देर रात दिनेश, शिवानी के साथ गांव पहुंचि । बच्चे तो रास्ते में ही सो गए थे। सामान आदि अंदर रखवाने के बाद दिनेश ने शिवानी से कहा "शिवानी तुम बच्चों के पास ही रुको। मैं मां के पास हॉस्पिटल जा रहा हूं।"
"दिनेश, मैं भी तुम्हारे साथ चलना चाहती हूं।"
" नहीं शिवानी, बच्चों को घर पर अकेले छोड़ना या इस समय हॉस्पिटल लेकर जाना सही नहीं। दिन होता तो किसी के पास छोड़ भी देते। इतनी देर रात किसी को जगाना भी अच्छा नहीं लगता।
तुम अभी आराम करो। सुबह आ जाना।" कह दिनेश बाहर निकल गया।
जब वह हॉस्पिटल पहुंचा तो उसका पड़ोसी उसे सामने ही मिल गया। दिनेश ने उससे मां की तबीयत के बारे में पूछा तो वह बोला "चाची को होश तो आ गया है लेकिन!"
"लेकिन क्या! कोई गंभीर बात तो नहीं ना!"
"है भी और नहीं भी! डॉक्टर कह रहे थे कि इनको कोई गहरा सदमा लगा है। जो इन्हें अंदर ही अंदर घुन की तरह खाए जा रहा है। इन्होंने जीने की आस भी छोड़ दी है इसलिए दवाइयां भी असर नहीं कर रही।"
सुनकर दिनेश धम्म से वहीं बैठ गया। अभी अपने पिता के जाने के सदमे से वह उबर भी नहीं पाया था कि किरण और
कुमार द्वारा लगाए झूठे आरोपों ने उसे हिला दिया था और अब मां की ऐसी हालत। सचमुच अंदर से बिल्कुल टूटा हुआ महसूस कर रहा था वह ।
अपने मन का दर्द किससे बांटे! किससे कहें! शिवानी ने तो बिना सोचे समझे उसे दोषी करार दे ही दिया था। इसलिए अंदर ही अंदर वह अपने दर्द को पी गया।
मां के कमरे में गया तो वह सो रही थी चेहरे पर उनके थकान व निराशा साफ नजर आ रही थी।
हमेशा उर्जा से भरी, हंसती मुस्कुराती रहने वाली उसकी मां कैसे निस्तेज हो गई थी।
इतनी तकलीफ में भी उन्हें मेरी व बच्चों की फिक्र थी। मेरे परिवार व काम को नुकसान ना हो इसलिए हमें वापस भेज दिया और खुद अकेले सारा गम पीती रही।
गलती तो मेरी थी। जो मैं अपनी मां का दुख ना समझ सका। मैंने उनके दुख से ज्यादा अपने परिवार व काम की तवज्जो दी। क्यों मैंने उनको अकेला छोड़ा। क्यों जिद नहीं की साथ चलने की। उन्होंने अपने सारे फर्ज निभाएं और मैं, बेटा होकर भी अपने बारे में ही सोचता रह गया । शायद भगवान ने तभी मुझे!!!
सोचते हुए दिनेश के मुंह से आह निकल गई।
उसने अपनी मां के सिर पर प्यार से हाथ रखा। बेटे का स्पर्श महसूस कर, उसकी मां ने धीरे-धीरे आंखें खोली। दिनेश को अचंभित नजरों से पहचानने की कोशिश करते हुए उसने इधर उधर नजर दौड़ाई और फिर धीरे से बोली
"दिनेश मैं यहां कैसे!
और तू, तू कब आया!"
"मां आज सुबह जब आपने हमें फोन किया तो आप बात करते-करते अचानक चुप हो गई थी । हम सब बहुत घबरा गए थे। शंकर भैया को तुम्हें देखने के लिए भेजा। तब पता चला कि आप बेहोश हो गई हो। वही तुम्हें हॉस्पिटल लेकर आए। अब चिंता की कोई बात नहीं। अब सब ठीक है।"
"मेरे कारण तुझे नाहक ही इतनी परेशानी उठानी पड़ी । वहां शिवानी बच्चों को अकेले कैसे संभालेगी बेटा!"
"मां, शिवानी और बच्चे भी साथ आए हैं और अब हम सब आपके साथ ही रहेंगे!"
सुनकर दिनेश की मां के चेहरे पर संतोष के भाव आ गए। वह कुछ नहीं बोली और चुपचाप उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली।
थोड़ी देर बाद ही डॉक्टर राउंड पर आए । दिनेश ने डॉक्टर से अपनी मां की हालत के बारे में पूछा तो वह बोले "मैंने आपके भाई को सब कुछ बता दिया है।
आपको अपनी मां का पूरा ध्यान रखना होगा । इन्हें अकेला तो बिल्कुल मत छोड़ना और कोशिश करना यह हमेशा खुश रहे। जैसा कि आपके भाई ने बताया कि अभी कुछ दिन पहले ही आपके पिता की मृत्यु हुई है। मुझे लगता है ,उन्हीं का जाने का गहरा सदमा आपकी मां के दिल पर लगा है और वह उस चोट से अभी तक नहीं उबर पाई। कई बार दुख से उबरने में समय लग जाता है। बस आप इनका ध्यान रखिए। दवाइयों से ज्यादा अपनों का साथ व प्यार जरूरी है इनके लिए।
कोई भी दिल को चोट लगने वाली बात या कोई दुख पहुंचाने वाली बात शायद ही इनका दिल अब बर्दाश्त कर पाए इसलिए इन सबका खास ध्यान रखिएगा।"
दिनेश ने हां में सिर हिलाते हुए डॉक्टर से कहा डॉक्टर "हॉस्पिटल से यह कब तक डिस्चार्ज हो जाएंगी।"।
"हम कोशिश करेंगे, इन्हें सुबह ही डिस्चार्ज कर दें क्योंकि इन्हें ऐसी कोई बीमारी नहीं है, जो इनको यहां लंबे समय तक रखें।"
सुबह दिनेश ने शिवानी को फोन कर बता दिया कि दोपहर तक मां डिस्चार्ज हो जाएगी इसलिए तुम्हें हॉस्पिटल आने की अभी जरूरत नहीं ।
शिवानी घर का सारा काम निपटाकर दिनेश व अपनी सास के आने इंतजार कर रही थी।
जैसे ही बाहर गाड़ी रूकने की आवाज आई, बच्चे व शिवानी दौड़कर दरवाजे पर गए । अपनी दादी को देखकर रिया उनसे लिपट गई। शिवानी भी अपनी सास के गले लग गई।
सबको साथ देख शिवानी की सास की आंखों में खुशी के आंसू आ गए।
शिवानी उनको अंदर लेकर आई और बिस्तर पर लिटा उनके पास बैठ गई और बोली "मांजी अब आपकी तबीयत कैसी है!"
"अरे ठीक हूं बहू ! तुम लोगों ने बेकार में इतनी तकलीफ की। बुढ़ापे में ऐसी छोटी मोटी बीमारियां लगी ही रहती है। मेरे लिए यूं काम धंधा छोड़कर मत आया करो ।"
"कैसी बात कर रही हो मां आप। काम आप से बढ़कर है क्या!
आप यहां पर बीमार हो तो हम वहां पर खुश रह पांएंगे क्या! यह आपने सोच भी कैसे लिया। मैंने तो आपसे कितना कहा था कि हमारे साथ चलो लेकिन आप हो ना! वैसे सच कह रहे हो आप। बुढ़ापे इंसान को जिद्दी और बच्चा भी बना देता है।
देखो ना अपनी जिद के कारण आपने खुद को ही कितनी तकलीफ दे दी। "
"अरे काहे की तकलीफ। वैसे यह तकलीफ अब मेरे साथ ही जाएंगी। " दिनेश की मां उदास आवाज में बोली।
"कैसी बात कर रही हो मां आप! पिताजी तो हमें छोड़ कर चले गए । अब आपका ही तो सहारा है। अगर आपको कुछ हो गया तो क्या हम जी पाएंगे। भूलकर भी कभी ऐसी बात जुबान पर मत लाना।" दिनेश अपनी मां का हाथ पकड़ रुआंसा होते हुए बोला।
"चल पगले, दो दो बच्चों का बाप हो गया है। कब तक मां की उंगली पकड़े रहेगा ! अरे, इतनी अच्छी बीवी मिली है तुझे, सब संभाल लेगी। मैं तो अपने आपको खुशकिस्मत समझती हूं कि तेरे जैसा बेटा और बहू मुझे मिले।
लेकिन सच कहूं बेटा, तेरे पिता के जाने के बाद मेरे जीने की चाह बिल्कुल खत्म हो गई। मन हरदम उदास रहता है कितना ही इधर-उधर के कामों में उलझाने की कोशिश करूं लेकिन रह-रहकर तेरे पिता की याद मुझे कचोटने लगती है। भगवान से दिन-रात यही प्रार्थना करती हूं कि मुझे भी उनके पास बुला ले। "
"नहीं मांजी, ऐसी बात कभी भूल कर भी फिर जुबां पर मत लाना। हम सबको आपकी जरूरत है। अभी तो आपको बहुत सारी जिम्मेदारियां निभानी हैं। अपनी जिम्मेदारियों से आप ऐसे मुंह नहीं मोड़ सकते। हम आपको कहीं नहीं जाने देंगे और ना हम कहीं जाएंगे। अब हम आपके साथ ही रहेंगे यही पर।"
शिवानी के मुंह से ऐसी बात सुनकर दिनेश ने उसकी ओर हैरानी से देखा। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि शिवानी ऐसा निर्णय भी कर सकती है।
फिर अगले पल ही उसे लगा शायद अभी वह भावुकता में बोल रही होगी।
तभी गांव के कुछ लोग दिनेश की मां से मिलने आ गये। शिवानी उनके आते ही रसोई में चाय पानी का इंतजाम करने के लिए चली गई ।
चाय पानी देने के बाद शिवानी दोपहर के खाने की तैयारी करने लगी। बीच-बीच में आकर वह बच्चों व अपनी सास को देख कर जाती।
बच्चे अपनी दादी के साथ बातें करते हुए बहुत खुश नजर आ रहे थे। दादी भी कम खुश ना थी उनका साथ पाकर।
दोपहर का खाना खाने व दवाई लेने के बाद दिनेश की मां सो गई। बच्चे भी खेल कूद, थक कर सो गए।
दिनेश चुपचाप अंदर कमरे में बैठा था। शिवानी भी वहीं आ गई। उसे आया देखकर दिनेश बाहर जाने लगा तो शिवानी ने उससे पूछा "डॉक्टर ने क्या कहा। मांजी क्यों बेहोश हो गई थी! कोई सीरियस बात तो नहीं!"
दिनेश ने डॉक्टर की कही सारी बातें शिवानी को विस्तार से बता दी।
सुनकर शिवानी का चेहरा गंभीर हो गया।
" हे भगवान, मांजी पर अपनी कृपा बनाए रखना। उन्हें जल्दी स्वस्थ करना।" कह शिवानी उदास वहीं बैठ गई।
दिनेश शिवानी के चेहरे की उदासी पढ़ते हुए बोला "शिवानी मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। प्लीज इसे गलत मत समझना। इसमें मेरा थोड़ा सा स्वार्थ छिपा हुआ है।"
शिवानी ने रूखे स्वर में कहा "किस बारे में बात करना चाहते हो! "
"मां के बारे में!"
शिवानी ने प्रश्न सूचक नजरों से उसकी ओर देखा।
"शिवानी मां की हालत तो तुम देख ही रही हो और डॉक्टर ने जो कहा वह मैंने तुम्हें बता ही दिया है।
डॉक्टर ने साफ-साफ तो नहीं लेकिन फिर भी कहा ही है कि वह अब ज्यादा दिन .....!! " कहते हुए दिनेश की आवाज कांप गई।
"ऐसा क्यों कह रहे हो! कुछ नहीं होगा उन्हें! सही हो जाएंगी वह। "
"भगवान करे, तुम्हारी बात सच हो लेकिन मैं तुमसे हाथ जोड़कर बस एक ही विनती करना चाहता हूं कि जब तक मां के शरीर में प्राण है, तब तक तुम यहीं रुक जाओ। जिससे जितनी भी उनकी सांसे व दिन बचे हैं, वह खुशी-खुशी गुजार सके। प्लीज मेरी ना सही, मां की तरफ देखो। मेरी सजा उन्हें मत दो। उन्होंने तो शायद कभी तुम्हारे बारे में सपने में भी बुरा ना सोचा हो। तुम्हें बहु से बढ़कर बेटी माना है उन्होंने।
हम सबको साथ देख शायद कुछ दिन और जी सके। उनकी झोली में ये खुशियां डाल दो। वादा करता हूं, उनके जाने के बाद जो तुम , मुझे सजा दोगी या फैसला करोगी वह मुझे मंजूर होगा।"
दिनेश की बातें सुन कुछ देर शिवानी चुप रही और फिर उसकी ओर देखते हुए बोली "दिनेश तुम यह मुझे ना भी कहते , तब भी मैं मां को इस हालत में छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली थी। सही कहा तुमने तुम्हारे पापों की सजा मैं उस देवी को क्यों दूं। उसका क्या कसूर। मैं और बच्चे उनके साथ ही रहेंगे। कोशिश करूंगी वह हमेशा खुश रहे और स्वस्थ रहें।"
शिवानी की सेवा व परिवार का साथ पाकर दिनेश की मां की तबीयत में अब धीरे-धीरे सुधार आ रहा था। लगभग 15 दिन बाद उनकी हालत पहले से काफी बेहतर हो गई थी। तबीयत सही होने के बाद वह शिवानी और दिनेश से बोली
"दिनेश अब मैं सही हूं। बेटा कितने दिन तक अपने काम धंधे को छोड़कर मेरे पीछे यहां लगे रहोगे। जाकर अपना काम धंधा संभालो। मेरी वजह से कहीं तेरी नौकरी पर आंच ना आ जाए। ऐसा हुआ तो मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा।"
"मां मेरी नौकरी कहीं नहीं जा रही है। आप बेफिक्र रहो। वैसे मैंने सोच लिया है कि वहां की नौकरी छोड़कर यही कोई नौकरी ढूंढ लूं। जिससे आपके साथ साथ खेत खलिहान की भी देखभाल हो जाएगी।"
"अरे पागल हो गया है क्या! लोग तो काम की तलाश में शहर भागते हैं और तू मेरे पीछे अपनी लगी लगाई नौकरी छोड़ रहा है। मैंने तुझे पहले भी कहा था। बुढ़ापे में ऐसी छोटी मोटी बीमारियां लगी ही रहती है और खेत कौन से तुझे संभालने है । अरे,खेत बटाई पर दे रखे हैं। करने वाले अपने आप कर लेंगे। तू परेशान मत हो। बहू तू ही समझा इसे! देखना कैसे बच्चों वाली बातें कर रहा है।"
"मांजी, बिल्कुल सही कह रहे हैं ये। मैं भी इनकी बातों से सहमत हूं। हां, अगर आप हमारे साथ शहर चलने के लिए राजी हो तो हमें शहर जाने में कोई दिक्कत नहीं लेकिन आपको अकेले छोड़कर तो हम बिल्कुल नहीं जाएंगे। वैसे आप ही तो कहते हो कि गांव अब शहरों से कम नहीं रहे। फिर क्यों हमें जाने के लिए मजबूर कर रहे हो। क्या आपको हमारा यहां रहना पसंद नहीं!"
"नहीं-नहीं बहू कौन मां नही चाहेगी कि उसका परिवार उसके साथ रहे। तुम्हारे सहारे तो मैं दो-चार दिन और ज्यादा जी लूंगी। लेकिन देखना बहू, तू शहर में पली-बढ़ी । दिनेश कि इतने सालों की नौकरी और बच्चे। बच्चों का यहां मन लगेगा क्या! माना गांव ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन बहू यहां अभी शहर जैसी आजादी नहीं। देख ले कहीं तुझे दिक्कत ना हो!"
"मां मुझे कोई दिक्कत नहीं। आप हो ना । सब संभालने के लिए। और बच्चों का क्या !
रियान तो अभी छोटा ही है और रिया तो गांव आने और आपके साथ रहने के लिए हमेशा से ही राजी रही है। आप इन बातों का बोझ अपने दिल पर मत लो। मां आप पहले की तरह खुश रहा करो । हम तो बस यही चाहते हैं कि आपका प्यार और आशीर्वाद हमारे सिर पर सदा बना रहे।"
दिनेश की मां कुछ नहीं बोली। बस सुन कर मुस्कुरा दी।
दिनेश को गांव में रहते हुए महीना भर हो गया था 1 दिन वह अपनी मां से बोला "मां मैं सोच रहा हूं शहर की नौकरी से इस्तीफा दे दूं और यहीं पास वाले कस्बे में कोई नौकरी ढूंढ लूं। पूरा दिन घर पर खाली बैठे समय नहीं कटता आप क्या कहती हो इस बारे में!"
"बेटा, मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा। शहर की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर तू यहां छोटी-मोटी नौकरी करेगा। कुछ अच्छा सा नहीं लग रहा। वैसे तो अपने खेत खलिहान
है। उनसे ही इतना पैसा आ जाता है कि तुझे नौकरी की जरूरत नहीं लेकिन तेरी वाली बात है। खेतों के काम का तुझे अनुभव नहीं और पूरा दिन घर में खाली बैठा इंसान भी अच्छा नहीं लगता। तू अपना कुछ काम धंधा ही शुरू कर दें।"
" ना बाबा ना! अपना काम शुरू करना कोई हंसी खेल नहीं। बहुत अनुभव, सूझबूझ व समझदारी की जरूरत होती है इसमें। जरा सी लापरवाही हुई नहीं कि सारा पैसा डूब जाएगा। वैसे भी आपको पता है, मैं इतना चुस्त नहीं। आप ही तो कहते हो मुझे दुनियादारी की समझ कम है!" दिनेश हंसते हुए बोला।
इतनी देर में शिवानी भी वहां आ गई। उसे देख कर दिनेश की मां हंसते हुए बोली। "हां कह तो तू सही रहा है बिल्कुल भोला भंडारी है तू। इतने सालों शहर में रह कर आया लेकिन शहर जैसी कोई चालबाजी तुझमें नहीं आई। तू तो वही गांव का सीधा साधा नौजवान रहा जैसे इतने सालों पहले यहां से गया था, तब था। यह तो तुझे शिवानी जैसी समझदार पत्नी मिल गई वरना तेरी गृहस्ती कैसे चलती। यह तो भगवान ही जाने। क्यों सही कह रही हूं ना मैं बहु!"
"पता नहीं मांजी ! वैसे हर मां के लिए उसका बेटा सीधा ही होता है। या यूं कहूं कभी बड़ा ही नहीं होता। लेकिन सच्चाई इससे उलट होती है। जिसे मां की नजर शायद ही पढ़ पाए।" कहते हुए शिवानी की आवाज भर्रा गई और वह जल्दी से बाहर निकल गई।
दिनेश की मां को कुछ समझ नहीं आया कि शिवानी क्या कहना चाहती है। उसने दिनेश की ओर देखा तो उसने भी नजरें झुका ली और चुपचाप बाहर चला गया।
दिनेश की मां को कुछ अच्छा सा तो नहीं लगा लेकिन फिर उसने सोचा हो सकता है यह उसके मन का वहम हो। वैसे भी पति-पत्नी में नोकझोंक तो चलती ही रहती है शायद इसलिए शिवानी ने ऐसा कह दिया होगा वरना मेरी बहू कभी सपने में भी दिनेश के बारे में कुछ गलत नहीं कह सकती।
जल्द ही दिनेश को गांव के पास जो कस्बा था, उसमें उसके अनुभव के आधार पर अच्छी नौकरी मिल गई । सुनकर उसकी मां बहुत खुश हुई। उससे भी ज्यादा तसल्ली दिनेश को थी क्योंकि वह पूरा दिन घर में रहकर, शिवानी को तनाव नहीं देना चाहता था। उससे भी ज्यादा उसे अपनी मां की फिक्र थी। कहीं भूले से भी उन्हें, उन दोनों के बीच का मतभेद या तनाव पता लग गया तो वह यह सदमा बर्दाश्त ना कर पाएंगी।
कम से कम इस नौकरी के बहाने उसका और शिवानी का
आमना सामना कम होगा। वैसे भी देर शाम वह घर आएगा। उसके बाद समय ही कितना बचता है । गांव में शहरों की तरह देर तक लोग नहीं जागते । 9-10 बजे तक तो यहां सन्नाटा पसर जाता है। मां भी तो जल्दी ही सो जाती है।
इन्हीं सब बातों को सोच कर वह अपने मन को बहला रहा था लेकिन उसे नहीं पता था कि उसकी मां की अनुभवी आंखें धीरे धीरे उसके और शिवानी के बीच छाई हुई छुपी को अब पढ़ने लगी थी।
क्रमशः
सरोज✍️