आज घंटों आईने के सामने खड़े होकर खुद को निहारती रही । थोड़ी देर बाद सुनी आंखों में काजल लगाई थोड़ा क्यू रूक गई पता नहीं चला और यूं ही हाथ बिंदी के पत्तों पर चले गए सोचा लगा लूं ;
तुमको मेरे माथे में बिंदी पसंद थी ना !
मैं हमेशा चाहती थी कि आईना मुझे बिना काजल बिना बिंदी लगाए पसंद करें पर मुझे शायद अपनी ही यह अक्स पसंद नहीं आया । मैं कब खुद को छुपाने लगी और खामोश हो गई मुझे याद ही नहीं । पढ़ना चाहती थी. .खुले आसमान में उड़ने के सपने देखती थी पर रीति-रिवाजों की बेड़ियों ने मुझे मंडप पर बैठा दिया था। यकीन मानो तब यह बेड़ियां, बेड़ियां नहीं लगी थी जानते हो क्यों ? क्योंकि जो शख्स हमसफर बनने जा रहा था वह मुझे भी पसंद था या फिर यह कहूं कि जब कभी मेरे दिल में शादी का ख्याल आया बस वही शक्स आया ।
खुश थी मैं, उतनी ही खुश जैसे एक छोटे से बच्चे को बिना मांगे खिलौना मिल गया हो । शादी 5 सालों के गवना ( कुछ साल लड़की पिता के घर ही रहती है) के शर्त पर हुआ क्योंकि मैं अपने माता-पिता की एकमात्र सहारा थी और मेरी पढाई भी पूरी नहीं हुई थी। वैसे गवने की प्रथा हमारे समाज में प्रचलित नहीं थी पर मेरे लिए यह किसी आशीर्वाद या बड़ी खुशखबरी या जैकपौट से कम नहीं था लेकिन तब मुझे एहसास नहीं था कि इस विवाह में विदाई या मिलन कभी नहीं होगा ।
वह जो हमसफर था मेरा ! उसका और मेरा रिश्ता लॉन्ग डिस्टेंस बन चुका था, पर मैं इसमे भी खुश थी। दो-तीन साल सब सही था । पति-पत्नी से ज्यादा दोस्त थे हम । हमारे सपनों में कैरियर समाज फिल्में कविताओं की बातें थी इससे ज्यादा कुछ भी नहीं पर अपने आप में यही संपूर्ण था । अक्सर लोगों के सपने सुबह होने पर टूटते हैं पर मेरी आंखों के सपने खुली आंखों से देखने पर भी टूट चुके थे । वह जा चुका था इस दुनियाँ से पर मेरे दिल से कभी नहीं गया । यही मृगतृष्णा मुझे उस शख्स की तरफ ले गई जो मुझे उस जैसा लगा था । मैं हमेशा तुम्हारी बातें करती उससे और वो चुप होकर सुनता था।
मैं जब भी उसके शांत हो जाने पर उसे पूछती कि तुम सुन रहे हो ना ! वह कहता मैं समझ रहा हूं ..।
मुझे लगने लगा था कि तुम्हारे बाद वो शक्स ही मुझे समझता है।
भोर के बाद सुबह की रोशनी बेहद पसंद आती थी मुझे लेकिन कभी रात की गहराई हमारे बीच हमेशा के लिए काला रंग छोड़ जाएगी किसको पता था?
उस भीड़ ने कब मुझे त्रियाचरित्र कहा समझ नहीं सकी पर जब तुमने कहा तब मैंने फिर अपने चेहरे पर मेकअप लगा लिया था । मैं सोचती थी मेरे वकील हो तुम पर तुम तो जज निकले थे। बिना किसी दलील के फैसला सुनाया था तुमने और मैंने भी तुम्हारे फैसले को थोड़ा रो- धोकर मान ही लिया था । पूछना चाहती थी तुमसे, सबसे - "बार - बार, अलग - अलग चरित्र का किरदार निभाने वाली औरत कब चरित्रहीन या त्रियाचरित्र हो गई??? इस शब्द और किरदार की रचना किसने की होगी?? वो मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका, शिक्षिका तो नहीं हो सकती.......उम्र की शुरूवात से अंत तक शायद कई रूपों में जीने वाली औरत ही त्रियाचरित्र या चरित्रहीन कही गई....."
फिर से खामोशी की चुनरी ओढ़ ली मैंने।
आज जब कभी निकलती हूं तैयार होकर, बन संवरकर, किसी की नजर में कभी कुछ तो कभी कुछ नजर आती हूं लेकिन अब कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता । अपने सामने झुकते हुए सिर देखे हैं मैंने।
लोग सामर्थवान के सामने अक्सर झुक जाते हैं। मेरे हाथों में बिंदी का पत्ता मुस्कुरा रहा था जैसे स्वत: ही कह रहा हो की मेरे माथे मे सजना है उसे। अब आईना भी मुस्कुराने लगा था अपने फैसले से मुझे एहसास हुआ जैसे उसने कहा -"तेरे शहर का पानी मीठा बहुत है, पर वो बनारस नहीं है.. ।"