I AM GOD- 03 in Hindi Spiritual Stories by Satish Thakur books and stories PDF | मैं ईश्वर हूँ - 3

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मैं ईश्वर हूँ - 3

बिम्ब काल.....

शून्य अब विकास की दूसरी अवस्था जिसे बिम्ब कहा जाता है उसमें प्रेवेश कर गया है, शून्य अपनी इस नई एवं विकासशील अवस्था में आकर भी पहले के समान ही अंधकार में है। बिम्ब का आकार शून्य से विकसित और बड़ा जरूर है पर अभी भी वो अपनी पहचान से परे है उसका मन ही सिर्फ उसका एक मात्र सहारा है।
बिम्ब एक बार फिर एक तेज मगर नाज़ुक झटके के साथ हिला और चल पड़ा, कहाँ ? उसे क्या पता। उस नए सफर में उसकी गति प्रकाश की गति से भी तेज और प्रकाशमय है। उसे अपने आजु-बाजू केवल सफेद प्रकाश दिखाई दे रहा है, ये प्रकाश भी केवल वही व्यक्ति देख सकता है जिसके पास आँखें न हो जो मन की आँखों से ही सब कुछ देखता हो, क्योंकि प्रकाश से भी अधिक गति मैं वास्तविक आँखों से कुछ भी देख पाना या यूं कहें कि आँखें खोल पाना भी असंभव है।
मेरा सफर लगातार चल रहा है मैं कुछ समय तक इसी तरह चलता रहा, तब-तक, जब-तक कि वो अदृश्य शक्ति मुझे लेकर चलती रही। तभी एक और झटका वैसा ही जैसे इस सफर की शुरुआत में मुझे लगा था, और में अचानक से रुक गया। यहाँ बहुत अधिक शोर है जैसी आवाज मैंने अब तक अपने सफर में शून्य से लेकर बिम्ब तक सुनी थी ऐसी सी ही कई सैंकड़ो आवाजों का शोर आ रहा है। ऐसा लग रहा है कि मानो मेरे जैसे ही कई और बिम्ब इस समय मेरे साथ इसी जगह पर भटक रहें हों।
मैने अपने मन की आँखों से देखने का प्रयास किया और में सफल रहा, मेरे चारों ओर मेरे ही समान अनगिनत बिम्ब मौजूद हैं। कई मेरे जैसी ही शान्त अवस्था में हैं, कई काफी रफ्तार से अपनी धुरी पर घूम रहें हैं जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, कई उस अंधकार में न जाने किसी अनजान शक्ति का चक्कर लगा रहें हैं जैसे समस्त गृह अपने सूर्य का चक्कर लगाते हैं।
मेरे चारों ओर मानों पूरा सौरमण्डल हो, न सिर्फ सौरमण्डल बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड ही यहाँ मौजूद था। कई बिम्ब बहुत तेज रफ्तार से यहाँ आ रहें है और कई उन्हीं के समान बिम्ब उसी रफ्तार से यहाँ से बाहर निकल रहे हैं। मतबल कोई यहाँ आकर मेरे समान अपना नया सफर शुरू कर रहा है और कोई इस सफर को पूरा कर एक नए सफर पर निकल रहा है। पर अपनी ही धुरी पर घूमते और उस अदृश्य शक्ति का चक्कर लगाते हुए वो बिम्ब सफर की शुरुआत में हैं या अंत में ये समझ नहीं आया।
मेरे चारों ओर धुँआ फैलने लगा अब मैं अपने मन की आँखों से भी नहीं देख पा रहा हूँ, कुछ ही देर में उस धुँए नें मुझे चारों ओर से घेर लिया। मुझे लगा मानों मेरा दम घुट जाएगा, मेरी आँखें नहीं हैं, पर फिर भी में उस धुएँ की जलन को महसूस कर सकता हूँ, नाक नहीं है पर फिर भी उस धुँए की लोहान, गुगर, घी और चंदन मिश्रित गंध को में सूंघ सकता हूँ। शरीर नहीं है पर फिर भी मुझे जलन महसूस हो रही है मानो मुझे आग की लपटों के बीच रख दिया हो।
कुछ ही पलों बाद सब कुछ शाँत हो गया और में एक जाने पहचाने झटके के साथ अपने नए सफर में निकल पड़ा। पर इतनी जल्दी, क्या ये मेरा नया सफर है या में अब उस अदृश्य शक्ति के चारों तरफ चक्कर लगाने वाला हूँ जैसा मैंने मेरे मन की आँखों से उन बिम्बों को करते हुए देखा था। में फिर से प्रकाश से भी अधिक गति से चल पड़ा, पर कहाँ? मुझे क्या पता।
कुछ समय तक चलने के बाद अब रफ्तार काफी धीमी हो गई है अब में बाहर देख सकता हूँ, कहने की जरूरत नहीं कि में अब भी देखने के लिए अपने मन की आँखों का ही इस्तेमाल कर रहा हूँ। मैंने जो देखा वो देख कर में चौंक गया मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा कि में जो देख रहा हूँ वो सत्य है या मेरा मन मुझे कोई स्वप्न दिखा रहा है।
कुछ जाने-माने अपने से लोग एक जगह पर एकत्रित हैं ओर लकड़ी के जलते गठ्ठर की ओर देख कर हाँथ जोड़े हुए हैं। आखिर ये लोग कौन हैं और इनसे मुझे अपनापन क्यों लग रहा है मेरा मन इतना भारी कैसे हो गया। वो अंधकार, वो आवाज और वो ब्रह्माण्ड कहाँ गया, मैं इस प्रकाश में कैसे आया। तभी मैंने देखा कि एक आदमी एक बड़ी सी बांस की लकड़ी जिसमें आगे कुछ बंधा हुआ है लेकर उस लकड़ी के जलते गठ्ठर के पास जाता है, और वो उस गठ्ठर में दाहिने तरफ से उस बांस की लकड़ी से एक ठोकर मारता है, आह-आह ये ठोकर मुझे क्यों महसूस हो रही है, अब में अपनी चेतना खो देता हूँ।
पता नहीं कितना ही समय बीत गया, उस ठोकर के लग जाने के बाद बिम्ब अचेत है। पर वो ठोकर तो उस लकड़ी के गठ्ठर में मारी गई थी फिर उसका असर बिम्ब पर आखिर क्यों हुआ। कुछ देर अचेत अवस्था में रहने के बाद धीरे-धीरे बिम्ब अब पुनः हरकत में आ गया, अब उसका मन पुनः सचेत हो गया है। उसने एक बार फिर बाहर देखा पर वहाँ अब कोई नहीं था, वो लकड़ी का गठ्ठर लगभग जल चुका था और कुछ अंगारे ही अब उसके वहाँ होने के सबूत के रूप में मौजूद थे।
में स्वतः बिना किसी झटके के आगे बढ़ने लगता हूँ, पर रफ्तार बहुत ही कम है और एक जगह जाकर रुक जाता हूँ। यहाँ पर भी वही जाने माने लोग मौजूद हैं पर अब में उन्हें पहचान पा रहा हूँ। ये लोग कोई और नहीं मेरे बच्चे, मेरे सगे-संबंधी, परिवार वाले और कुछ लोग मेरी जान-पहचान के भी हैं। पर ये सब लोग इकठ्ठे होकर यहाँ क्या कर रहे है?
मेरे परिवार और सगे-संबंधि दुखी और परेशान दिख रहें हैं, पर क्यों ? समझ नही आ रहा। उन्हें दुखी देख कर पाता नहीं क्यों पर मुझे बहुत तकलीफ हो रही है, मुझसे उन्हें यूँ दुखी देखना सहन नहीं हो रहा है। में अब तक जो किसी अंधकार में था, जानें कहाँ-कहाँ भटका, जानें कहाँ-कहाँ नहीं गया उस अंधकार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पर जब प्रकाश में आया तो अब और भी ज्यादा तकलीफ हो रही है।
मुझे ऐसा लग रहा है कि बहुत जोर से आवाज लगाऊं और कहूँ की रोना बंद करो, यूँ दुखी मत बैठो मुझे बहुत तकलीफ हो रही है तुम तो मेरे अपने हो मेरी तकलीफ समझो, पर में चिल्ला नहीं सकता था क्योंकि मेरा मुँह कहाँ था। मेरे पास तो सिर्फ मेरे मन की आँखें, मन कि आवाज ही थी और क्या था कुछ भी नहीं। मुझे जितनी तकलीफ मेरे परिवार वालों को देख कर हो रही थी उतना ही सुख और शाँति का अहसास अनजाने लोगों को देख कर हो रहा है क्योंकि वो न तो दुखी हैं और न ही वो रो रहें हैं शांत खड़े हैं।
तभी मुझे एक फोटो दिखाई दी जिस पर माला लटकी है और उसके सामने कुछ धूप और अगरबत्ती जल रहें हैं। मैंने उस फ़ोटो को ध्यान से देखा अरे ये तो मेरे शरीर की फ़ोटो है पर ये लोग उस फ़ोटो को देख कर दुखी क्यों हो रहे हैं वो तो केवल मेरा शरीर मात्र था। हाँ ये बात अलग है उसका मुँह, नाक, कान थे वो महसूस कर सकता था पर वो में नहीं था वो तो एक आवरण था मेरा जिसे मैंने तब तक धारण किया था जब तक कि मुझे ईश्वर का पता नहीं था।
अब तो में जनता हूँ कि ईश्वर कोंन है, मेरे मन ने मुझे सब कुछ समझा दिया था उसने ही तो कहा था कि ईश्वर में हूँ, मतलब मेरा मन मेरा ईश्वर है और क्योंकि मेरा मन मेरे हो भीतर है तो ईश्वर भी में ही हुआ। फिर भला मुझे यानी ईश्वर को किसी आवरण की क्या जरूरत, मैंने खुद ही ईश्वर से अपनी पहली मुलाकात के समय उसे त्याग दिया था। जब ईश्वर ने कहा था कि चलो में तुम्हे एक सफर पर लेकर चलता हूँ जहाँ तुम मुझसे मतलब ईश्वर से या यूं कहूँ की स्वयं से मिलोगे, तब समझ नहीं आया था कि ईश्वर कौन है पर अब में जनता हूँ कि ईश्वर कौन है। ईश्वर तो मेरा अंतःकरण में है मेरे मन में है, मेरा मन ही ईश्वर है, मतलब की मैं हाँ में ही, "मैं ईश्वर हूँ" ।

क्रमशः अगला भाग...... "मैं ईश्वर हूँ -4"

सतीश ठाकुर