रतन घर का सबसे बड़ा बेटा और घर-परिवार में सबका लाड़ला भी था। पिताजी गाँव के लम्बरदार थे, इसीलिए अपनी ज़मीनों के सिलसिले में वे अक्सर व्यस्त ही रहते। रुतबे पैसे के साथ-साथ आसपास के गाँव-गुहांड़ में खूब मान-सम्मान भी प्राप्त था।
यह उस ज़माने की बात है जब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और देश में कपड़े की कमी के कारणवश ज़्यादातर कपड़ो पर भी राशनिंग हआ करती थी। कभी-कभार शहर से कोई कपड़े-लत्ते बेचने वाला गाँव में दस्तक देता तो उसकी पहली हाजिरी सीधे लम्बरदार साहब के घर पर ही होती। रतन को जो भी थान पसंद आते, बस उसी में से लम्बरदार साहब घर के बाकी बाल-बच्चों के कपड़े बनवाने के लिए रखवा लेते। ओर फिर, घर पर ही गाँव का एक दर्ज़ी आकर बैठ जाता सबका नाप लेकर कपड़े सिलने के लिए। रतन और उसके सभी भाई-बहन सादगी में भी ख़ूब सलिके से बन-संवर कर रहा करते।
रतन कभी-कभार समय मिलने पर अपने पिताजी के साथ आसपास के इलाक़ों में भी घूमने चला जाता। उसके पिताजी जब भी शहर जाते, अक्सर रतन को अपने साथ ही ले जाया करते ताकि बेटा शहर के तौर तरीक़े भी साथ-साथ सीखता रहे।
इस बार लम्बरदार साहब काम के सिलसिले में अकेले ही शहर की ओर चले गए। रतन इम्तिहान की तैयारी में व्यस्त था, सो इसी कारणवश पिताजी के साथ शहर जाने से वंचित रह गया। लम्बरदार साहब शहर पहुँच, अपने कामकाज से फारिक होकर सामने नज़र आए एक बाजार में टहलने लगे। शहर कभी-कभार ही आना हो पाता था इसलिए शहरी दुनिया की ज़्यादा कुछ जानकारी भी नहीं थी। लम्बी तगड़ी कद-काठी वाले लम्बरदार साहब सफ़ेद धोती-कुर्ते में और सिर पर सिल्क का साफ़ा (पगड़ी) पहने बाज़ार में घूम ही रहे थे कि एक दुकानदार ने आवाज़ देकर विनम्रतापूर्वक आमंत्रित करते हुए कहा “ये कपड़े आज ही आए हैं, ले लीजिए साहब।” दुकानदार की बात सुनकर वो रुक गए। बंधे हुए कपड़ों की एक नई ढेरी दुकानदार ने झट से खोलते हुए कहा, “साहब, यह माल आज ही आया है।” लम्बरदार साहब ने देखा कि उसमें तो उन्हे सभी एक जैसे से ही लगे, जैसे कि एक ही थान में से बनाए गए हों। पसंद भी कुछ खास नहीं आए। दुकानदार ने बताया कि नाप भी सबका लगभग एक सा ही है ओर उसके आग्रह पर मन रखने के लिए बिना ठीक से देखे कह दिया " ठीक है भाई, दो जोड़ी दे दो।"
मन मे सोचा, रतन पहन लेगा। उसके नाप के ही होंगे। घर पहुँचकर रतन की माताजी के हाथ में यह कहकर सोंप दिए "शहरी पोशाक लगती है। रतन के नाप के ही होंगे। आप उसे पहनने को दे देना।"
सप्ताह भर बाद रतन की माताजी ने रतन को बताया, "तुम्हारे मामा की शादी में शामिल होना है। चलोगे मेरे साथ, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे लिए शहर से नए कपड़े भी लेकर आए हैं।"
रतन के इम्तिहान भी खत्म हो गए थे, सो माताजी के साथ नानाजी के गाँव जाने को झट से राजी हो गया शहर से आए नए कपड़ों में रतन ख़ूब जँच भी खूब रहा था। रतन के नानाजी स्कूल में प्राध्यापक थे। चारों मामा शास्त्री या फिर डाक्टर। माँ के साथ नानाजी के घर पहुँचकर सबसे बड़े ही सदभाव और आत्मीयता से मिला। रतन की मौसी शहर में रहती थी। वह भी अपने परिवार के साथ शादी में शामिल थी। मौसी का बेटा जब रतन से मिला तो रतन के कपड़े देख कर ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। रतन को अच्छा नहीं लगा। इससे पहले मौसी का बेटा आगे कुछ कहता, रतन के मामाजी जो कि वहाँ से गुजर रहे थे, उन्होंने यह सब देख लिया। वो रतन के पास आए और प्रेम से रतन का हाथ पकड़ वहाँ से ले गए। बहन के पास पहुँचकर प्यार से बोले, "आप बेटे के कपड़े बदल दीजिए, ये सफ़र की धूल से मैले हो गए होंगे" और कह कर वो अपने पिताजी के कमरे से होते हुए बाहर की ओर चले गए।
कुछ ही देर बाद रतन के मामाजी के साथ एक दर्ज़ी घर में दाखिल हुआ। साथ में कुछ कपड़े के थान भी थे। रतन को बुलवाकर उसका नाप लिया, थान में से रंग पसंद कराया गया और उसी वक़्त दर्ज़ी कपड़े सिलने बैठा दिया। यह सब देख रतन की माताजी अपने पिताजी के पास जाकर पूछने लगी कि "इस सबकी क्या आवश्यकता थी। रतन के पहने हुए कपड़े नए ही तो है। इसके पिताजी हाल ही में शहर से ख़रीद कर लाए थे।"
रतन के नानाजी बोले , “वो सब तो ठीक है, परन्तु बेटी, हमारे रतन के पहनने लायक़ नहीं हैं ये कपड़े। अनजाने में खरीदे हुए इन कपड़ो के बारे तुम जानती नहीं हो। जापानी क़ैदियों की पोशाक है यह। देखो, इस पर नम्बर भी लिखा हुआ है।"
नानाजी के घर में रतन को किसी ने इस बात का आभास नहीं होने दिया। अपने गांव वापस आकर फिर से अपनी दिनचर्या में मगन हो गया। प्रार्थमिक शिक्षा के उपरांत शहर में आगे की पढ़ाई करने के लिए चला गया।
सप्ताह में गाँव का एक चक्कर ज़रूर लगा लेता। जब भी रतन गाँव जाता, रास्ते में रुककर पौधशाला से कुछ पौधे साथ में ज़रूर ले जाता। बचपन से ही गाँव भर में पेड़ पौधे बहुत ही चाव से लगाया करता। इस बार पौधशाला में पौधे बंधवाते समय अचानक रतन की नज़र अखबार की पुरानी ढेरी पर पड़ी। उसी में सबसे ऊपर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर तस्वीर में जपानी कैदियों की पोशाक देखकर चकित रह गया। उसे हाथ में लेकर गौर से पढ़ने लगा। उसी के साथ नानाजी के घर पर बीता हुआ सारा किस्सा समझ आकर नज़र के सामने घूूमने लगा। यकायक रतन को अपनी मौसी के बेटे का ख़याल आया कि नाहक ही उससे इतने अर्से तक नाराज होकर बैठा रहा।"
-समाप्त-
गीता कौशिक रतन