amma in Hindi Moral Stories by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | अम्मा

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अम्मा

कभी- कभी विश्वास ही नहीं होता कि रिश्ते इतने भी कच्चे हो सकते हैं।पड़ोस की अम्मा आख़िरकार जीने की इच्छा मन में लिए चली ही गईं।महीनों से वे यमराज से लड़ रही थीं।अपने जीवन की सावित्री वे खुद थीं।इधर बहू आजिज़ थी कि --अब क्यों जीना चाहती हैं ?पूरी जिंदगी तो जी चुकीं।अस्पताल में कुछ दिन वेंटीलेटर पर रहीं, फिर आई सी यू में लाखों का खर्चा हो गया।पूरे परिवार को भूखा मारेंगी क्या?आज उन्हें जबरन घर लाएंगे ।डॉक्टरों का क्या उन्हें तो पैसा बनाना है।इज़ाजत ही नहीं दे रहे।नलियों से भोजन- पानी दे रहे हैं ।ऑक्सीजन सिलेंडर लगा हुआ है।बाप रे,इतना पैसा रोज लग रहा है।ऊपर से ये बेचारे रात भर वहीं रहते हैं।क्या करें माँ हैं न,छोड़ भी तो नहीं सकते!
---पर घर पर अस्पताल वाली व्यवस्था नहीं कर पाएंगी।अलग से कमरा भी नहीं है।आक्सीजन सिलेंडर भी नहीं।यहाँ बच नहीं पाएँगी।मैंने हल्का -सा प्रतिरोध जताया।
--तो क्या करें ?कहाँ से इतना पैसा लाएं ?अब मरे चाहें जीएं!
क्रोध भरे स्वर में यह कहकर अम्मा की बहू ने अपने पति की तरफ देखा।मैंने भी उसकी तरफ देखा कि शायद वह अपनी पत्नी की बात को काटे या कुछ अलग कहे आखिर बात उसके माँ की जिंदगी की है ,पर वह चुप रहकर जैसे पत्नी की बातों का समर्थन कर रहा था।कई रिश्तेदार भी अम्मा को देखने आए थे,वे भी चुप थे।उनको भी बेटे -बहू से ही रिश्ता निभाना था,कुछ बोलकर रिश्ता क्यों खराब करते?बेटा अमर सिंह कुछ दिन पहले ही रिटायर हुआ था।संयुक्त परिवार में वही एक सरकारी नौकरी के कमाऊ पोस्ट पर और शहर में था।गाँव में खेती -बाड़ी देखने और अन्य कार्य करने वाले तीन सगे और दो चचेरे सभी भाइयों के बच्चे उसी के पास रहकर पढ़ते रहे थे।कुछ दिन पूर्व ही एक भाई की लड़की की शादी भी उसने की थी।अमर सिंह की अपनी कोई औलाद नहीं थी ।तीन शादीशुदा बहनें भी थीं,जो अम्मा को देखने आई हुई थीं ।सभी मन से चाहते थे कि अम्मा अब मुक्त हो जाएं। फेफड़े ख़राब हो रहे थे।दिल की भी रोगी थीं।पता चला कि टीबी भी हो गई है।पिछले साल से ही वे बीमार रहने लगी थीं।बहुत कमज़ोर हो गई थीं।मुझे उनका रोग समझ में नहीं आता था।दूसरे के घर ने हस्तक्षेप करना ठीक नहीं लगता था।मुझे अब लगने लगा था कि उनका ठीक इलाज नहीं हो पा रहा था।
बेटे बहू आसाराम बापू के बड़े भक्त हैं।अभी भी उनके आश्रम जाते रहते हैं वहाँ भंडारा,सत्संग आदि कराते हैं।आसाराम के जेल हो जाने पर अम्मा जी की यह बड़ी बहू सुशीला बहुत नाराज़ हुई थी कि उन पर गलत इल्ज़ाम लगाया गया है वे तो भगवान हैं।
उनके बड़े -बड़े चित्र फूल -माला से सज्जित उनके कमरों की शोभा आज भी बढ़ा रहे हैं।पूजा -घर में तो आसाराम देवताओं के मध्य विराजमान हैं ।
एक बार मैंने उन्हें टटोला कि आप तो उनसे मिलने उनके आश्रम जाती थीं।कोई घटना बताइए।कहने लगीं--वे तो भगवान हैं।उनका दर्शन दुर्लभ होता था।हम कई भक्तिनें जब इकट्ठा हो जाती थीं तब वे आते थे और पाइप से हम पर पानी डालते थे ।जब हम पूरी तरह भीग जाती तो आशीर्वाद देते थे।
आशीर्वाद देने के इस अंदाज पर मैं घर आकर खूब हँसती।
उन्हीं बाबा की दवाइयां उनका पूरा परिवार इस्तेमाल करता है।शायद अम्मा को डॉक्टर की जगह बाबा का ही इलाज़ चला हो,जिसके कारण बीमारी बढ़ते -बढ़ते लाइलाज़ होती गई।अब लाइलाज़ होने पर डॉक्टर भी क्या कर लेते,पर उन्हें जिंदा तो रखे ही हुए थे!
अब घर लाकर उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा।मैंने एक बार फिर समझाया --घर में नहीं बच पाएंगी।
पर मेरी बात कौन सुने।दूसरे दिन अम्मा घर आ गईं। उन्हें दरवाजे के बाद वाले बरांडे में टॉयलेट के पास ही लिटाया गया था।दरवाजे के लोहे के सींकचों से वे दिखतीं थीं।आने के बाद ही उनके कराहने ,तड़पने ,छटपटाने का सिलसिला शुरू हो गया था।मैं सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए निकलती तो वे मौनी की बुढ़िया की तरह बैठी दिखतीं।मैं दरवाजे के बाहर से ही पूछती --अम्मा...!
तो वे --'ह ss' ---करके देखतीं।यानी उनके कान और दिमाग पूरी तरह दुरूस्त थे।
---कैसी तबियत है?
कमजोरी के कारण वे इशारों से अपनी तकलीफ बतातीं।मैं उनकी बगल वाली खाट पर सोई उनकी रिश्तेदार को आवाज़ देकर जगाती कि अम्मा को देखिए क्या तकलीफ़ है?वॉक करके लौटती तो देखती कि बहू उनके पैर मल रही है।रिश्तेदार लोग आ -जा रहे हैं।मैं पास जाकर उनकी तबियत पूछती तो वह सहमी आँखों से बहू को देखतीं और इशारे से कुछ कहना चाहतीं।
बहू दुखी स्वर में कहती--जबसे अस्पताल से आई हैं कुछ खा -पी नहीं रही।उसकी इस सहानुभूति से मुझे कोफ़्त होती।
मैं तो जानती ही थी कि उन्हें बस मरने के लिए घर लाया गया है।वर्ना वह इस स्थिति में थी ही कहाँ कि बिना ऑक्सीजन के सांसें ले सकें।
वे जीना चाहती थीं यह अपराध तो न था।वह जी भी जातीं पर जीने के लिए पैसा चाहिए था।बहू को इस बात से शिकायत थी कि वे जीना चाहती हैं।
कहती--कहती हूँ कि राम -राम भेजिए तो नहीं भजतीं।
अभी तक टन टन आवाज़ है!मरने से डरती हैं।
कहते हुए वह उनकी पुरानी बातें बताने लगती कि कितनी सुंदर थी अम्मा।गोरा रंग,दुबली काया,एड़ी तक लंबे ,घने, काले केश।कोई बहू उनके जैसी नहीं थी ।देह में इतनी ऊर्जा,शक्ति और धैर्य कि सिर्फ अपने ही सात बच्चों को नहीं पाला, बल्कि भाई- पटीदार के बच्चोँ की जिम्मेदारी भी उठाकर चलीं।पूरे कुनबे को जोड़कर रखा।बहुओं की उनके सामने एक नहीं चलती थी !साफ- सफाई,गुण-ढंग,रूप -रंग ,पढ़ाई- लिखाई, धर्म-कर्म ,पूजा -पाठ, तीज -व्रत सबमें प्रवीण थीं।किसी में उनसे कोई कोताही नहीं हुई,न होने देती थीं ।वे एक साथ ही लक्ष्मी अन्नपूर्णा,सरस्वती सब थीं।अपने समय की ग्रेजुएट थीं।गांव की होकर भी सभी बच्चों को पढ़ाया -लिखाया!बेटे को शहर में नौकरी लगी तो वहां मकान बनाने को कहा ताकि खानदान के बाकी बच्चे वहां रहकर पढ़ -लिख सकें। बहुओं के चाहने के बाद भी उन्हें एकल परिवार नहीं बनाने दिया।सबको बांध कर रखती थीं।प्रेम,सख्ती जिस तरह से भी सम्भव हो सके,पर अपनी ही मर्ज़ी चलाती थीं ।
बुढापे में वे ज़्यादा शहर में बेटे के पास ही रहती रहीं।घर के बाहर कुर्सी डालकर वे पुस्तक पढ़ती रहतीं।मैं अक्सर उनके पास जा बैठती।वे हर मुद्दे पर बात कर लेतीं। हालांकि वे धार्मिक महिला थीं और उनके विचार संकुचित नहीं थे।मुझे वे मानती थीं।मैं भी मात्र उन्हीं के पैर छूती थी।
वे किसी की शिकायत नहीं करती थीं और न शिकायत सुनना पसन्द करती थीं। अच्छी राय और उचित सुझाव भी देती थीं।
मैं उनको पसन्द करती थी।हमारी उम्र में बहुत अंतर था,फिर भी उनसे एक अच्छा तादात्म्य था।
उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाना मुझे बहुत खल रहा था।हालांकि सामाजिकता का पूरा ध्यान रखा जा रहा था।सेवा- सुश्रुसा की जा रही थी।मुझे लग रहा था कि जब वे मरना नहीं चाहतीं ,तो उन्हें बचाने का जतन किया जाना चाहिए ।वैसे बेटा भी माँ की मृत्यु नहीं चाहता होगा ,पर लाखों खर्च का मामला था और उस पर दूसरी और भी जिम्मेदारियाँ थीं।वे ही जिम्मेदारियाँ,जो कभी अम्मा ने उसके कंधों पर डाली थी ,आज अम्मा को मृत्यु के दर पर ले आई थीं ।
अम्मा ने कभी अपने लिए नहीं जीया था ,आज जीना चाहती थीं।पर वे जिनके लिए जीती रही थीं वे नहीं चाहते थे कि वे जीएं क्योंकि अब वे उनके लिए अनुपयोगी थीं...बोझ थीं...अपने अलावा किसी काम नहीं आ सकती थीं इसलिए उन पर व्यय करना सबको खल रहा था।
मैं सोच रही थी कि अगर अम्मा अपने लिए जी होतीं और सिर्फ अपने लिए धन जमा किया होता ,तो उसे अपनी जिन्दगी बचाने के लिए तो खर्च कर ही सकती थीं।पर क्या पता,वह धन भी बुढापे में किसी उत्तराधिकार के हाथ में होता और उसे उनकी ज़िंदगी की अहमियत पता नहीं होती।
कल दुपहर को जब सभी अपने घरों में सो रहे थे,अम्मा के प्राण -पखेरू उड़ गए।घर के लोग उन्हें गांव लेकर चले गए।जिस घर में वे डोली में बैठकर आई थीं,वहीं से अर्थी उठेगी।
उनके घर के दरवाजे पर बड़ा -सा ताला लटका रहा है।मुझे कभी बरांडे में चावल चुनती,साग साफ करती,किताबें पढती अम्मा दिख रही हैं तो कभी मौनी बुढ़िया की तरह बैठी ,दर्द से छाती को दबाए,जोर -जोर से साँस लेती,जिंदगी के लिए लड़ती अम्मा।अब अम्मा कभी नहीं देखेंगी ...जाने क्यों वह घर मुझे अजनबी लग रहा है!