आज मैं कोई कहानी नही बल्कि एक ऐसी सच्ची घटना के बारे में लिख रहा हूं जिसका प्रमाण वो ख़ुद है जो किसी और कि एक अनजाने में हुई गलती का परिणाम एक श्राप के रूप में आज भी भुगत रहा है। कोई सोच भी नही सकता कि एक श्राप ऐसा भी हो सकता है।
ये घटना कुछ लम्बी हो सकती है पर मेरी पूरी कोशिश यही है कि इस घटना को कहानी की बजाय मैं अपने शब्दों के माध्यम से आप सभी को लाइव दिखाऊँ। एक एक घटनाक्रम आपकी आंखों के सामने चलचित्र की भांति चलता महसूस हो।
इसलिए कृपया धैर्य के साथ मेरा साथ दें यकीन मानिए ये घटना आपको सोचने के लिए मजबूर कर देगी...कि ऐसा भी हो सकता है ?
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हम सब बचपन से ही उसे अक्सर देखते आये थे, उसे सब बाबा कहते हैं। क्यूँ ?...नही पता ...शायद उसकी वेशभूषा के कारण...उम्र यही कोई 35 से 40 साल के बीच मे होगी।
वो हमारे कस्बे की नज़दीक ही एक गांव का रहने वाला है। गांव से किसी न किसी काम के लिए अक्सर पैदल ही कसबे आता रहता है। सबसे नॉर्मल तरीक़े से ही बात करता है, मिलता जुलता है, सम्मान करता है यानी कि वो कतई पागल नही है। पर उसका पहनावा लोगों के दिमाग मे अक्सर सवाल पैदा करता है कि ये क्या ये सच मे पूरी तरह नॉर्मल है या कुछ विछिप्त भी है ?
दरअसल! उसका पहनावा ही कुछ ऐसा था कि ये सवाल आना लाज़मी था। जब भी उसे देखता मेरे भी मन मे अक़्सर ये सवाल कौंधता।
बचपन ने अलविदा कह दिया और जवानी ने बढ़कर मेरा हाथ थाम लिया था। मेरा दाखिला आगे की पढ़ाई के लिये कॉलेज में करा दिया गया जो मेरे घर से लगभग 4 किमी दूर था। एक साइकिल से मैं रोज़ कॉलेज जाता था। हमारे कॉलेज का रास्ते के बीच मे ही उस बाबा का गांव पड़ता था। बाबा अक्सर हमें वँहा दिख जाता। उसी अपनी भिन्न सी वेशभूषा में।
बाबा हमेशा सिर्फ़ लम्बे कुर्तों में ही दिखता। कुर्तों इसलिए क्योंकि वो कुर्ते के नीचे कई कुर्ते पहनता जो उसके घुटनों के नीचे तक जाते। उन कुर्तों के सिवा उसके बदन में कुछ भी नही होता मेरा मतलब वो कमर के नीचे कुछ भी न पहनता बल्कि उन्ही कुर्तों की लंबाई उसके पूरे बदन को ढके रहती। ये उसके बारह मास का पहनावा था। सिर्फ कुर्तों के रंग बदलते थे बाकी कुछ नही। हमने उसे बचपन से ऐसे ही देखा था।
शुरू में तो अज़ीब लगता था पर अब तो सब लोग उसे ऐसा देखने मे अभ्यस्त हो गए थे। कभी कभी कुछ लोग उससे पूंछ भी लेते "अरे बाबा, पजामा भी पहना करो, सिर्फ कुर्तों में अच्छा नही लगता" या "बाबा! तुम नीचे कुछ क्यो नही पहनते?"
पर बाबा या तो सिर्फ मुस्कुरा देता या बात को टाल देता।
मेरे मन मे भी जिज्ञासा हिलोरें मारने लगी, मैंने भी इस बारे में पता लगाने की कोशिश करना शुरू कर दिया। अफवाहें तो कई थी पर सच शायद किसी को नही पता था। बाबा के गांव के के कई बच्चे मेरे कॉलेज में पढ़ते थे, कुछ मेरी क्लास में भी। मैंने उनसे बाबा के बारे में जानने की कोशिश की पर कुछ खास जानकारी न मिल पाई जो मुझे सन्तुष्ट कर सके। मैंनें इस बारे में और बेहतर जानने के लिए बाबा के गांव वालों से सम्पर्क करने को सोचा और एक दिन मैंनें जानबूझकर कर उसी गांव के पास अपनी साइकिल की हवा निकाल दी और बाबा के गांव के किनारे पर मौजूद एक पंचर बनाने वाली दुकान पर पहुंच गया।
शेष अगले भाग में ...