इंसान के अंदर अगर ज़िन्दगी जीने इच्छा हो तो चाहे कितनी भी मुश्किलें हो, कोई न कोई बहाने निकल ही आते है जीने के.. भले ही सब रास्ते बंद हो गए हों दिल अपने आप ही कई रास्ते ढूंढ लेता है.. भले ही गेट पर ताला लग गया हो पर अम्माजी ने दूसरी तरकीब सूझ ली थी.. अब वो छत पर बैठी रहती. सामने गांव की हर चहलकदमी पर पैनी नजर और गांव की ख़ुफ़िया खबरें रास्ते मे आने-जाने वालों से पूछ लेती.. अब वो सबसे बुजुर्ग उन्हें कौन मना कर पाए किसी बात के लिए..औऱ कोई कुछ ना भी बताना चाहे तो बातों में इतने सारे सवाल करके जवाब उगलवाने के सारे पैतरे पता थे.. वैसे भी हम जैसे जो फोन, कंप्यूटर, टेलीविजन के धसकी आधा दिमाग तो इन्ही से सुन्न पड़ा है..और बचाखुचा ज़िन्दगी की भागदौड़ में.. हम जैसे कुछ छुपाने की सोचे भी तो एक मीनट भी ना टिक पाए अम्मा जी के सामने.. सामने वाले के पेट मे छुपी सब बातों की उल्टी करवाने की "Ninza technique" अम्माजी को पता थी...
कुछ दिन बाद पुलिस की सख्ती की वजह से लोगो ने घर से बाहर निकलना बहुत कम कर दिया था..अब तो इक्का दुक्का आदमी ही सड़क पर चलता दिखता पूरे दिन भर में..दिनभर अकेले बैठे-बैठे अम्मा अब मायूस सी होने लगी थी.. ज़िन्दगी केवल पेट भर लेने का ही नाम तो नहीं.. भूख तो मिट ही जाती है.. पर बात तो प्यास की है-"प्रेम की प्यास".. अगर ज़िन्दगी में प्रेम नहीं है तो कुछ भी नहीं.. ज़िन्दगी नीरस सी लगने लगती है.. ज़िन्दगी जीने के लिए हमें हमेशा किसी बहाने , सहारों की जरूरत पड़ती है। जीवन के चार पड़ाव हैं। जिसमे प्रथम बचपन, और अंतिम बुढापा..दोनों ही बहुत मुश्किल हैं, किसी सहारे के बिना.. फिलहाल तो अम्माजी भी अकेली ही रह गयी थी..परिवार में सब थे, पर सब अपने-अपने कामों में व्यस्त.. पतिदेव जीवित होते तो शायद बैठकर बातें करके आपस मे समय व्यतीत हो भी जाता.. पर अम्माजी अब अकेली रह गयी थी..वैसे उम्र कितनी भी हो जीवनसाथी का बिछड़ जाना.. अपनेआप ही एकाकीपन को जीवित कर देता है..
ऐसे ही छत पर बैठने का सिलसिला अभी जारी था..अभी कुछ दिन बीते ही थे कि सामने बगल वाली छत जो अम्माजी के घर से मिलती थी, रिटायर्ड फौजी अम्माजी की ही उम्र के, जो अम्माजी के देवर लगते थे..पुश्तैनी मकान होने के कारण घर का हिस्सा दो भागों में बंट चुका था और छत भी..छत के बीचोबीच दीवार खड़ी थी. दीवार इस पार थी अम्माजी और उस पार उनके देवर टहल रहे थे.. देवर की भी धर्मपत्नी का देहांत हो चुका था.. सम्पत्ति विवाद के कारण दोनों परिवारों में कई वर्षों से बातचीत बंद थी..जब आपस मे नजरें टकराई तो बिना कहे दोनों को एकदूसरे का हाल समझ आ गया.. दोनों ने एकदूसरे को अनदेखा करने का नाटक किया..पर मन का क्या कीजे प्रभु... मन तो कह रहा था आज ये दुश्मनी छोड़कर थोड़ा हालचाल पूछ लें..पर इतने वर्षों की दुश्मनी इतनी जल्दी कहां खत्म होती..हां कुछ दिन लगे नज़रो से हालचाल समझने में, कभी अम्माजी नज़रे चुराए कभी फौजी अंकल.. अंततः कुछ दिन में बातें सुरु हो ही गयी.. जैसे छोटे बच्चे लड़ झगड़कर एक हो जाते है.. आखिर बूढा मन बचपन ही होता है.. अब छत पर हर रोज़ हंसी ठहाका, पुरानी यादें.. बंद परतों की परत-दर-परत खुलती गयी.. वाकई ज़िन्दगी सतरंग ही है, बीते समय को सोचो तो महसूस होता है कितने रंग थे ज़िन्दगी के.. हँसना, रोना मिलना, बिछड़ना सुख-दुख, .. वैसे खुशियां हमारे अंदर ही छिपी होती है। बस मन में खुश रहने की इच्छा होनी चाहिए..
वैसे हमारे फौजी अंकल भी कुछ कम करामाती नहीं थे..
उनके पिताजी जो किसान थे.. उनके दो बेटे थे.. बड़े गजेंद्र जो सूबेदार थे और छोटे मैंदरु फौजी अंकल.. छोटे का नाम वैसे तो महेंद्र ही रखा था। पर गांव वालों की कृपा से महेन्द्र नाम का कब मैंदरु बना पता ही नही चला..वैसे अच्छे खासे नाम का भरता बनाने की प्राचीन परंपरा लगभग सभी गांव में सदियों से चली आ रही है.. जैसे खूंटा, बिंटा, टँखु.. थोड़ा पहाड़ी छेत्रो में जाएंगे तो इसकी और वैरायटियां मिल जाएंगी..जैसे जेन्दरू, डमरू गुवाणी, जैतारी, दगड़ू.. हद तो तब हुई जब मैंने एक प्रतिष्ठित आदमी का नाम भैंस भाईसाहब सुना..भला ऐसा नाम कौन रखता है..पर एक बात तो है इन नामों के रखने के पीछे भी कई रोचक किस्से कहानियां होती है.. बोलने वाले और सुनने वाले को अपने आप प्यार हो ही जाता है इन नामों से..वैसे आजकल ये प्रचलन शहरों में भी देखने को मिलता है..हां थोड़ा मॉर्डन रूप में..खैर नामों में क्या रखा है.. प्यार से कहा गया हर नाम अच्छा ही लगता है..
बचपन में पढ़ने में बुद्धू होने के कारण मैंदरु जी का पांचवी पास होना मुश्किल हो गया था..उस समय पांचवी पास होना भी बहुत बड़ी बात थी.. दिखने में हष्ट-पुष्ट, अट्ठारह साल की उम्र हो चुकी थी.. उनके पिताजी जो ठानकर बैठे थे कि बेटे को पढा लिखाकर अफसर बनाकर ही मानेंगे और बेटा जो पांचवी पास होने का नाम ना ले रहा था.. एक दिन परेशान होकर घर से भाग निकले.. घर से भाग जाना जितना सरल था, घर से बाहर रहना उतना ही मुश्किल.. जेब में 5 रुपये थे जिससे एक दो दिन चला ही लिए.. पर पैसे खत्म होते ही ना रहने का ठिकाना, ना खाने का.. मन मे सोचा क्यों ना कोई काम ढूंढ लिया जाए.. दिन भर काम ढूंढते-ढूंढते पूरा शहर घूम गए और रात को गली के आवारा कुत्तों ने पूरा शहर घुमा दिया.. बदहवासी में पता नहीं चला कहाँ पहुचे.. थक-हारकर अपनी फटेहाली में रात को एक गेट के बाहर कोने में लेट गए..
सुबह जब नींद खुली तो कोई आदमी डंडे से ठेल रहा था..हालांकि चोर उचक्का जानकर वह आदमी एक दो डंडे पहले चमका भी चुका था। पर नींद की मेहरबानी से कोई आभास ना हुआ.. वैसे भी जब जेब खाली हो तो नींद अच्छी ही आती है..थोड़ी देर बाद मैंदरू जी उठ ही गए..सामने डंडा लिए खड़े आदमी को देखा जिसने फौजी वर्दी पहनी हुई थी..पीछे जिप्सी खड़ी थी जिसमे से एक आदमी खिड़की से झांक कर देख रहा था.. सेना का कोई अफसर रहा होगा.. देखते ही मैंदरु जी की डर से हवाइयां उड़ गई.. नाम पता पूछा गया तो डरते मरते सारा हाल सुना दिया.. भूख से बेहाल देखकर सिपाही को मैंदरु पर दया आ गई । उसने जाकर अपने साहब को सारा माज़रा बताया तो साहब ने उसे अंदर ले जाने को कहा.. उन्हें गेट के अंदर ले जाया गया.. अंदर देखकर ऐसा लगा जैसे फौजियों की छावनी होगी बहुत सारे लड़के, सैनिक मौजूद थे.. अभी पूरे क्षेत्र का जायज़ा ले ही रहे थे तभी पीछे से किसी की कड़क आवाज आई..
"ए लड़के"..?
मैंदरु ने पलटकर देखा तो ये वही अफसर थे..
"जी साहब"..? डरते हुए
हट्टे कट्टे हो..सेना में भर्ती होना चाहोगे?
अंधे को क्या चाहिए, बस दो आंखे.. ऐसे ही मैंदरु को भी दो आंखे मिल चुकी थी। बिना कुछ सोचे सीधे हां कर दी..
"'ठीक है' हाथ मुह धोकर कुछ खा लो.. सिपाही की भर्ती हो रही है तुम भी लाइन में लग जाओ"..
शारिरिक परीक्षा में कुछ लड़के चुन लिए गए जिनमे मैंदरू का भी नाम शामिल था..
सभी को ग्राउंड में बुलाया गया सामने वही साहब सबको सम्बोधित कर रहे थे..
"जो भी कुछ पढ़ा लिखा है वो एक तरफ आ जाये जो अनपढ़ है वो एक तरफ..दोनों का चयन अलग-अलग होगा"..
मैंदरु जी ना तो पढ़ाई में इतने तेज़ थे..ना अनपढ़ ही थे..दुविधा में फंस चुके थे..लड़को से पूछने पर पता चला कि पढ़े लिखे लड़कों को लिखित परीक्षा भी देनी होगी..उसी के हिसाब से उन्हें बड़े पद पर रखा जाएगा..अब यहां मैंदरु जी का दिमाग चल पड़ा सोचा पढा लिखा बताऊंगा तो कहीं और परीक्षा में फेल ना हो जाऊं.. सीधे जाकर अनपढ़ लोगो मे शामिल हो गए.. अब हमारे मैंदरु जी फ़ौज में शामिल हो चुके थे.. अपनी ट्रेनिंग पूरी करके जब वो पहली बार गांव आये तो उन्हें पहचानना मुश्किल था.. उनके पिताजी का ख़ुशी का ठिकाना ना रहा.. वैसे तो गांव में अंकल, आंटी किसी को बोलने का मतलब है.. शहर से आये अपरिचित...ऐसे ही जब शुरुवात में मैंदरु जी गांव में आये तो आसपास के बच्चों को शहरी बाबू ही लगे बस तबसे मैंदरु जी बन गए फौजी अंकल.. खैर ये तब का समय था जब बच्चे घर से भागकर कुछ बनकर घर लौटते थे..अब ये समय भी है कि घर से भागा इंसान, घर ज़िंदा वापस आ जाये यही गनीमत है.. आजकल कहां मिलती है इंसानियत.. ना सच्चाई बोलने वाले में रही, ना सुनने वाले में यकीन करने का सामर्थ्य..
कमशः...
कोरोना की वजह से एक दूसरे के घर आना जाना बंद हो चुका है.. आलम यह है कि अगर किसी को कोरोना है तो लोग उसे ऐसे देख रहें जैसे वो कोई क्राइम करके आया हो.. दिन भर इधर उधर मंडराने वाले लोग भी उससे या उसके घर के आसपास भी नही फटक रहे.. lockdown में भी आकाश पाताल नाप देने वाले लँगोटिया यार, या फिर जय वीरू की जोड़ी वाले महाशय में से अगर किसी को कोरोना हो जाये तो..."यो एलियन कोन से पीलेनेट का है" अब इससे हमें कौन बचाएगा..?? वाला रिएक्शन देने लगते है..अभी की घटना हैं.. मैं टेलीविजन में लोकल न्यूज़ देख रही थी..एक बुजुर्ग माताजी की कोरोना से मृत्यु हो गयी.. दाह संस्कार करने के लिए जब कोई पड़ोसी सगे सम्बन्धी मदद को नहीं आये। तो उसके इकलौते बेटे ने पुलिस की मदद ली तब जाकर मृत माँ का दाह संस्कार कराया गया.. और क्षेत्र का नाम सुना तो मैं हैरान थी ये तो हमारे क्षेत्र की ही खबर थी.. मन दुखी भी हुआ कि यहां गांव में भी ऐसी घटनाएं सुनने को मिल रही है कम से कम ऐसे समय मे तो मदद करनी चाहिये.. हां थोड़ी सावधानी रखो पर मदद तो करो..ख़ैर गांव में कोई भी ख़बर एक जगह टिकती नहीं। तो पता चला कि 84 साल की जिस बुजुर्ग महिला की मृत्यु हुई जिसका एकलौता बेटा जो सरकारी सेवा से निर्वित हो चुका था.. वो खुद ही मृत माँ की देह को हाथ नहीं लगाना चाह रहा था..और पड़ोसियों से आशा रख रहा था कि वो मदद करें..मेरा तो इन न्यूज़ चैनलों से भरोसा ही उठ गया.. ख़बर की एक साइड तो नमक मिर्च लगाकर परोस देते हैं पर रियल साइड पर्दे के पीछे ही रह जाती है..खैर जो भी हो..पर अपने सगे सम्बन्धियों से भी लोगों का ऐसा व्यवहार हैरान करता है..न्यूज़ में कितनी खबरें है जब खुद के परिजन ही अस्पताल में छोड़कर चले गए.. हद तब होती है जब परिजन की मृत शरीर को लेने तक को मना कर देते हैं... इंसान की मानसिकता का स्तर कितना गिर चुका है..
हो सके तो अपने स्तर पर जितना हो सकता है मदद करें.. मदद केवल पैसों से ही नहीं सेवा भाव से भी की जा सकती है..हर व्यक्ति केवल अपने परिजन और पड़ोसी की हो मदद करनी शुरू कर दे तो काफी समस्याएं सुलझ सकती है.. कोरोना से तो एक ना एक दिन जीत ही जायेंगे पर डर से कब जीतेंगे? आज कोरोना है कल कोई और बीमारी आ सकती है...मरने का ख़ौफ़ कितना ज्यादा घर कर चुका है, कि शरीर तो ज़िंदा है पर इंसानियत कहीं मर चुकी है.. पर सोचने वाली बात तो ये भी है कि आख़िर मरना है क्या? इंसान किसी दुर्घटना या बीमारी से नही अपनी अज्ञानता से मरता है...बीमारी से दूर रहें बीमार से नहीं..
खैर अभी भी कुछ सच्चाई बाकी ही होगी, इंसानियत बाक़ी होगी कहीं किसी कोने में, जिससे ये दुनिया चल रही है..काफ़ी लोग है जो निःस्वार्थ सेवा कर रहे हैं..दूसरों की मदद करके ये जीवन साकार कर रहें है...महादेव सबपर अपनी कृपा बनाएं रखें..🙏