Chandra-Prabha - Part (11) in Hindi Love Stories by Saroj Verma books and stories PDF | चन्द्र-प्रभा--भाग(११)

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चन्द्र-प्रभा--भाग(११)

रात्रि का तीसरा पहर प्रारम्भ हो चुका था,मूर्छित इच्छाधारी सर्पों का उपचार किया जा रहा था एवं जो जीवित नहीं बचे थे,उनका दाह संस्कार किया जा रहा था,शेषनाग अत्यधिक ब्यथित थे एवं रानी का मन भी द्रवित था,परन्तु कुछ किया भी नहीं जा सकता था,अम्बालिका ने छलपूर्वक अपना कार्य किया एवं सर्पों को हानि पहुँचाई,अब तो भालचन्द्र के क्रोध की सीमा का पार ना था,उसकी आँखों में प्रतिशोध की अग्नि प्रज्वलित हो रही थीँ, उसका मन करूणा से भरा था,उसे लग लग रहा था कि उसके कारण इतने निर्दोष इच्छाधारी सर्पों की हत्या हो गई।।
मित्र! जो हुआ,वो बिल्कुल भी अच्छा नहीं हुआ,सहस्त्रबाहु ने भालचन्द्र से कहा।।
हाँ मित्र! वही तो सोच रहा हूँ कि जब इन अपरिचित, निर्अपराध,जीवों की हत्या करने में अम्बालिका को कोई संकोच ना हुआ तो ना जाने सूर्यप्रभा की क्या दशा होगी,भालचन्द्र बोला।।
परन्तु ऐसे दुख मनाने से कुछ नहीं होगा मित्र! हमें आगे बढ़ना होगा,साहस से कार्य करना होगा, सहस्त्रबाहु बोला।।
परन्तु मित्र! ऐसी परिस्थितियों में मेरा साहस सुप्त पड़ गया है, मैं कोई पाषाण तो नहीं कि कुछ भी अनहोनी हो और उसका प्रभाव मेरे हृदय और मस्तिष्क में ना पड़े,भालचन्द्र बोला।।
आपका कहना उचित है, राजकुमार! परन्तु आप ऐसे हताशा और निराशा भरी बातें करेंगे तो हमें कौन सम्भालेगा,आप ही तो हमारा आधार हैं,आपके बल पर ही तो हम आगे बढ़ रहे हैं, सहस्त्रबाहु बोला।।
परन्तु अब मेरी शक्ति क्षीण हो चुकी है, मैं क्षण क्षण उदासीनता में डूबता जा रहा हूं क्योंकि मेरे पास कोई भी उचित मार्ग नहीं है, सूर्यप्रभा को बचाने का,भालचन्द्र बोला।।
कैसी बातें कर रहे हैं आप, मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी,उधर आपके माता-पिता को भी आपकी आवश्यकता है और हम सब भी कहीं ना कहीं अम्बालिका के घृणित कार्यो से प्रभावित हैं,हम सब सोच रहें हैं कि आपका साथ पाकर हम अपने अपने ध्येय को प्राप्त करेंगे लेकिन आप ऐसी उदासीन बातें कर रहे हैं, सहस्त्रबाहु बोला।‌
दोनों की बातें सोनमयी सुन रही थीं, दोनों के निकट आकर बोली___
राजकुमार! आपने तो मुझे बहन माना है और एक बहन का भाई इतना उदास हो तो बहन के हृदय पर क्या बीतेगी एवं जब इतने सब लोगों की दृष्टि आप पर टिकी हो और सबको ये लगता हो कि अगर आप साथ हैं तो हम सबकी जीत निश्चित है,आधा मार्ग तय करके,हम सबको ऊर्जावान बनाकर आप स्वयं ऐसी बातें करें तो ये शोभा नहीं देता।।
आप एक योद्धा है,सूर्यवीर है तो वैसे ही विचार लाए और वैसा ही करें,स्वयं को अकेला ना समझें,हम सब आपके साथ हैं।।
धन्यवाद,बहन! तुम ने मेरी आंखें खोल दीं,अब से कभी भी मैं निराशावादी बातें नहीं करूंगा,भालचन्द्र बोला।।
और भालचन्द्र मूर्छित सर्पों के पास उनकी दशा देखने चला गया।।
तब सहस्त्रबाहु,सोनमयी से बोला___
धन्यवाद! राजकुमार को समझाने के लिए, जितनी बुरी तुम दिखती हो, कदाचित उतनी बुरी हो नहीं, तुम्हारे हृदय में भी भावनाएं हैं,इसका तात्पर्य है कि तुम हृदय विहीन नहीं हो।।
महाशय! तुम्हें क्या लगता है कि मैं पाषाणी हूं,मेरे हृदय में भाव ही उत्पन्न नहीं होते, ऐसा कुछ नहीं है,बचपन से अकेले जो रहते आई हूं,ना मां की ममता जानी और ना बाप का स्नेह, जो कुछ हैं वो बाबा ही है तो स्वभाव में बदलाव आ गया, परन्तु इसका ये तात्पर्य नहीं है कि मैं हृदय विहीन हूं,सोनमयी बोली।‌
हृदय विहीन नहीं है तो अब तक मेरे हृदय की बात क्यों नहीं समझ पाई, सहस्त्रबाहु बोला।।
क्या तात्पर्य है तुम्हारा,सोनमयी ने सहस्त्रबाहु से पूछा।।
अब रहने भी दो देवी!मैं अज्ञानियों को ज्ञान थोड़े ही देता फिरता हूं,अब कोई मेरे नयनों की भाषा ना पढ़ पाएं,तो अब इसमें मेरा क्या दोष?सहस्त्रबाहु बोला।।
ए सुनो, तुमने पुनः बिन सिर पैर वाली बातें प्रारंभ कर दी, मैं कोई साधु महात्मा हूं जो तुम्हारी अर्थविहीन बातों का अर्थ समझ जाऊंगी, मैं जा रही हूं,मेरा मस्तिष्क मत खाओ, उदंडता के सिवा तुम्हें और आता क्या हैं? सोनमयी बोली।।
बहुत कुछ आता है प्रिऐ! परन्तु तुमने कभी जानने का प्रयास ही नहीं किया,एक बार मेरी दृष्टि से दृष्टि मिलाई होती तो सब समझ आ जाता, लेकिन तुम जानना ही नहीं चाहती,मेरे हृदय की बात,तुम बांचना ही नहीं चाहती मेरे नयनों की भाषा,सहस्त्रबाहु बोला।।
चलो हटो भी,मेरे पास तुम्हारी निरर्थक बातों के लिए समय नहीं है,ना जाने क्या क्या बोले जा रहे हो,भाषा, दृष्टि और इतना कहकर सोनमयी चली गई।।
और सहस्त्रबाहु हंसते हुए वहीं बैठा रहा और धीरे से मन में बोला,प्रिऐ! मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूं,तुम ना जाने कब समझोगीं।।
भोर हुई, सब स्नान ध्यान करके आगे चलने के लिए तैयार हुए, सैनिकों ने भोजन का प्रबन्ध कर लिया था परन्तु सब का मन दुखित था, इसलिए उस समय किसी ने कुछ भी नहीं खाया।।
नागमाता बोली__
सेनापति जी,सब रख लीजिए,मार्ग में भूख लगेगी,तब सब खा लेंगे।।
जी माता! जैसा आप उचित समझें, सेनापति बोले।।
और सब गन्तव्य की ओर बढ़ चले,सबके मस्तिष्क में कुछ ना कुछ विचार चल रहे थे कि अम्बालिका और उसकी बहन से कैसे जीता जाएं,कैसे हम उसके षणयन्त्रो को तोड़ने में सफल हों,मगर कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।।
परन्तु जीवन में संघर्ष ना हो तो मानव कभी आगे बढ़ने का सोचेगा ही नहीं,यही तो जीवन है एवं इस सच्चाई को झुठलाया भी नहीं जा सकता।।
दोपहर होने को आई थीं,सब चलते चलते थक भी गए थे और सब भूख से भी ब्याकुल हो उठे थे, सबने एक उचित स्थान देखकर शरण ली।।
भोजन निकाला गया और सब में बांट दिया गया, सबने भोजन किया और तय किया कि कुछ समय यही विश्राम करके आगें बढ़ेंगे।।
और सभी वृक्षों की छांव तले विश्राम करने लगे,तभी एक वृद्ध व्यक्ति कांधे पर पोटली टांगे और एक लाठी के सहारे आ पहुंचा और दीर्घ स्वर में चिल्लाने लगा कि सब मारे जाओगे....सब मारे जाओगे,मेरी बात नहीं सुनोगे तो सब मारे जाओगे।।
तभी सहस्त्रबाहु ने उस वृद्ध से पूछा कि___
आप कौन हैं बाबा?
मैं हूं एक अभागा, जिसने धन के लालच में अपने परिवार को मृत्यु लोक पहुंचा दिया,क्या करोगे मेरे विषय में ज्ञात करकें, वृद्ध व्यक्ति बोला।।
ऐसा क्या हुआ था बाबा आपके साथ? कृपया कर आप हमें बताएं,हो सकता है कि हम आपकी कुछ सहायता कर सकें,भालचन्द्र बोला।।
सर्प्रथम मैं कुछ खाऊंगा,दो दिनों से कुछ नहीं खाया, वृद्ध बोला।।
सोनमयी उस वृद्ध के लिए भोजन लेकर आई और उसने भोजन किया,इसके उपरांत बोला__
अब मैं अपने विषय में बताता हूं__
ये उस समय की बात है जब मैं नवयुवक हुआ करता था, मेरा विवाह हो चुका था,मेरी पत्नी गर्भ से थी और मैं घर में ही पड़ा रहता था,बूढ़े मां-बाप जो कमाकर लाते ,बस उससे ही गुजर बसर हो रही थी,तब मेरी पत्नी ने एक दिन मुझे बहुत लज्जित किया कि तुम अब बाप बनने वाले हो और दिनभर घर में पड़े रहते हो,जाओ कुछ काम काज करना सीखो,पत्नी की बात मुझे लग गई और मैं घर से निकल पड़ा।।
सावन का महीना था, बरसात होने लगी, मैं भींग रहा था और चलते चला जा रहा था, तभी मेरी दृष्टि शीशमहल पर पड़ी और मैंने सोचा,चलो सिर छुपाने के लिए स्थान मिल गया, परन्तु महल के भीतर जाते ही मुझे बेड़ियों ने जकड़ लिया और वहां एक अदृश्य आकृति उपस्थित हुई,जिसे देखकर मैं अत्यंत भयभीत हो उठा।।
उस आकृति ने पूछा__
यहां किस उद्देश्य से आए हो?
मैंने कहा कि बरसात से बचने के लिए चला आया,क्षमा करें।।
तब उस आकृति ने अपना रूप लिया और बोली कि मैं अम्बालिका हूं,क्या तुम मेरे लिए कार्य करोंगे, मैं तुम्हें बहुत धन दूंगी और मैं उसकी बातों में आ गया, उसने अपने रूप और सौन्दर्य का जाल मुझ पर डाला और मैं उसमें फंस गया, मैं भी धीरे-धीरे उस की ओर आकर्षित हो गया और एक दिन उसने मुझसे कहा कि वो मुझसे प्रेम करने लगी और मैं भी उसके मुंख से ये शब्द सुनने के लिए कबसे लालायित था और सहर्ष मैंने उसका प्रेम स्वीकार कर लिया और एक दिन वो बोली कि मुझे किसी गर्भवती स्त्री का रक्त चाहिए,अपने जादू को सफल बनाने के लिए और मुझे तब अपनी पत्नी की याद आई और मैंने अम्बालिका से कहा कि मैं तुम्हारे लिए गर्भवती स्त्री का रक्त लाऊंगा और मैं अपने घर की ओर चल पड़ा____

क्रमशः__
सरोज वर्मा...