Shoe mythology in Hindi Comedy stories by Alok Mishra books and stories PDF | जूता पुराण 

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जूता पुराण 

जूता पुराण
आज खबरों में रोज ही जूतों की महिमा का गुणगान हो रहा है । जहाॅ देखिए वहीं निर्भीक भाव से जूते चलाए जा रहे है । जूते खाने वाले अक्सर ही ऐसे लोग होते है जो जहाॅं है वहाॅं तक पहुॅंचने के लिए उन्होनें कई जोड़ी चप्पलें घिसी है । उन्होनें जनता की चरण पादुकाएॅं भी देखी है । उन्होनें अनेकों बार जूते चुराए भी है। देखा जाए तो जूतों का उनके जीवन में महत्वपूर्ण योगदान है। मारने वाले अभी अभी जूते चुराना सीख रहे है । जूते हमारे समाज का अभिन्न अंग हो गए है । कुछ अधिकारी तो अपने कक्ष में किसी को जूते पहन कर आने भी नहीं देते । इस तरह वे जूते खाने से बचे रह पाते है । कुछ अधिकारी तो बड़ों के जूते साफ करते है और साथ ही साथ जनता का माल भी । इन नेताओं को बहुत परेशानी होती है क्योंकि इनके लिए तो भीड़ होना जरुरी है । इसी भीड़ के साथ ही नेताओं के आस-पास जूतों की भरमार हो जाती है । फिर न जाने कहां से कोई जूता नेता जी की तरफ लपकता है । नेता जी दाहिने बाएॅं हो कर बचने का प्रयास करते है । कभी-कभी बच भी जाते है । अक्सर तो जूता निशाने पर ही लगता है । इसके बाद नेता जी के चमचे पूरी चमचागिरी का प्रदर्शन करते हुए निशानेबाज की जूते और चप्पलों से जम कर धुनाई करते है। इस पूरे हादसे से जूते की कीमत याने 999रुपये 99पैसे की ही तरह नेता जी की औकात केवल एक पैसे ही कम होती है परन्तु चैेनलों की ब्रेकिंग न्यूज इस की भी भरपाई कर देती है । हमारे समाज में जूते चप्पल चलाना नेताओं के अनुसार बम चलाने से भी बड़ी हिंसा है । ये अहिंसावादी लोग जूते चलाने वाले की जो खातिरदारी करते है , शायद उसे उनके समाज में अहिंसा ही कहते होंगे ।
पैरों में जूते रोब और शान शौकत का प्रतीक है । पड़ते हुए जूते अपमान और क्रोध का प्रतीक है । जूते मारने वालों के बारे में यदि ध्यान से सोचें तो ये दो प्रकार के हो सकते है , पहले संगठित व्यवसायिक जूते बाज ; दूसरे असंगठित सामान्य जूतेबाज । पहले प्रकार के जूतेबाज कुछ पैसे,शोहरत और अन्य लाभों के लिए ईमान को ताक पर रख कर किसी पर भी जूते चला सकते है। जब किसी परम आदरणीय और अच्छे व्यक्ति को जूतेबाजी झेलनी पड़े तो इन पहले प्रकार के लोग ही निशानेबाज होते है । दूसरे प्रकार के जूतेबाज वे सामान्य नागरिक है जिन्हे बिना जूते के कोई सुनने को तैयार ही नहीं है । वे अब जूतों की भाषा में समाज से अपनी बात कहना चाहते है परन्तु अभी इन की संख्या बहुत कम है । शायद वह समय भी हम देख पाए जब जूता चोर मंत्रियों का सरेआम लोग जूतों से स्वागत करें या उन्हें जूतों से तौला जाए । समाज में सब के हाथ में जूते आ जाए इसके पहले आम आदमी की बात सुनने की आदत समाज के कर्णधार समझे जाने वाले नेताओं और अधिकारीयों को डाल लेनी चाहिए ।
जूता वास्तव में प्रतीक है बदलाव का ,जूता प्रतीक है दबी आवाजों का और जूता प्रतीक है ‘‘भाड़ में जाओ’’ जैसे उच्चारणों का। जूता ,जूता ही रहे कहीं बम न बन जाए इस ओर ध्यान देना भी आवश्यक है । यदि आज जूते खाकर मुस्कुराते लोग इसे छोटी सी बात समझ कर विरोधियों की चाल बताते है तो निश्चित रुप से वे आने वाले तूफान की ओर से पीठ फेरे बैठे है । बदलाव के लिए जनता अंदर ही अंदर खौल रही है । जनता को केवल वे लोग चाहिए जो उसकी बात ईमानदारी से सुने ; ऐसे लोग नहीं जो भीड़ के हाथों में जूते देख कर बात करें ।
जूतमपैजर के इस दौर मे याद आती है हमारे देश में बदलाव करने वालों की जिन्होंने हर बार व्यवस्था के मुॅंह पर अपने अपने तरीकोें से जूते चलाए है । उन्हीं के प्रयासों से आज हम नवीन बदलाव की ओर बढ़ रहे है । मुझे लगता है कि जूता पुराण के रुप में एक जूता अहिंसक तरीके से चला है ; देखें किसके सिर पर लगता है ।
जूते चुरा , जूते पोछ के बन गए नेता और अधिकारी ।
निशाने पर लग रहे जूते ; अब आई है जनता की बारी ।।
आलोक मिश्रा