MIKHAIL: A SUSPENSE - 23 in Hindi Fiction Stories by Hussain Chauhan books and stories PDF | मिखाइल: एक रहस्य - भाग २३ - नर्क मुबारक हो भैयाजी

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मिखाइल: एक रहस्य - भाग २३ - नर्क मुबारक हो भैयाजी

एक छोटे से गांव में पुलिस की नौकरी कर कर और उससे मिल रही तनख्वाह से कभी अमीर नही बना जा सकता इंस्पेक्टर महेंद्रसिंह को यह बात अच्छी तरह से पता थी। बैंक मैनेजर द्वारा दिये गए सनसनीखेज खत और उस पेन ड्राइव को देखने बाद उसके शैतानी दिमाग ने पैसा बनाने का रास्ता तुरंत ही खोज निकाला लेकिन, इन सब से पहले यह निश्चित करना बेहद ही आवश्यक था कि, बैंक मैनेजर और केशियर लक्ष्मी यह बात किसीको न बताये। परिस्थिति की गंभीरता का बहाना बनाते हुवे महेंद्रसिंह ने उन दोनों को मना लिया और बैंक से मिले हुवे सबूतों को लेकर सीधा ही गंतव्य स्थान की ओर निकल पड़ा।

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आज की सुबह बड़ी ही आनंद व उल्लास से परिपूर्ण थी। सुबह से उसके चेहरे पर ख़ुशी ने अपना डेरा डाल दिया था। अपने किंग साइज बिस्तर पर अकेला सोया हुआ वो मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। सुबह के १०:३२ के करीब का वक़्त हो चला था लेकिन, उसे कोई परवाह नही थी। वो तो बस सुबह सुबह सुस्ता रहा था। करीब आधा घंटा ऐसे ही अपने बिस्तर पर पड़े रहने के बाद वो उठा और अपने किचन की ओर बढ़ा। एक स्टील के बर्तन में उसने पानी भरा और उबालने के लिये रख दिया। शुगर, चाय पत्ती, इलाइची और थोड़ी देर उबालने के बाद उसने उसमे दूध डाल कर मसालेदार चाय बना ली, उसकी महक पूरे कमरे मे फैल चुकी थी।

हाथ मे चाय का बड़ा सा एक मग भरे बिना ही ब्रश करे वो चुस्कियां भरते हुवे वो अपने डेस्क की ओर बढ़ा जो उस दीवाल से बिल्कुल सटकर लगा हुआ था जिस पर उसने कोई जासूस या फिर कोई पुलिस, या किसी आतंकवादी की तरह जानकारियों को इकट्ठा किया हो। बहुत सारे फ़ोटो, न्यूज़पेपर से काटे गये नोट्स, लाल रंग के धागे से जोड़े गये सारे कनेक्शन यही प्रतीति करवा रहे थे कि यक़ीनन वो कोई बड़ी ही योजना या षड्यंत्र जो भी हो उससे अंजाम देने वाला था।

चाय की चुस्की भरते हुवे उसने अपने डेस्क के ड्रावर से एक बड़ा लाल रंग का मार्करपेन निकाला और एक फोटो पर क्रॉस का बड़ा सा निसान लगा दिया।

"नर्क मुबारक हो भैयाजी!" फ़ोटो पर क्रॉस मार्क करने के बाद वो कातिलाना अंदाज़ में हंसने लगा। लेकिन, उस हंसी में भी वह बिल्कुल शांत दिख रहा था यक़ीनन वह कोई सायको किलर नही था लेकिन, जो भी था यह तो पक्का था कि, वह एक कोल्ड ब्लड मर्डरर ज़रूर था।

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"अब फ़ोन कर रहे हो तुम?" पूरे गुस्से में वह बोल पड़ी, इतना गुस्सा की कोई बीवी ही अपने पति पर कर सके।

"अरे, मेरी बात तो..."

"कोई नही सुननी तुम्हारी बात, सब बहाने है।" इससे पहले की जय अपनी बात पूरी कर पाता माहेराने बीचमे ही जय की बात काट दी। उसका गुस्सा होना एक तरह से जायज़ भी था। अमरीका लौटने के 12 दिन बाद उसने माहेरा को फ़ोन किया था।

"पर मेरी बात...."

जय कुछ बोलता इससे पहले फ़ोन कट चुका था, माहेरा जय से गुस्सा तो थी ही लेकिन, साथ ही साथ जय की इस लापरवाही से खफा भी थी कि 12 दिन तक ऐसा क्या व्यस्त रहा होगा कि, उसे एक फ़ोन करने तक का वक़्त नही मिला? लेकिन, इसके साथ ही साथ उसके दिल को यह तसल्ली भी ज़रूर मिली कि, जय आखिरकार उसे भूला नही था, उनकी मुलाकात क्षणिक या फिर पल भर की नही थी, आगे भी उनकी मुलाक़ातें होनेवाली थी। लेकिन वह यह नही जानती थी कि कब! हां, जय के साथ बीतें इन दिनों में वो एक बात जरूर मानने लगी थी कि, ज़िन्दगी रहस्य व रोमांच से भरी पड़ी है, कोई नही कह सकता कि, अगले पल क्या होनेवाला है, ऊपरवाले से बड़ा और कोई जादूगर नही।

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"सर आप यहां इंतज़ार करिये, सर अभी आते ही होंगे।" आई. जी. प्रभु रामदास से मिलने पहुंच चुका था जिस स्थान पर उसे बुलाया गया था। एक रिश्वतखोर और सनकी पुलिसवाले के साथ उसे कोई देख न ले, और इन सब का असर उसके आनेवाले चुनाव पर न पड़े, जो कुछ ही दिन की दूरी पर था, उसका सुव्यवस्थित आयोजन रामदास ने किया था।

"सर आप कुछ लेना पसंद करेंगे?" वहां खड़ी लड़की ने पूछा जो आई.जी.प्रभु को अंदर लेकर आयी थी, वैसे तो वह दिखने में रामदास की कोई सेक्रेटरी या वैसी औरत लग रही थी जिसका रामदास के साथ अफेयर चल रहा हो, जो भी हो, वेट्रेस तो बिल्कुल भी नही थी।

"नही" प्रभु ने बिना ही उसकी तरफ देखे रूखा सा जवाब दिया।

कुछ वक़्त और इंतज़ार करने के बाद रामदास अपने पी.ए. असित के साथ आ पहुंचा। रामदास को वहां उपस्थित देख उसके राजकीय चेलो या अनुयायियों की भांति प्रभु ने उठकर उस्कामान नही बढ़ाया। वो जैसे बैठा था बैठा ही रहा यहां तक कि, उसने उसको ठीक से देखना भी मुनासिब नही समझा। रामदास को प्रभु का ऐसा सख्त और अकडू रवैया बिल्कुल भी पसंद नही आया, और आता भी तो कैसे उसे अब उसकी खुशामत करवाने की आदत पड़ चुकी थी। लेकिन, फिलहाल इसकी जरूरत नही थी और वो अच्छी तरह से जानता था कि, उसे प्रभु से काम है, प्रभु को उससे नही।

"पिछली बार देखा था उससे काफी अलग दिख रहे हो प्रभु, हंह?" रामदास ने बात को शुरू करने की कोशिश की।

घूसखोरी की जमा की गयी राकम का प्रभु ने अच्छे से फायदा उठाया था। उसने अपनेआप को बिल्कुल ही फिट रखा था, ऊपर से उसकी हाइट-बॉडी उसे पक्का पहलवान दिखा रही थी। इसके साथ ही उसकी बढ़ी हुई मगर बिल्कुल ही शेप में बनी दाढ़ी मुछे उसे एक शातिर इंसान का रूप भी दे रही थी जो अपने काम को पूरा करने के लिये कोई भी हद को पार कर सकता था।

"सीधी बात करे, नेताजी? मेरे पास गंवाने के लिए फालतू का वक़्त बिल्कुल भी नही है।" अपने बेबाक, और उसी सख्त रवैये से प्रभु ने रामदास के साथ बर्ताव किया जैसा वह बरसो पहले किया करता था।

प्रभु की बात सुनकर रामदास को थोड़ा बूरा ज़रूर लगा लेकिन, वह कर भी क्या सकता था उसने अपने गुस्से को निगल लिया और अपने साथ हुवे सारे कांड का ब्यौरा प्रभु को दे दिया।

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