छोटा सट्टा-बड़ा सट्टा
एक छोटे से चाय के टपरे के पास खड़े एक आदमी को एक बच्चा पैसे देकर ‘‘ओपन और क्लोज लगाने’’ के लिए कहता है । बस दूसरे दिन वो बच्चा किसी अखबार के कोने में अलग- अलग कोड नामों के साथ लिखे अंकों को देख कर समझ जाता है कि उसे कुछ पैसा मिलेगा या नहीं । एक अन्य दृश्य में एक सभ्य सा दिखने वाला आदमी अपने आलीशान आफिस से ही मोबाईल पर ही आज हो रहे मैच में टीमों और प्रत्येक गेंद पर लगने वाले चौके और छक्कों के ‘‘भाव’’ पता करता है । अपनी सुविधा के अनुसार चुनी हुई टीमों और समय पर पैसा लगाता है । परिणाम तो उसे मैच का मजा लेते-लेते ही प्राप्त हो जाते है।
ये दोनों ही दृश्य बहुत ही आम है । कानून के अनुसार जुआं-सट्टा अवैधानिक है। छोटे - बड़े शहरों में हर कोई जानता है कि गली के किस मोड़ पर , किस टपरे में या किस आदमी के पास सट्टा लगाना है । बस यह बात उन्हे ही नहीं मालूम होती जिन पर यह सब रोकने का दायित्व होता है । दरअसल में यह एक ओपन सीक्रेट है कि हमारे यहाॅ सट्टा खेला और खिलवाया जाता है । इस मामले में जाति ,धर्म , राजनीति और तो और अमीरी-गरीबी की दीवारें नहीं रह जाती ; जहाॅं गरीब रुपये -दो रुपये का सट्टा खेलता है वहीं अमीर लाखों का ।
नीचे से चलने वाला एक-एक रुपया ऊपर जा कर करोड़ों में बदल जाता है । बिना बोर्ड और विज्ञापन के चलने वाले इस धंधे में भी लाखों-करोडों रुपयों की आवक-जावक है । ‘‘कुबेर’’ ,‘‘राजधानी’’ और ‘‘खजाना’’ जैसे नामों के अलावा विभिन्न शहरों से चलने वाले सट्टे और मटकों के विभिन्न नाम है । उनके खुलने और बंद होने का समय भी निश्चित है । इन केन्द्रों पर नम्बर खुलते ही मोबाईल और फोन के अलावा इंटरनेट से भी नम्बर गाॅंव-गाॅंव तक पहुॅंचाए जाते है । इसी काम के लिए समाचार पत्रों का छोटा सा कोना प्रतिदिन हजारों रुपयों के भाव से बिकता है । कुछ अखबार तो केवल इसलिए ही हाथों हाथ बिकते है क्योकि उनमें सट्टा बाजार के पूर्वानुमान भी नियमित स्तम्भ के रुप में प्रकाशित होते है ।
इस धंधे को नीचे से लेकर ऊपर तक विभिन्न तरीकों से राजनैतिक और सरकारी अघोषित संरक्षण प्राप्त होता रहता है । कभी -कभी कुछ पुलिस अधिकारी नादानी में धौंस दिखाने और हफ्ता बढाने के लिए कुछ छोटे-मोटे पर्ची लिखने वालों को पकड़ कर दो-चार हजार की बरामदगी कर लेते है । अक्सर तो ऐसे ठिकानों पर रात के अंधेरे में खाकी वर्दी वाले अपना हफ्ता वसूल करते देखे जाते है ।
सट्टे का धंधा पूरा का पूरा दो नंबर का है, इसमें कोई शक नहीं लेकिन सट्टा खेलने वाले और इससे किसी भी तरह से कमाई करने वाले जानते है कि यह बेईमानी का धंधा पूरी ईमानदारी के साथ चलता है । जीत - हार के लिए खेलों की ही तरह क्रिकेट पर भी शर्त लगाना पुरानी परंपरा रही है । मैचों पर लगने वाले सट्टे ने शर्तों को संगठित रुप दे दिया । यहाॅं ‘‘पट्टी लिखने वाला ’’‘‘कमीशन एजेंट’’ या ‘‘बुकी’’ कहलाता है । बुकी के ऊपर होता है ‘‘खाईवाला’’ ; ये वो व्यक्ति होता है जो अपने आस-पास के रुझान के अनुसार ही ‘‘उतारी वाले’’ को सट्टा बुक करता है । इस पूरे धंधे में बहुत ही छोटे स्तर को छोड़ कर पैसा या तो हवाला से आता है या फिर वादा से । पैसे के लेनदेन के विवादों को सुलह सफाई या गुण्ड़ागर्दी से सुलझाया जाता है । उतारी वालों के तार अपरोक्ष रुप से मुख्य संचालकों से जुडे़ होते है । कुछ संचालकों के नाम तो बच्चे भी जानते है लेकिन फिर भी इन तक पहुॅंच पाना नामुमकिन न भी तो कठिन तो है ही । यह भी हो सकता है कि वे भी किसी सफेदपोश के लिए काम कर रहे हों ।
सट्टा किसी भी रुप में हो इसमें छोटे लोगों का सफेद और बड़े-बड़े लोगों का काला धन लग कर और अधिक काला धन उत्पन्न करता है । काले धन का बड़ा हिस्सा देशद्रोही, आतंकवादी और विघटनकारी ताकतों को ही मजबूत करता है । इस काले धन से हथियारों ,नशीले पदार्थों और नकली नोटों जैसी चीजों केा देश में लाने के लिए प्रयोग किया जाता है । यही धन देश को अंदर ही अंदर खोखला करने के काम आता है । कुछ कालाधन सफेद करने का भी प्रयास किया जाता है । नंबर वाले सट्टे में लगाने वाले के जीतने के अवसर केवल एक प्रतिशत ही होते है । सट्टा संचालक के पास 99 प्रतिशत अवसर के साथ ही साथ यह सुविधा भी प्राप्त होती है कि वो अपने लाभ को देखते हुए ही नंबर निकाल कर जनता को ‘‘डब्बा’’ कर दे । जब जनता के पसंद का नंबर आता है तो इसे ‘‘जनतापटी’’ कहते है । अपने सट्टे को चलाए रखने और खेलने वालों के उत्साह को बनाए रखने के लिए कभी कभार संचालक ‘‘जनतापटी’’ के नंबर भी निकालते रहते है । मैचों पर लगने वाले सट्टे में संचालकों का अधिक लाभ तब होता है जब कम संभावना वाली टीम अच्छा प्रदर्शन करे । क्रिकेट चूंकि बहुत सारे आंकड़ों का खेल है इसलिए इसमें प्रत्येक आंकड़े पर सट्टा लगवा कर संचालक अपना लाभ बढाने का प्रयास करते है।
संचालक और अधिक लाभ के लिए खेल को भी अपने अनुसार चलाना चाहते है । इसके लिए खेल अधिकारियों , खिलाडियों और एम्पायरों को खरीदने की कोशिश होती है । पैसे के इस युग में ईमान आसानी से खरीदे और बेचे जा सकते है । यहीं से प्रारम्भ होता है मैच फिक्सिंग और स्पाट फिक्सिंग का सिलसिला । इस पूरे गोरखधंधे में कौन है और कौन नहीं यह कहना आसान नहीं है क्योंकि जहाॅं कुएॅ में ही भांग घुली हो वहाॅं जो बगैर नशे के मिले वो तो बाहरी ही हो सकता है । बस पैसे के इस खेल में खेल खेल न हो कर व्यापार हो गया है । सट्टा नाम है पैसे जल्दी कमाने की सोच का , सट्टा नाम है शार्टकट तरक्की का और सट्टा नाम है पैसों के खेल का । इस खेल में हमेशा ही खिलवाने वाला ही जीतता है फिर भी रातों रात पैसा कमाने की चाहत ही इसकी ओर लोगों को खींचती है । इसकी ओर आकर्षित होने वाले गरीब और छोटे लोगों को चाहिए मुट्ठी में थोड़ा पैसा ; और पैसे के ढेर पर बैठे धन कुबेरों को चाहिए मुट्ठी भर और पैसा ।
आलोक मिश्रा