने का ही प्रमाण है कि इसका मराठी में अनुवाद हो चुका है और अंग्रेजी में अनुवाद व प्रकाशन का कार्य चल रहा है। इस पर फिल्म बनाने की भी बात चल रही है।

हिन्दी उपन्यासों के बेस्ट सेलर होने का रास्ता इस उपन्यास से खुलता दिखाई दे रहा है ।

इस उपन्यास का एक साहित्यिक कृति के साथ-साथ एक दूसरा महत्व भी है, वह यह है कि यह केवल कल्पित प्रेरणादायक साहित्यिक-कृति नहीं हैं, इसके नायक के रूप में चित्रित किए गए मनोज और श्रद्धा एकदम वास्तविक और सौ फीसदी सच्चे पात्र हैं। मनोजकुमार शर्मा एक आई. पी. एस. अफसर हैं और महाराष्ट्र कैडर में मुम्बई में पुलिस के आला अफसर के रूप में पदस्थ हैं। वे ही जौरा जिला मुरैना में ट्वैल्थ में फेल हो गये थे, यह उपन्यास उनके जीवन संघर्ष पर उनकी अनुमति से उनके मित्र अनुराग पाठक ने अपनी ओर से काल्पनिक अंश जोड़ते हुए लिखा है । नायक की वास्तविकता से परिचित होने की वजह से वर्तमान में साहित्यिक पाठकों के साथ यह पुस्तक संघ लोक सेवा आयोग और राज्यों के लोक सेवा आयोगों की परीक्षा के लिए कोचिंग कर रहे छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय हो रही है, मुखर्जीनगर दिल्ली से लेकर इन्दौर की भंवर कुंआ में मौजूद कौटिल्यअकादेमी सहित सारी कोचिंग संस्थाओं के छात्र आजकल इस पुस्तक को बगल में दबाए नजर आते हैं।

अनुराग पाठक का यह उपन्यास आगे के उपन्यासों के लिए एक मिसाल बनेगा।

राजनारायण बोहरे

3/2 कमलासन एपार्टमेंट,जानकीनगर,नवलखा इंदौर म0प्र0