Tridha - 1 in Hindi Fiction Stories by आयुषी सिंह books and stories PDF | त्रिधा - 1

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त्रिधा - 1

मेरी प्यारी त्रिधा,
कैसी हो ? उम्मीद है पहले से बेहतर होगी। समझ नहीं आ रहा इतने सालों बाद क्या बोलूं, क्या लिखूं, क्या पूछूं...... तुम्हारा फोन नंबर, ईमेल, सोशल मीडिया अकाउंट सब बन्द हैं , आठ साल हो गए त्रिधा....... कब तक भागती रहोगी अपने ही लोगों से ? अगले हफ़्ते तुम्हारे प्रभात की शादी की पांचवी सालगिरह है। शादी में तो नहीं आईं त्रिधा अब तो आ जाओ , तुम ही तो कहती थी न कि प्रभात मैं कभी तुमसे मुंह नहीं मोडूंगी, तुम्हारे बच्चों के साथ मिलकर तुम्हें तंग किया करूंगी तो अब क्यों मुझे भुला दिया त्रिधा? अब आ जाओ न त्रिधा मुझे परेशान करने, अपनी नन्ही त्रिधा से मिलने...... हां! त्रिधा नाम रखा है अपनी बिटिया का , तुम्हारी यादों को ये त्रिधा कभी धूमिल नहीं होने देती, बिल्कुल तुम्हारी ही तरह नटखट, गुस्सैल, अकडू और बहुत खूबसूरत है, लगता है जैसे मेरी त्रिधा ही मेरे सामने हो।
बस अब लौट आओ त्रिधा , पुराना सब भूलकर लौट आओ न.......

तुम्हारा प्रभात।


चिट्ठी पढ़ कर त्रिधा की आंखों के सामने वो सारे पल घूमने लगे जिनसे वो अब तक भागती रही थी।

**********

कटनी की रहने वाली थी त्रिधा शर्मा। बिल्कुल किसी परी जैसी खूबसूरत, एक बड़ा सा पुश्तैनी मकान, गाड़ी, नौकर, सब कुछ था त्रिधा के पास। वह जब जिस चीज पर हाथ रखती वो चीज उसकी हो जाती। वह त्रिधा का सातवां जन्मदिन था, उस दिन उसके मम्मी पापा उसके जन्मदिन की तैयारी में, उसके मनचाहे गिफ्ट्स लाने के लिए बाज़ार गए तो दोबारा लौट कर ही नहीं आए...... एक सड़क दुर्घटना में दोनों चल बसे। जैसे ही अपने भैया भाभी की मौत की खबर सुनी , त्रिधा के चाची चाचा तुरन्त आए और त्रिधा को संभाला, सिर्फ तब तक जब तक यह न याद आया कि वसीयत के हिसाब से पुश्तैनी मकान पर बड़े भाई के बाद छोटे भाई का हक है और उसी दिन से शुरू हो गया त्रिधा के साथ अन्याय। बात बात पर चाचा का त्रिधा से कहना "अपने मां बाप को तो खा गई , अब हमारा पीछा जाने कब छोड़ेगी, समाज न होता तो एक पल भी इसे यहां ठहरने नहीं देता" यह सुनकर त्रिधा चुपचाप आंसू बहा लेती जिन्हें पोंछने वाला कोई न होता था। त्रिधा की चाची ने घर का सारा काम उसके जिम्मे कर दिया था और अपने बच्चों के साथ सारा दिन आराम करती, घूमती फिरती और त्रिधा दिन भर काम में लगी रहती। कभी गलती से भी त्रिधा से कोई गलती हो जाती तो चाची उस पर हाथ उठा देती यहां तक कि त्रिधा की दोनों छोटी बहनें भी... लेकिन सबसे छोटा भाई विशाल चुप रहता और कभी त्रिधा का अपमान नहीं करता, बल्कि वह तो अपने हिस्से के खाने - खेलने के सामान भी अक्सर त्रिधा को दे दिया करता था और यदि पकड़ा जाता तो उसकी मां उसे भी बहुत मारती थी। यह तो लोक लाज ही थी जो त्रिधा उनके घर में रह रही थी और लोक लाज के कारण ही त्रिधा का स्कूल नहीं छुड़वाया गया था लेकिन अब त्रिधा शहर के सबसे अच्छे स्कूल से सबसे कम फीस के स्कूल में पहुंच चुकी थी, अब वह घर और स्कूल दोनों सम्भाल रही थी।

दस साल हो गए थे त्रिधा को सब सहते हुए और फिर एक दिन उसकी ज़िन्दगी में भी सवेरा हुआ जब वह बारहवीं कक्षा में थी, उसके स्कूल में रोशनी मैडम अाई। जब उन्हें त्रिधा के बारे में पता चला तो उन्होंने उसकी हर सम्भव मदद की और भावनात्मक रूप से सहारा देने के साथ साथ आगे पढ़ने के लिए कुछ स्कॉलरशिप के फॉर्म्स भी भरवाए, त्रिधा ने भी जी जान से मेहनत की लेकिन काफी दिन बीत गए और उसके एडमिशन की कोई सूचना नहीं मिली। त्रिधा हिम्मत हार चुकी थी लेकिन रोशनी मैडम ने उसपर विश्वास दिखाया और उसकी उम्मीद नहीं टूटने दी। करीब पन्द्रह दिन बाद उसे सूचना मिली कि भोपाल के सबसे अच्छे कॉलेज में उसे स्कॉलरशिप से दाखिला मिल गया था।

त्रिधा ने जैसे ही रोशनी मैडम को इस बारे में बताया वे बहुत खुश हुईं और उससे कहा कि वह जल्द ही भोपाल चली जाए। भोपाल में एडमिशन मिलने से वह अपने चाची - चाचा से दूर रहकर अपनी एक नई ज़िन्दगी शुरू कर पाएगी। त्रिधा नए शहर में अकेले रहने की बात सुनकर बहुत घबरा रही थी लेकिन उसके मन के किसी कोने में एक शांति थी कि कम से कम वह इस नर्क से तो निकलेगी। रोशनी मैडम ने अपने नाम के अनुरूप ही त्रिधा के जीवन में भी रोशनी कर दी थी।

जब त्रिधा ने अपने चाचा चाची को भोपाल जाने के बारे में बताया तो एक बार फिर बहुत हंगामा हुआ आखिर फ़्री की नौकरानी को दोनों कैसे जाने देते। उस दिन त्रिधा की चाची ने उसे बहुत मारा और एक कमरे में बन्द कर दिया ताकि वह भोपाल न जा सके। त्रिधा चुप चाप रोती रही और उसने तय कर लिया कि इस रोज़ रोज़ की बेइज्जती से बेहतर है वह अपनी जान ले ले। उसने एक ब्लेड उठाया और अपने हाथ कि नस काटने ही वाली थी कि तभी उसके कमरे का दरवाजा खुला। त्रिधा ने देखा सामने विशाल खड़ा हुआ था।

"त्रिधा दी आप ठीक तो हैं न ?" विशाल ने त्रिधा को गले लगाकर पूछा। सालों बाद किसी ने उससे इतना अपनापन दिखाया था, इतना स्नेह देखकर त्रिधा विशाल के गले लगी रही और बहुत देर तक चुपचाप रोती रही। विशाल ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप होने को कहा और उसके आंसू पोंछते हुए कहा "माफ कर दीजिए त्रिधा दी मैं आपके लिए कभी नहीं बोल पाया, इतने सालों से सब देखता आ रहा हूं मेरे मां बाप और बहनों ने आपके साथ कितना अन्याय किया है पर मैं आपके लिए कभी कुछ नही कर पाया पर दी आज आपका ये छोटा भाई समझदार हो गया है, दी आप भाग जाइए यहां से , इस घर से , इस नर्क से चली जाईए दी.... दी आप भोपाल चली जाईए और फिर तभी आइएगा जब आप खुद को मजबूत बना लें "

विशाल की बातों ने त्रिधा को बहुत हिम्मत दी और जीने की एक नई उम्मीद भी।

"लेकिन विशाल मैं यहां से जाऊं कैसे? कहां जाऊंगी इस वक़्त? और मेरे पास तो इतने भी पैसे नहीं है जो मैं भोपाल तो क्या किसी ऑटो तक का किराया दे पाऊं " त्रिधा ने उदास होकर कहा।

"दी अभी आपका भाई है न! आपने एक बार रोशनी मैडम के बारे में मुझे बताया था न आप वहीं जाईए वो आपकी मदद ज़रूर करेंगी। यह लीजिए और अब देर मत कीजिए दी" कहते हुए विशाल ने त्रिधा के हाथ में पांच सौ व हजार रुपए के कुछ नोट पकड़ा दिए।

"पर विशाल ये सब मेरा नहीं है और मैं.... " त्रिधा भावुक थी।

"पर वर कुछ नहीं त्रिधा दी, यह सब आपका ही है जो आपको कभी नहीं मिला अब जल्दी जाईए दी " विशाल ने कहा। यह सुनकर त्रिधा ने फटाफट सारा सामान अपने बैग में रखा और चुपचाप विशाल के साथ घर से बाहर निकल अाई।
जब त्रिधा जाने लगी तो पीछे से विशाल ने रुआंसा होकर कहा "दी हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा मैं आपके लिए कभी कुछ नहीं कर पाया लेकिन दी अपने भाई को कभी मत भूलिएगा"

यह सुनकर त्रिधा एक बार फिर विशाल के गले लग गई और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा "मुझे तो पता ही नहीं चला कब मेरा छोटा सा भाई इतना समझदार हो गया। मुझे तो कभी तुम्हें राखी बांधने का हक भी नहीं दिया गया पर तुमने अपने भाई होने का फ़र्ज़ बखूबी निभाया है विशाल, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं मेरे पास जो मैं तुम्हे दे पाऊं, यह पेन मेरे लिए अनमोल है क्योंकि यह मेरे पापा का पेन है, आज तुम्हें दे रही हूं विशाल, अपनी इस दी का आशीर्वाद समझ कर रख लो" त्रिधा ने अपने बैग से एक पैन निकाल कर विशाल को दिया और चल दी हमेशा के लिए सबसे दूर।

रोशनी मैडम के घर पहुंचकर त्रिधा ने उन्हें सबकुछ बताया। उन्होंने सुबह होते ही त्रिधा के भोपाल जाने की तैयारी की और उसे भोपाल जाने वाली ट्रेन में बैठाते वक़्त कुछ पैसे और खाने का सामान दिया तो त्रिधा मना करने लगी। तब उन्होंने कहा "बेटा मुझे पता है तुम बहुत स्वाभिमानी हो लेकिन मासी से तो ले सकती हो न" त्रिधा से फिर कुछ नहीं बोला गया उसने चुपचाप सब अपने बैग में रखा और रोशनी मैडम के सामने हाथ जोड़ लिए।

इधर त्रिधा के चाचा चाची को जब उसके घर से भाग जाने का पता चला तो उन्हें विशाल पर शक हुआ क्योंकि उसके अलावा और किसी के मन में त्रिधा के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी। जब दोनों ने विशाल से पूछा तो उसने बताया कि हां त्रिधा दी को मैंने ही भगाया है इस नर्क से और मैं अब भी यही कहूंगा कि बहुत अच्छा हुआ जो वे चली गईं। यह सुनकर दोनों को पहले तो बहुत गुस्सा आया लेकिन वे विशाल से कुछ नहीं कह पाए, किसी और के बच्चों पर हाथ उठाना बहुत आसान है लेकिन अपने ही बच्चों पर हाथ उठाना बहुत मुश्किल इसीलिए विशाल उस सब से बच गया जो त्रिधा सालों से सह रही थी। कुछ वक़्त तक त्रिधा के चाचा चाची दोनों ही चिढ़ते गुस्साते रहे लेकिन फिर दोनों ने सोच लिया कि चलो अच्छा ही है मुसीबत से पीछा छूटा और दोनों ने उसे ढूंढने की कोई कोशिश भी नहीं की।

**********

भोपाल पहुंच कर त्रिधा ने कॉलेज और हॉस्टल की सारी फॉर्मेलिटीज़ पूरी की और हॉस्टल के अपने रूम में जाकर अपने बीते कल को याद कर फूट फूटकर रोने लगी, यहां कोई उसे रोकने टोकने वाला नहीं था, कोई नहीं था जिससे उसे डरना पड़े, आज आखिर वह आजाद थी उस जेल से। वह बहुत देर तक रोती रही और जब थक गई तो जहां बैठी थी वहीं सो गई।

अगले दिन रविवार था। सुबह उठकर त्रिधा ने अपने आपको आने वाली हर अच्छी - बुरी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार किया और बाज़ार जाकर अपने लिए किताबें, पढ़ाई का अन्य सामान और कुछ कपड़े खरीदे ।

अब एक नया सफर त्रिधा का इंतजार कर रहा था।

****

कॉलेज का पहला दिन था। सुबह नौ बजे के करीब त्रिधा कॉलेज के एंट्रेंस पर खड़ी थी। क्लचर से बंधे, लंबे, भूरे, रेशमी बाल, चिकन के सफेद सलवार सूट पर कढ़ाई वाला लाल दुपट्टा, हमेशा की तरह कानों में अपनी मां के बड़े बड़े झुमके, बड़ा सा स्लिंग बैग और फ्लैट सैंडल्स, सादगी में भी त्रिधा बहुत खूबसूरत लग रही थी। जो भी उसे देख रहा था बस उसे ही देखता रह जा रहा था, लड़के ही नहीं लड़कियां भी लेकिन इस सब से बेखबर त्रिधा बस कॉलेज कैंपस को देखने में व्यस्त थी, इतने अच्छे, इतने बड़े कॉलेज में पढ़ने के बारे में तो उसने कभी सोचा भी नहीं था और आज वह यहां थी तो सिर्फ अपनी रोशनी मैडम की वजह से।

अभी त्रिधा कॉलेज कैंपस को देख ही रही थी कि तभी एक लड़की ने उससे पूछा "तुम फर्स्ट ईयर में हो ?" जब त्रिधा ने हां में सर हिलाया तो उसने आगे कहा "तो जल्दी क्लास के अलावा कहीं भी चलो वरना अगर सीनियर्स ने देख लिया तो अभी शुरू हो जाएंगे" त्रिधा उसे एकटक देखती ही रह गई। सांवला रंग, बड़ी बड़ी काली आंखें, छोटी सी लेकिन तीखी नाक, पतले होंठ, काले, घने बालों में स्टाइलिश हेयरकट, घुटनों तक लंबी खूबसूरत लाल रंग की ड्रेस, काले हाई हील्स और हल्का मेकअप उसे और भी ज्यादा खूबसूरत बना रहे थे।" त्रिधा अभी उसे देख रही थी और सोच रही थी 'शायद यह बहुत ज्यादा घमंडी है इससे मेरी कभी नहीं बन सकती।' तभी उसने फिर कहा "अरे चलो न जल्दी वरना अपनी समाज सेवा की आदत और तुम्हारी मदद के चक्कर में मैं भी फसुंगी" त्रिधा को फिर चुपचाप खड़ा देखकर उसने त्रिधा का हाथ पकड़ा और उसे लेकर कॉलेज के सेमिनार हॉल में पहुंच गई। त्रिधा के लिए यह एकदम अप्रत्याशित था, वह अब भी उस लड़की को ही देखे जा रही थी।

"ओह हाय, आय'म संध्या, संध्या भारद्वाज, मैंने तुम्हें अपना नाम भी नहीं बताया इसीलिए ऐसे रिएक्ट कर रही हो न..... एक्चुअली यार मुझे ये रैगिंग वगैरह से बहुत नफरत है, ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होती इसीलिए जल्दी से यहां आ गई और तुम भी मेरे टाइप की लगी तो तुम्हें भी ले अाई"

"अच्छा... थैंक्स संध्या, आय'म त्रिधा शर्मा" त्रिधा ने कहा और सोचने लगी किसी को देखकर ही उसके बारे में राय बना लेना सही नहीं यह तो कितनी फ्रेंडली है।

"अरे अब सॉरी और थैंक्स नहीं चलेगा अबसे तुम संध्या शर्मा की दोस्त हो और वैसे भी हम दोनों ही ब्राह्मण हैं क्या बढ़िया जमेगी न अपनी दोस्ती" संध्या ने खिलखिलाते हुए कहा।

"हां बिल्कुल" त्रिधा ने पहली बार दिल खोलकर मुस्कुराते हुए कहा। तभी कॉलेज के पहले लेक्चर का वक़्त हो गया और त्रिधा उठ कर जाने लगी पर संध्या ने उसे रोक लिया और कहा "अभी चलोगी तो सीनियर्स रोक लेंगे, दस मिनट बाद चलते हैं" त्रिधा को भी संध्या की बात ठीक लगी तो दोनों दस मिनट रुकीं और फिर पढ़ने चली गईं। देर से आने की वजह से दोनों को ही अंत की सीट मिली।

* पन्द्रह मिनट बाद *

"त्रिधा देखो मैं छोले भटूरे लाई हूं, चलो अभी खाते हैं" संध्या ने अपनी बड़ी बड़ी आंखों में चमक लाकर बच्चे जैसे भावों के साथ त्रिधा को देखते हुए कहा।

संध्या ने पहले लेक्चर में ही खाने की बात की तो त्रिधा को आश्चर्य हुआ और वह आश्चर्य के साथ उसे देखने लगी।

"संध्या यूं लेक्चर के बीच कौन खाता है? अभी कहीं सर ने देख लिया तो ?" त्रिधा ने कहा।

"अरे यार त्रिधा कुछ नहीं होता, कोई नहीं देख रहा और देख भी ले तो क्या हुआ ये स्कूल - कॉलेज के दिन ही तो ज़िन्दगी का बेस्ट टाइम होता है इसे यूं दुनिया की परवाह में वेस्ट नहीं करना चाहिए" संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा और लंच बॉक्स खोलकर त्रिधा के आगे कर दिया और खुद भी खाने लगी।

"थैंक्स संध्या , तुम खाओ मुझे मन नहीं" त्रिधा ने कुछ झिझकते हुए कहा।

"अब छोले भटूरे में क्या है मैडम ? ये तो सबको पसंद होते हैं" संध्या ने त्रिधा तो प्यार से डांटते हुए कहा।

"संध्या मैं किसी का कुछ सामान नहीं लेती मेरी आदत नहीं रही कभी" त्रिधा ने फिर झिझकते हुए कहा।

"अच्छा तो ठीक है तुम अपनी दोस्त भी खो दोगी" संध्या कुछ नाराज़ हो गई थी।

त्रिधा इस अनजान जगह, अनजान शहर में अपनी एकलौती दोस्त खोना नहीं चाहती थी इसलिए चुपचाप मान गई और संध्या के लंच बॉक्स से छोले भटूरे खाने लगी।

"अगर तुम दोनों मुझे अपने छोले भटूरे खाने दो तो कसम से मैं सर को कुछ नहीं बताऊंगा" पीछे से अाई आवाज़ से संध्या और त्रिधा अचानक चौंक गईं। दोनों ने पीछे मुड़कर देखा तो पता चला वह लड़का इतनी देर से उनकी सारी बातें सुन चुका था। बाकी लड़कों की तरह फैशनेबल - स्टाइलिश नहीं लग रहा था बल्कि बहुत शालीन लग रहा था साथ ही उसके कपड़े पहनने का ढंग भी बहुत साधारण लेकिन आकर्षक था। हल्के भूरे रंग की शर्ट पर गहरा नीला जीन्स, साधारण तरह से बनाए हुए बाल और हल्की दाढ़ी - मूंछ, उसे बहुत शांत एवम् शालीन बना रहे थे। कुल मिलाकर वह लड़का बिल्कुल शांत स्वभाव का लग रहा था जिससे ऐसे मज़ाक की उम्मीद बिल्कुल नहीं की जा सकती थी।

दोनों को चुपचाप अपनी तरफ देखते हुए उस लड़के ने फिर कहा "जल्दी दो छोले भटूरे वरना सर को आवाज़ दूं?"

"नहीं नहीं तुम खा लो" कहते हुए त्रिधा ने संध्या का लंचबॉक्स उस लड़के की तरफ बढ़ा दिया।

"यह क्या किया त्रिधा.... मेरे छोले भटूरे" संध्या ने बच्चों जैसी रोनी सूरत बनाते हुए कहा।

"मेरे खाना खाने पर नजर लगा रही हो तुम, अब तो मैं सर को बोलकर ही रहूंगा" उस लड़के ने फिर कहा।

"देखो तुम हमें ऐसे सर से शिकायत करने की धमकी नहीं दे सकते" संध्या ने कहा।

"धमकी नहीं दे रहा, मैं ऐसा कर सकता हूं" वह लड़का बोला।

"देखो पहले दिन ही प्रोफेसर के आगे हमारी इमेज शरारती स्टूडेंट वाली मत बनाओ अब तो छोले भटूरे भी दे दिए अब क्या चाहिए ?" संध्या ने चिढ़ते हुए कहा।

"दोस्ती" उस लड़के ने कहा।

"दोस्ती..... वो भी संध्या शर्मा से, भूल जाओ" संध्या ने अकड़कर कहा।

"नहीं तुम जैसी अकडू से नहीं, त्रिधा से" वह लड़का बोला।

"ठीक है मैं तैयार हूं लेकिन अब प्लीज़ सर से कुछ मत बोलना" त्रिधा ने ऐसे दिखाते हुए कहा जैसे वह मजबूरन उससे दोस्ती कर रही हो लेकिन मन ही मन त्रिधा को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई उससे भी दोस्ती करना चाहेगा, एक ही दिन में दो अजीब लेकिन अच्छे दोस्त पाकर त्रिधा भी खुश थी।

"हाय, मैं प्रभात, प्रभात मुद्गल" उस लड़के ने कहा और त्रिधा की तरफ हाथ दोस्ती का बढ़ा दिया "और मैं त्रिधा" कहते हुए त्रिधा ने भी मुस्कुराते हुए हाथ मिला लिया। त्रिधा और प्रभात की तो दोस्ती हो गई लेकिन संध्या प्रभात से चिढ़ गई थी आखिर वह उसके पसंदीदा छोले भटूरे जो खा गया था।

इसके बाद त्रिधा प्रभात और संध्या तीनों ही पहले पढ़ाई में और फिर सीनियर्स के साथ "इंट्रो" में व्यस्त हो गए और इस तरह कॉलेज का पहला दिन बीत गया।

**********

जब त्रिधा हॉस्टल के अपने कमरे में आकर सीधे अपने मम्मी पापा की तस्वीर के सामने खड़ी हो गई और कुछ देर आंखों में आंसू लिए एकटक तस्वीर को देखती रही।

"आपने ही रोशनी मैडम, संध्या और प्रभात को भेजा है न मां - पापा, आपको पता था न आपकी त्रिधु अब तक टूट चुकी होगी इतना सब सहते हुए। जानते हैं मां - पापा मैंने आपके बिना इतने साल कैसे मर मर के, घुट घुट के बिताए हैं" कहते हुए त्रिधा की आंखे छलक पड़ीं। कुछ देर बाद खुदको संयत करने के बाद वह आगे बोली "मां - पापा संध्या और प्रभात मुझे बहुत अच्छे लगे, वे तो कभी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे न" और फिर त्रिधा एकटक अपने मम्मी पापा की तस्वीर देखती रही।

कुछ देर बाद त्रिधा ने फोन पर अपनी रोशनी मैडम को नए कॉलेज और वहां मिले अपने दोस्तों के बारे में बताने लगी। उसकी बातें सुनकर रोशनी मैडम भी बहुत खुश हुई और उससे कहा कि वह खूब मन लगाकर पढ़ाई करे, अब वह सभी परेशानियों से आजाद है और जब भी जरूरत हो वह उन्हें फोन कर सकती है। इसके साथ ही कुछ अन्य हिदायतें देते हुए रोशनी मैडम ने फोन रख दिया।

कुछ देर आराम करने के बाद त्रिधा अपनी किताबें लेकर बैठ गई लेकिन आज पहली बार था जब किताबें उसके सामने थीं लेकिन मन कहीं और...... उसका ध्यान तो प्रभात और संध्या में ही लगा हुआ था। कहां तो वह डर रही थी कि नए शहर में सबकुछ कैसा होगा और कहां उसे कॉलेज के पहले दिन ही इतने अच्छे दोस्त मिल गए थे। एक तरफ संध्या का बचपना और लाड़ दुलार भरी डांट और दूसरी तरफ प्रभात का मजाकिया अंदाज दोनों ही त्रिधा को अहसास करवा रहे थे कि शायद अब वह उन्हें अपने मन की बातें कह सकती है, अपना दुख सुख बांट सकती है।

अपने जीवन में आने वाली खुशियों के बारे में सोचते हुए और अपने भविष्य के खूबसूरत सपने बुनते हुए त्रिधा सो गई।


क्रमशः



© आयुषी सिंह