भाग - 4
गुरु भैरवानंद ने हर्षराय को विस्तार से साधना प्रक्रियासमझा दिया । एक विशेष मंत्र भी दिया जिसका जप हर्षराय को प्रतिदिन एक हजार बार करना होगा । गुरुदेव के नाम से संकल्प लेकर हर्षराय की साधना शुरू हुई । भोर होते ही गुरु भैरवानंद साधना की लकीर व साधना स्थल से चले गए । गुरुदेव के जाने से पहले हर्षराय ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । गुरु भैरवानंद ने आशीर्वाद देकर फिर से सावधान वाणी को बताया ।
सूर्य की किरणों से शिप्रा की जल रक्तिम आभा से भर गई है । उगते सूर्य को देखते हुए हर्षराय को ऐसा लगा मानो यह उनके नए जीवन का सवेरा है । पूरा दिन उन्हें कुछ भी नहीं करना है । साधना स्थल शिप्रा नदी के बिल्कुल किनारे है इसीलिए बहते धारा को देखते हुए समय बिताया जा सकता है । ऐसा एकांत जीवन हर्षराय ने इससे पहले कभी नहीं बिताया । राजनीति , कूटनीति , प्रजा , शक्ति समृद्धि के अलावा भी बहुत कुछ है । हम क्या अपना जीवन सही से जीते हैं या नियम से यापन ही करते रहते हैं ? ऐसे कई अद्भुत प्रश्न आज हर्षराय के मन में दौड़ रहा है । हर्षराय अपने मन में आने वाले इन प्रश्नों से खुद ही आश्चर्य हो गए ।
शिप्रा नदी की धारा , उस पार की जलती चिता , जंगल दृश्य को देखते हुए दोपहर बीत चुका है । साधना की लकीर के अंदर एक छोटा सा कुटी बना हुआ है वहाँ पर खाने का सामान और लगभग 25 घड़ा पानी रखा हुआ है । पास ही खाना पकाने के लिए बहुत सारी सुखी लकड़ियां भी हैं । गुरुदेव की व्यवस्था एकदम उत्तम प्रकार की है । उन्होंने लकीर के अंदर एक छोटा गड्ढा भी खोद रखा है तथा उसको एक नाले के द्वारा शिप्रा की पानी से मिला दिया है । ज्वार की वजह से प्रतिदिन यह गड्ढा भर जाएगा । उसी गड्ढे के पानी से नहाने के बाद अपने द्वारा पकाए सादे भोजन को समाप्त कर हर्षराय ने थोड़ी देर विश्राम किया । आज सूर्यास्त होते ही उनकी साधना प्रारंभ हो जाएगी जो अगले दिन सूर्योदय तक चलता रहेगा ।
पूरी तरह नियम अनुसार दिन पर दिन बीत रहा है । अब केवल कुछ ही दिन बाकी है उसके बाद ही हर्षराय की साधना पूर्ण हो जाएगा । लेकिन कम खाने और कठिन साधना की वजह से उनके बलिष्ट शरीर पर इसका प्रभाव दिख रहा है । कई दिन के एकांत ने भी उनके मन को अशांत कर दिया है । आज सुबह से ही उनका मन अस्थिर है । स्नान समाप्त कर जब वो खाना पकाने के लिए गए तो देखा कहीं पर भी एक अनाज का दाना नहीं है । लेकिन कल तक खाने के लिए पर्याप्त अनाज था पर आज कैसे ? फिर घड़े से पानी निकालते वक्त दूसरी बार के लिए हर्षराय आश्चर्य हुए । यह क्या घड़ा भी खाली है ।
गड्ढे का पानी पी नहीं सकते इसीलिए पहले से ही फिटकरी व कपूर वाला पानी पीने के लिए रखा हुआ था । अब क्या उपाय ? हर्षराय को गुरुदेव की सावधान वाणी याद आई । उन्होंने पहले ही बताया था कि साधना समाप्ति की तरफ बढ़ते वक्त बहुत सारी अलौकिक घटनाएं हो सकती है । क्योंकि कर्णपिशाचिनी के दर्शन से पहले बहुत सारे प्रेत साधना स्थल की तरफ आकर्षित हो जाते हैं । तथा वो सभी प्रेत हर्षराय को अपने साधन मार्ग से भटकाने की कोशिश करेंगे । इसीलिए दिमाग और मन दोनों शांत रखना होगा । हर्षराय खाली पेट ही कुछ देर के लिए सो गए । साधना समाप्ति के आने वाले ये तीन दिन बहुत ही मूल्यवान है ।
उस वक्त रात का तीसरा पहर था । हर्षराय अपने मंत्रजाप में लीन थे । उनके सामने धूनी जल रहा है तथा पास ही बहुत सारे साधना की सामाग्री है जैसे सुरापात्र , लाल चंदन , विभूति , सुपाड़ी , एक नरमुंड इत्यादि ।
अचानक हर्षराय ने देखा कि नरमुंड हिल रहा है । पहले उन्होंने उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन कुछ देर में उन्हें होश आया जब उस नरमुंड ने जीवित होकर बोला,
" तू मरेगा । बहुत बड़ी गलती कर रहा है तू भाग जा यहां से । "
लेकिन हर्षराय द्वारा उसपर विभूति डालते ही वह पूरी तरह शांत हो गया । कुछ दिन और कोई अलौकिक घटना नहीं हुई । लेकिन अगले दिन उनके लिए क्या प्रतीक्षा कर रहा था ? हर्षराय ने कभी कल्पना भी नहीं किया होगा ।
भूख और प्यास से उनका शरीर और भी टूट गया है । सोकर उठते ही हर्षराय गड्ढे की तरफ भागे क्योंकि जैसे भी हो थोड़ा पानी उन्हें चाहिए । लेकिन आश्चर्य की बात वह गड्ढा कहाँ है ? रातों-रात उस गड्ढे को किसी ने मिट्टी से भर दिया । हर्षराय समझ गए कि उनकी साधना को भंग करने के लिए ही यह सब हो रहा है । सामने ही शिप्रा की पवित्र जल का भंडार है लेकिन उसके किनारे बैठे प्यासे हर्षराय केवल इस जल को निहार ही सकते हैं ।
साधना में आज उनका मन नहीं लग रहा । रात शायद आधी है शिप्रा के उस पार एक चिता जल रहा है । कुछ सियार अपने हुऊऊऊ में व्यस्त हैं । अचानक एक हवा के झोंके से यज्ञ कुंड का आग बुझ गया । मंत्र पढ़ते हुए पुनः हर्षराय आग जलाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन आग नहीं जल रहा । अब चांद की रोशनी से ही काम चलाना होगा । उसी हल्के रोशनी में हर्षराय ने देखा एक धुएँ की कुंडली नदी के उस पार से इधर ही आ रहा है । फिर धीरे धीरे एक रूप स्पष्ट होने लगा । गांव की एक महिला और उसके हाथों में स्वादिष्ट भोजन । उस स्वादिष्ट भोजन की खुशबू चारों तरफ फैल गया है । उस महिला ने हर्षराय के सामने थाली को रख खाने के लिए अनुरोध किया । हर्षराय जानते हैं कि यह मायाजाल है । इतनी रात को इस वीरान व दुर्गम जंगल में कोई अकेली महिला कभी नहीं आएगी । लेकिन दो दिन से भूखे हर्षराय अपने आप को रोक नहीं पा रहे थे । इसीलिए उन्होंने आँख बंद कर और भी ध्यान से मंत्र पाठ करते रहे । अचानक उन्होंने अपने पीठ पर महिला के स्पर्श को अनुभव किया । विभिन्न क्रिया से वह महिला हर्षराय का ध्यान साधना से हटाना चाहती है । हर्षराय ने यज्ञ कुंड के पास से थोड़ा सा विभूति लेकर उस महिला पर फेंक दिया ।
तुरंत ही चिल्लाने की आवाज आई और वह महिला एक सड़े हुए शव में परिवर्तित हो गई । बहुत ही भयानक रूप शरीर की जगह मानो सड़े मांस के लोथड़ो द्वारा एक आकृति बनाई गई है । उसने अपने दोनों हाथ फैलाकर हर्षराय पर आक्रमण करना चाहा । हर्षराय ने देखा अब उनके चारों तरफ और भी सड़े हुए शव खड़े हैं ।
हर्षराय ने ध्यान लगाकर गुरुदेव को शरण किया और फिर एक मुट्ठी भस्म उन जीवित सड़े लाशों की तरफ फेंक दिया । तुरंत ही सभी गायब हो गए । यह देख हर्षराय थोड़ा निश्चिन्त हुए । कल रात बीतते ही उनकी साधना पूर्ण हो जाएगी । वो कर्णपिशाचिनी को अपने वश में कर लेंगे । यही तो उन्हें चाहिए ।
उधर सूर्य की लाल किरणों से चारों तरफ जगमगा उठा है । अब केवल एक और दिन बीतने का इंतजार है । लेकिन साधना लाभ के साथ कुछ अनजाने मुसीबत भी उन पर आने वाले हैं इस बारे में हर्षराय उस वक्त नहीं जानते थे ।
हर्षराय को आज आंख खोलने में बहुत देर हो गई । लगभग दो दिन उन्होंने कुछ भी खाया - पीया नहीं है । उनका शरीर अब और साथ नहीं दे रहा । किसी तरह मन की शक्ति से उन्होंने अपने शरीर को खड़ा किया । कुटी से बाहर निकलकर उन्होंने देखा कि आसमान में सूर्य दोपहर को दर्शा रहा है । फिर एक बार कुछ हाथ नहीं लगेगा यह जानकर भी उन्होंने अनाज व पानी के घड़े में झाँक कर देखा । नहीं सब कुछ खाली है । स्नान करने वाला गड्ढा भी अपने अस्तित्व को खो चुका है । नियमानुसार लकीर के एक तरफ मल - मूत्र करना पड़ रहा है । अब वहाँ से भी ऐसा दुर्गंध आ रहा है कि मानो अभी उल्टी हो जाएगा ।
सब कुछ मिलाकर हर्षराय के लिए एक बहुत ही विकट अवस्था है । कुछ देर के लिए उन्हें ऐसा लगा कि राजपाट , शक्ति सब कुछ चला जाए उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए केवल सामने कलकल करती शिप्रा की पानी मिल जाए । और फिर कुछ देर बाद ही उन्हें अपने दुर्बलता पर धिक्कार होने लगा । आज ही तो उन्हें शक्ति प्राप्त हो जाएगा ।
यही सोचते हुए हर्षराय आज की साधना व्यवस्था में जुट गए । आज एक जीव की राख उन्हें चाहिए क्योंकि गुरुदेव ने ऐसा ही बोला था । अगर उन्हें लकी से बाहर जाने का मौका मिलता तो तुरंत ही कुछ न कुछ शिकार कर लेते लेकिन अब क्या किया जाए । हाथ में कुछ पत्थर उठाकर हर्षराय आसमान की तरफ किसी पक्षी की अपेक्षा में बैठे रहे । अगर कोई पक्षी उड़ता हुआ पास आया तो उसका ही शिकार करेंगे । लेकिन ऐसा नहीं हुआ ऊपर से जलती धूप ने अब हर्षराय के अंदर बचे जीवन शक्ति भी मानो चूसने लगा था । हर्षराय अपने सूखे जीभ द्वारा उससे भी ज्यादा सूखे होंठ को चाटकर गीला करने की असफल चेष्टा करते रहे । हे भगवान ! क्या उनका साधना पूर्ण नहीं होगा । हर्षराय ने देवी गुह्यकाली को मन ही मन नमन किया और अपने मन के व्यथा को उजागर किया । अचानक उनके पीछे ही जमीन पर कुछ गिरने व छटपटाने की आवाज आई । हर्षराय ने पीछे मुड़कर देखो तो वहाँ एक कौवा जमीन पर छटपटाते हुए मर गया । वह कौवा इस वक्त यहां पर कैसे गिरा और क्यों मर गया ? ये सब सोचने का वक्त अब हर्षराय के पास नहीं है । वो जानते हैं कि उनकी पूज्य देवी माता उनके साथ ही हैं ।
विधि अनुसार उस कौवे को जलाकर उसके राख में अपनी उंगली से कुछ बूंद खून मिलाकर हर्षराय ने अपने माथे पर बड़ा सा एक तिलक लगाया । इसके बाद साधना में बैठ गए । वो जानते हैं कि आज साधना में बहुत सारी बाधाएं आ सकती है इसीलिए मन ही मन खुद को तैयार कर लिया ।
रात जितना बीत रहा है हर्षराय के मन में एक घुटन जैसा महसूस हो रहा है । उनके सभी इंद्रियों की क्षमता दोगुना हो गया है । लकीर के बारह जंगल में कई जोड़े ज्वलंत आंख हर्षराय को ही घूर रहे हैं । जंगल के शांत अंधेरे को शायद आज आवाज मिल गया है इसीलिए कई प्रकार के डरावने आवाज भी सुनाई दे रहे हैं । मानो हजारों भूत - प्रेत लकीर के बाहर अपनी जन्मों की भूख के साथ खड़े हैं । एक छोटी सी गलती और हर्षराय का खेल समाप्त ।
मन्त्र जप समाप्त कर हर्षराय ने कर्णपिशाचिनी का आह्वान शुरू कर दिया ।
अचानक एक फिसफिस की आवाज ने उनके कान के पास कुछ कह गया । हर्षराय को कुछ भी समझ नहीं आया केवल इतना जान गए कि उनके अलावा भी यहां पर कोई उपस्थित है । केवल वह कौन है नग्न आँखों से नहीं दिखाई दे रहा । धीरे - धीरे हवा की गति बढ़ने लगी और लकीर के बाहर के पेड़ आपस में टकराने लगे । प्रकृति मानो हाहाकार कर रहा है इसके साथ ही एक अनजाना सुगंध भी चारों तरफ फैल गया ।
उस सुगंध ने हर्षराय को मानो अपने अंदर समा लिया है ।
हर्षराय के सामने जलता आग अचानक बुझ गया । चारों तरफ अंधेरा लेकिन उसी में उन्होंने एक धुएँ का अवयव देखा । अचानक उस धुएँ ने एक नारी का रूप ले लिया ।
हर्षराय हाथ जोड़कर बोले ,
" आप आ गई देवी , क्या आप मुझ पर प्रसन्न हुई ? "
" हाँ मैं ही कर्णपिशाचिनी हूं । मैं तुम्हारे साधना से प्रसन्न हुई हूं लेकिन तुम्हारे मनवांछित फल को पूर्ण करने से पहले मुझे भोग चाहिए । मुझे भूख लगी है । "
हर्षराय इसी दिन के भोग के लिए अपने पास रखें फलों की थाली को कर्णपिशाचिनी की तरफ आगे बढ़ा दिया ।
कर्णपिशाचिनी यह देख गुस्से में बोली ,
" मुर्ख साधक कर्णपिशाचिनी को क्या भोग दिया जाता है तुझे नहीं पता । "
अचानक ही कर्णपिशाचिनी का सुंदर रूप बदल गया । उसके बाल हवा में उड़ने लगे और चेहरे की चमड़ी जलने लगी । होठ के पास दो बड़े दाँत भी दिखाई देने लगे । भयानक आवाज में वह बोली ,
" मांस चाहिए मुझे , नरमांस चाहिए । मुझे भूख लगी है । अगर मेरी भूख शांत नहीं कर पाए तो मैं तुम्हें मार डालूंगी । "
हर्षराय का सिर चकरा गया । इस वक्त यहां नरमांस उन्हें कहाँ से मिलेगा । तो क्या यह साधना व्यर्थ हुआ ? क्या यही होना था अंत में उनके साथ कि कर्णपिशाचिनी के हाथों मृत्यु ? बचने का क्या उपाय है ? आखिर हर्षराय अब क्या करेंगे ?....
अगला भाग क्रमशः
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