Chandra Prabha - Part (4) in Hindi Love Stories by Saroj Verma books and stories PDF | चन्द्र-प्रभा--भाग(६)

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चन्द्र-प्रभा--भाग(६)

सूर्यप्रभा मैना के रूप मे पिंजरे मे छटपटाती रही लेकिन पिंजरे से निकल नहीं पाई,उसके नयनों से बहती हुई अविरल अश्रुओं की धारा से यह प्रतीत हो रहा था कि वो बहुत विवश थी,अत्यधिक प्रयास करने के उपरान्त भी वो स्वयं को ना छुड़ा सकी और उस छाया ने उसे श्रापित शीशमहल में पहुंचा दिया।।
वहाँ उस सुनसान से महल का वातावरण सूर्यप्रभा को भयभीत कर गया किन्तु उसने अपने साहस को कम ना होने दिया,उसने प्रांगण से होते हुए,महल के भीतर प्रवेश किया, सिवाय अंधकार के वहाँ कुछ भी ना था,तभी उसे ध्यान आया कि प्रांगण मे तो बहुत से पत्थर के पुतले थे,क्योंकि छाया बोली थी कि वो उसे पुलस्थ राज्य ले जा रहीं, इसका तात्पर्य यह हैं कि ये श्रापित शीशमहल है और मेरे राजा पिता, रानी माता इसी महल मे बंदी होगें।।
तभी वो छाया अपने असली रूप में आकर बोली____
मैं जादूगरनी अम्बालिका!तुम्हारा स्वागत है, राजकुमारी सूर्यप्रभा! वर्षों पहले मैने तुम्हारे माता-पिता को इस श्रापित शीशमहल में बंदी बनाया और आज तुम्हें, मिलना चाहोगी अपने माता-पिता से ।।
एकाएक वहाँ उस जादूगरनी ने प्रकाश फैला दिया और कहा__
वो देखो तुम्हारे पिता को मैने काठ के पुतले मे परावर्तित कर इस बड़े से पिंजरे मे बंद कर दिया हैं और अब चलो अपनी माता के भी दर्शन कर लो,वो उसे एक बड़ी सी वाटिका में लेकर गई और वहाँ की दीवारें इतनी ऊँचीं थी कि कोई भी मानव वहाँ नहीं आ सकता था और दीवारों के ऊपर उसने जादुई जाल की छत डाली हुई थीं जिससें वहाँ जो भी पंक्षी आता और जीवित नहीं बचता,वहीं एक जलाशय के निकट एक बड़े से वृक्ष से रानी जलकुम्भी बेड़ियों से बंधी हुई पड़ी थी,उसकी बेड़ियाँ इतनी लम्बी थी कि वो जलाशय पर आकर जल पी सकती थी और वाटिका में कहीं भी टहल सकती थी।
अम्बालिका, जलकुम्भी के समीप जाकर बोली___
देख जलकुम्भी! तेरे लिए एक सखी लाईं हूँ, अब तू इससे बातें करना,तेरा यहाँ जी नहीं ऊबेगा,ये किसी राज्य की राजकुमारी है, मैने इसे अपनी शक्तियों द्वारा मैना बना दिया है।।
और मैं तुझसे आशा ही क्या कर सकती हूँ?सिवाय घृणित कार्यों के तुझे और कुछ करना आता ही नहीं है, अरे! ईश्वर से कुछ तो डर,इतने घृणित कार्य करके क्यों पाप कमा रही है,रानी जलकुम्भी बोली।।
अरे,रानी! क्यों? कड़वे बोल बोलकर मेरी प्रसन्नता को कम कर रही हो,पता है कितने सालों बाद मुझे सफलता मिली है और तुम मुझे कोस रही हो,ये तो मैं तुम्हारे लिए लाई थीं, तुम्हें नहीं चाहिए तो कोई बात नहीं, मैं इसे अंधेरे कारागार मे डाल देती हूँ, भूख-प्यास से ये कुछ दिनों में ही मर जाएगी,अम्बालिका बोली।।
नहीं अम्बालिका, मुझे क्षमा कर दो,मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगी, इस मूक जीव को यहीँ रहने दो,रानी बोली।।
तो ठीक है, मैं इसे अभी छोड़कर जातीं हूँ, जब मेरा जी चाहेगा, इसे ले जाऊँगीं, अम्बालिका बोली।।
और अम्बालिका उस मैना के पिंजरे को एक वृक्ष की शाखा से लटकाकर चली गई, जलकुम्भी अपनी बेड़ियों सहित उस मैना के पिजरें के निकट पहुँची और उस मैना से पूछा___
भूख लगी है तुम्हें!!
सूर्यप्रभा, अपने माँ के बोल सुनकर रो पड़ी,उसके अश्रु बह पड़े,ये देखकर जलकुम्भी बोली___
रो मत प्यारी मैंना! मैं तुझे यहाँ से जल्द ही छुड़ाने का प्रयास करूँगी, इतनी भी असहाय नहीं हूँ कि तेरी सहायता ना कर सकूँ, बस तू अपना मनोबल बनाएं रख,एक मुझे ही देख ले,इस जादूगरनी ने कितने सालों से मुझे और राजा को बंदी बनाकर रखा है, मैने कई बार प्रयास भी किया परन्तु निकल ना सकी यहाँ से,परन्तु मैने अभी तक अपना आत्मविश्वास नहीं खोया,रानी जलकुम्भी ने मैंना से कहा।।
सूर्यप्रभा को अपनी माँ की दशा देखकर अत्यंत पीड़ा हो रही थी,उसे जादूगरनी पर अत्यधिक क्रोध आ रहा था,वो चीं...चीं... करके ये रानी से ये बताना चाह रही थी कि मैं तुम्हारी पुत्री हूँ माँ!!
परन्तु रानी को कुछ समझ नहीं आ रहा था,रानी को लगा कि चीं...चीं...करके ये अपना क्रोध व्यक्त कर रही है।।
रानी कहा! शांत हो जा पुत्री!! बस थोड़ा धैर्य रख मैं सब ठीक कर दूँगी, तुझे भूख लगी होगी और रानी ने वाटिका से एक फल तोड़ा,मैना को देना चाहा,परन्तु छोटे से पिजरें मे समूचा फल नहीं जा सकता था और वो एक जादुई पिंजरा था जिसका किवार भी नहीं खोला जा सकता था,ना उसे सरलता से नष्ट किया जा सकता था।।
रानी ने एक छोटा सा पत्ता अपनी उंगलियों की सहायता से पिजरें में बिछा दिया और अपने मुँख से फल के छोटें छोटे टुकड़े कर पिंजरे के भीतर डालें,जिससे मैना सरलता से खा पा रही थी,मैंना को ऐसे खाते देखकर रानी को अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था,इसके उपरान्त रानी ने एक पुष्प की गहरी सी पंखुडी लेकर उसमे मैना के पीने के लिए जल भर दिया।।
राजकुमारी अपनी माँ के दिए फल को खाकर तृप्त हो गई थी एवं प्रसन्न भी थी कि उसकी माँ उसे खिला रही हैं।।
दोनों माँ और पुत्री, इतने वर्षों के उपरान्त मिली थी परन्तु दोनों के मध्य ठीक से वार्तालाप ही नहीं हो पा रहा था,सूर्यप्रभा का मन कर रहा था कि वो अपनी मां से कहे कि मैं ही तुम्हारी पुत्री हूँ, माँ ये जानकर कितनी प्रसन्न होती है, परन्तु वो विवश थी।।
उधर राजकुमार भालचन्द्र राजकुमारी को छुड़ाने के लिए कई प्रकार की योजनाएं बना रहेंं थें,परन्तु अभी तक कोई भी योजना सफल होती हुई प्रतीत नहीं हो रही थी।
तभी राजदरबार में एक सूचना आई कि राजकुमार भालचन्द्र की बड़ी मां की छोटी बहन पधारीं हैं और उन्हें ज्योतिष विद्या का ज्ञान है, शीघ्र ही राजकमार भालचन्द्र बड़ी माँ के कक्ष में पधारें और सूचना सुनकर राजकुमार भालचन्द्र बड़ी माँ के कक्ष की ओर बढ़ चले।।
बड़ी माँ के कक्ष पहुँचकर भालचन्द्र ने देखा कि वहाँ, पिता महाराज, माँ,बड़ी माँ और बड़ी माँ की छोटी बहन पधारें हैं, राजकुमार भालचन्द्र ने बड़ी माँ की छोटी बहन को प्रणाम किया और पूछा, आप अगर मेरी कुछ सहायता कर सकें तो बहुत कृपा होगी।।
बड़ी मां की छोटी बहन बोली___
अवश्य, हम आपकी सहायता करेंगे राजकुमार! इसलिए तो आपकी बड़ी माँ ने मुझे यहाँ बुलवाया है,मैं अभी अपनी ज्योतिष विद्या से सूर्यप्रभा के विषय मे पता करनें का प्रयास करती हूँ।।
और बड़ी माँ की छोटी बहन ने कहा कि मुझे कुछ वस्तुओं की आवश्यकता है कृपया, आप ब्यवस्था कर दें तो मैं अपना कार्य शीघ्र ही प्रारम्भ कर दूँ।।
राजकुमार भालचन्द्र ने शीघ्र ही सारी ब्यवस्था कर दी,शीघ्र ही बड़ी रानी की छोटी बहन अपना कार्य प्रारम्भ करते हुए बोली___
राजकुमारी को किसी वाटिका में रखा गया है,एवं कोई पुराना सा महल हैं, वहाँ पहले भी कुछ घटित हो चुका है, कदाचित् उस महल पर कोई श्राप है।।
राजकुमार भालचन्द्र बोले___
इतना तो हम सबको भी ज्ञात है, उस रात्रि और भी सबने सुना था कि वो छाया सूर्यप्रभा को पुलस्थ राज्य ले जा रही थी,इसका तात्पर्य है कि वो छाया सूर्यप्रभा के माता- पिता की शत्रु है इसलिए अपना प्रतिशोध लेने के लिए वो सूर्यप्रभा को अपने साथ ले गई, इसमें आपने कोई नई बात नहीं बताई,मुझे आप पर विश्वास नहीं है, हो सकता है आप भी हमारे साथ छल कर रहीं हों।।
बड़ी माँ की छोटी बहन बोली___
आप एकदम सही समझे,राजकुमार भालचन्द्र! मैं ही वो जादूगरनी अम्बालिका हूँ और तुम्हारी बड़ी माँ ही मेरी बड़ी बहन है,हम दोनों बहनें तुम्हारे परिवार से प्रतिशोध लेना चाहते थे।।
प्रतिशोध! परन्तु कैसा प्रतिशोध, ऐसा क्या किया था मैने, राजकुमार भालचन्द्र ने पूछा।।
तुम्हें ज्ञात नहीं है, तुम्हारे दादा जी ने हमारे पिता की हत्या की थी,हमारे दादा जी बहुत बड़े जादूगर थे,तुम्हारे दादा जी ने उन्हे छल से परास्त किया था,तब हम दोनों बहने छोटी थीं,हमारे पिता और माता तो बचपन में ही चल बसें,हमारे दादाजी ने ही हम दोनों बहनों का लालन पालन किया था,तब मेरी बड़ी बहन अम्बिका ने प्रण लिया था कि वें इसका प्रतिशोध अवश्य लेंगी और उन्होंने नीलगिरी के राजा प्रभातसेन को अपने प्रेम का अभिनय कर उन्हें आकर्षित करके उनसे विवाह कर लिया, परन्तु वो राजा प्रभातसेन को सन्तान ना दे सकीं।।
जब राजा प्रभातसेन ने रानी शीलवती से दूसरा विवाह कर लिया तब उनका मन और भी खिन्न हो उठा,तब उन्होंने सोचा कि जब राजकुमार नवयुवक हो जाएगा, तब वो इसका प्रतिशोध लेगी और मेरी बड़ी बहन अम्बिका ने ही मुझे सूर्यप्रभा के विषय में सूचना दी,तब मुझे ज्ञात हुआ कि ये तो मेरे शत्रु की ही पुत्री है,इसलिए हम दोनों बहनों ने ये योजना बनाई।।
राजकुमार ये सुनकर क्रोधित होकर बोला____
अब तुम दोनों जीवित नहीं बचोगी।।
और उसी क्षण अम्बालिका ने राजा और रानी को कांच के पुतलों मे परिवर्तित करते हुए बोली,राजकुमार! तुम ने हम दोनों बहनों को कोई भी हानि पहुंचाने का प्रयास किया तो,तुम्हारे माता पिता के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे, ये रहेंं तुम्हारे माता पिता,हम इन्हें यहीं छोड़कर जा रहे हैं एवं राजकुमारी सूर्यप्रभा को जीवित देखना चाहते हो तो उसके प्राणों की रक्षा करने शीशमहल आ जाना और इतना कहते ही दोनों बहनें जादू के माध्यम से वायु के साथ बह गईं।।
अब राजकुमार अपने माता पिता के कांच के पुतलों को देखकर बहुत दुखी हुआ और उसने शीघ्र ही ये सारी सूचना राजदरबार को दी और अपने सेनापति से बोले कि फूलझर वन से शीघ्रता से वैद्यनाथ बाबा और सुभागी माँ को सुरक्षित लेकर आइए,उनसे पुलस्थ राज्य के विषय मे जानकारी लेनी है, तब तक मैं यहाँ माँ पिता जी की सुरक्षा हेतु कुछ प्रबन्ध करता हूँ____
और ऐसा ही किया गया___

क्रमशः___
सरोज वर्मा...