• 1. (ईश्वर का सम्बोधन) मैं ईश्वर हूँ, में कभी कुछ नही कहता किसी से नहीं कहता बस सुनता हूँ क्योंकि मैं ईश्वर हूँ। मेरा कोई धर्म नहीं न ही कोई जाति, और न कोई देश है, न तो में नर हूँ, न नारी और न ही पशु। न तो मेरे विचार हैं और न ही कोई सोच, न धरती, न जल, न वायू, न अग्नि, न आकाश क्योंकि में निर्विकार हूँ।
मैं न राम, न रहीम, न ईश हूँ और न ही वाहेगुरु, मैं तो बस ईश्वर हूँ। तुम्हारी नज़रों में सब कुछ पर मेरी नज़र मैं- मै कुछ भी नहीं। इस संसार मे ब्रह्माण्ड के निर्माण से अंत तक सिर्फ में ही हूँ। सृष्टि की उत्पत्ति से आज तक सभी ने मुझे अपने-अपने हिसाब से सोचा, माना और पूजा है, पर आज तक सिर्फ माना है जाना नहीं या शायद जानना चाहा ही नहीं। क्यों कि तुम खुद को भी तो मानते ही हो जानते कहाँ हो। तुम कहते हो कि मैने तुम्हें इस तरह से जकड़ रखा है कि तुम कभी खुद को जान नही पाए, तुम तुम्हारे अज्ञान का दोष मुझे देते हो और मानते हो कि तुम मुझे जानते हो पर जब तुम खुद तुम्हे नहीं जानते तो मुझे कैसे जानोगे।
आज मैं तुम्हें तुमसे मिलवाना चाहता हूँ या यूँ कहो की ईश्वर से मुझसे मिलवाना चाहता हूँ। तुम्हें लगा में तुम्हारी सोच में हूँ, पर वो में नहीं हूँ, तुम्हारी आस्था, पूजा, प्रार्थना मैं में हूं पर वो में नहीं हूँ। मैं तो कहीं नही हूँ। न में जीवित हूँ, न मृत हूँ, न मेरा कोई भूत, न भविष्य और न ही वर्तमान ही है। न मेरा जन्म हुआ और न ही कभी मेरी मृत्यु संभव है, मैं अजन्मा ,अमिट, अकथनीय एवं अनंत हूँ। मेरी न तो आत्मा है और न ही मेरा शरीर है पर फिर भी मैं हूँ। जहाँ-जहाँ तुम हो वहाँ मैं हूँ और जहाँ तुम नहीं हो वहाँ में अवश्य रूप में हूँ।
तो आओ मेरे साथ हम आज से एक यात्रा की शुरुआत करते हैं यात्रा अन्तः मन की, यात्रा तुम्हारी आत्मा की, यात्रा तुम्हारे होने की- मिट जाने की और यात्रा मेरे वास्तविक सत्य की, मेरे अस्तित्व की। इस यात्रा में हम उस सत्य को जानेंगे जो मेरे प्रारब्ध का सत्य है, जो मेरे अनंत में होने का सत्य है और जो मेरे तुममें होने का सत्य है।
हम इस यात्रा में ये समझने की कोशिश करेंगे कि अगर में कुछ नही तो लोग मुझे मानते क्यों हैं, मुझे पूजते क्यों है, सबकी ये जो आस्था मुझ पर है वो क्या है। और अगर में हूँ तो दिखता क्यों नहीं, बोलता क्यों नहीं, क्यों तुम्हारे सवालों तुम्हारी प्रथनाओं के उत्तर में प्रत्यक्ष तुम्हे आशिर्वाद नही देता क्यों में तुम्हे देखते हुए भी गलत काम करने देता हूँ, क्यों तुम्हे गलत करने से नही रोकता और आखिर कुछ गलत है तो मैने वो गलत बनाया हो क्यों।
आओ जानते हैं और समझते हैं मेरे द्वारा की कोन हूँ में? अपनी इस यात्रा के अंत मे हम अपने वास्तविक सत्य को जानेंगें की को हो तुम को हूँ में, तो चलो शुरूवात करतें हैं इस यात्रा की मेरे साथ, मैं कौन हूँ? तुम भुल गए, मैं ईश्वर हूँ।
"शून्य काल"
काला घना अँधेरा है सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा चारों औऱ व्याप्त अंधकार , रोशनी की एक किरण तो दूर, एक बिंदू मात्र भी नही है। जो भी है बस यही चारों और फैला अँधेरा, इस समय-समय भी नहीं है, न तो आकाश है, न धरती, न अन्य कोई ग्रह ही है, न तो जल है, और न ही हवा भी है। दिशाओं के होने का कोई भान नही होता, ये कैसी जगह है यहां दिशायें भी नहीं हैं, न पूर्व, न पश्चिम, न उत्तर और न दक्षिण ही है।
कहते हैं जहां इन सभी में से कुछ नहीं होता वहाँ सिर्फ एक चीज रह जाती है वो है शून्य,
पर क्या इसे शून्य कहना सही होगा?
तो क्या कहें, शून्य के अतिरिक्त कोई और शब्द, कोई और नाम याद भी तो नही आता जो इस समय इस अवस्था को सनाम कर सके।
तो इस समय जहां समय भी नहीं है इस शून्य काल में कुछ और चाहे न हो पर यहां में हुँ, में जिसे अपने होने का आभास और अहसास दोनों ही नहीं है पर फिर भी में हूँ।
मेरा अवचेतन मन अभी है, मेरे खुद के अहसास के बिना, मैं देख सकता हूँ मेरे चारों और फैले इस निरीह अंधकार को, आँखों के बिना भी देख सकता हूँ। मेरा कोई अंग भी तो नही है अभी, में तो एक पानी बूंद के समान आकार का हूँ, नहीं में किसी चावल के दाने के समान हूँ, नहीं-नहीं में एक अपरिपक्व भ्रुण हूँ।
में अभी निराकार हूँ ऐसा लगता है जैसे में स्वयं एक अवचेतन मन हूँ और शून्यकाल रूपी ब्रह्माण्ड मैं घुम रहा हूँ।
में शांत हूँ, क्योंकि सब कुछ शांत है और मुझे ये शांतिमय अँधकार भयाबह नही लग रहा। में एक यात्रा पर हूँ एक ऐसी यात्रा जिसके बारे में मुझे केवल इतना पता हैं कि ये एक यात्रा है।
न तो में कुछ बोल रहा हूँ और न ही कुछ सुन रहा हूँ, पर मुझे जैसे किसी का इन्जार है, शायद खुद की ही। में खुद को महसूस करना चाहता हूँ मैं खुद को खुद का अहसास देना चाहता हूँ, खुद को सुनना और खुद को सुनाना चाहता हूँ। क्योंकि इस समूचे शून्यकाल मैं सिर्फ में हूँ हाँ सिर्फ में ही तो हूँ।
अभी कुछ समय पहले ही तो में ईश्वर की बातों को सुन रहा था, ईश्वर मुझसे बहुत कुछ कह रहा था और में तब उसे सुन पा रहा था, पर अब पता नहीं क्यों में कुछ भी नही सुन पा रहा।
तब मेरे हाँथ, मेरे पैर, मेरा संपूर्ण शरीर था , पर अब - अब तो कुछ भी नहीं, तो ये गया कहाँ मुझे हुआ क्या?
हाँ याद आया ईश्वर ने किसी यात्रा के बारे में कहा था, उसने कहा था कि हम एक यात्रा पर चलते हैं, जहां हम स्वयँ को जानेंगे,
पर कैसे ? यहां तो में अपना अहसास तक भूल गया, मुझे मेरे नाम, मेरा लिंग, मेरी जाति कुछ भी याद नही।
जब इस यात्रा की शुरुआत में ही में अपने अस्तित्व को भूल गया, जो में जानता था स्वयँ के बारे में वो भी भूल गया तो समझ नही आ रहा है, ईश्वर कहता है ये यात्रा स्वयं को जानने की यात्रा है पर मुझे लगता है ये यात्रा स्वयं को भुलाने की यात्रा है।
लेखक
सतीश ठाकुर