मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या? 5
काव्य संकलन-
मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या?
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
समर्पण --
धरती के उन महा सपूतों,
जिनके श्रम कणों से,
यह धरा सुख और समृद्धि-
पाकर, गैार्वान्वित बनी है,
उनके कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त।
दो शब्द-
आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्हीं की खोज में यह काव्य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--
वेद राम प्रजापति ‘मनमस्त’
25- जरा तौलकर -
बुरे वख्त में ज्ञान गजल का, तुम आलाप रहे।
जरा तौलकर के गाना है जो जन कष्ट हरे।
गोलमाल की भाषा का, अब नहीं जमाना है।
यदि निर्भीक समझते खुद को, तो ही गाना है।।
अगर छियाव कर रहे ऐसे, पास-पास रह के।
तो फिर कैसे बात बनेगी, बिना साफ कहके।
शब्द–हिंडोले में कविता को, क्यों कर झुला रहे।
पोस्ट मार्टम की भाषा से, कवि क्यों गिला लहे।।
व्यर्थ धर्मवादी यह बाना, किसने खड़ा किया।
बीचों-बीच हमारे आकर, कयों पग अड़ा दिया।
बिद्रोही फूलों की लतिका-तुमको जगा रही।
आगे कुछ होने वाला है, यह सब बता रही ।।
सही-सही और साफ-साफ तो, कहना ही होगा।
बने हुए हो, बीर बहादुर, क्या नकली चौंगा।
सूने आसमान की कविता, क्या कविता होगी।
गांव गली की-पावन गाथा, बीज नए बोगी।।
यदि गाना है, ग्राम्य श्री की रज गाथा गाओ।
जिसने हंस-हंस सोना उगला, उसको अपनाओ।
पावन धरती की महिमा का कुछ तो ख्याल करो।
जहां मन मस्त प्रकृति की गाथा, गांवन गोद धरो।।
26- ग्राम्य नायिका -
बनावटी शहरों की माया, काया मचल रही।
बनावटी सुमनों से रंजन, भूषण विलग कहीं।
आभूषण की नकली छाया, जिस पर गर्व बड़ा।
असली पन से वंचित साथी, गांव न वहां खड़ा।।
ग्राम्य श्री का वेश अलग है, बनावटी मुस्कान न कोई।
अलट – पलटना मधुरम होता, किलकिंचित भाषा ही होई।
शून्य वचन की भव्य भावना, जीवन के अवशाद मिटाती।
विरह वीथियों की अंग़ड़ाई, आंसू से संवाद कराती।।
अनमोलक भी रूप दिगम्बर उद्दीपन का स्वप्न अनूठा।
सच्ची है इंकारी भाषा, सीत्कार श्वासों जग दीठा।
अनुपम है सुधियों का संगम, रंग लिए स्वीकारी जानो।
सहरण होती सिर से पाओं, जीवन का आनन्द यह मानो।।
अंग-अंग जगता अनंग जहां, जो पायलिया ध्वनि पर नाचा।
नथुनी नाच रही नभ आभा, चन्द्र चांदनी का रंग काचा।
शुद्ध समर्पण मनुहारों में, लुका-छिपी का भाव न कोई।
कल्प वृक्ष सी अंक मनोहर, चन्द्र चांदनी जिसमें सोई।।
यह पावन इतिहास जानना तो जाना होगा गांवों में।
जीवन के छाले मिट जाते, बरगद की गहरी छांवों में।
सच्चा है संसार यहां का, बनावटों का नाम न कोई।
प्यारी है मनमस्त धरा यह, बासन्ती जहां हर क्षण होई।।
27- किस मटकन में कवि -
समय साध्य सी भाषा बोलो, मौन नहीं, अब तुमको रहना।
उन महलों की, मृत छाया में, सच्चा जीवन क्या है सहना।
अरे। गांव की पगडण्डी के पग चिन्हों को भी पहिचानो।
क्या कहते मौसम की गाथा, जागो-जागो शब्द जवानो।।
आंखों में आंखें जो डाले, नौंच रहे वे कौन लोग हैं।
इधर बंद करके आंखों को, सोय रहे वे कौन लोग हैं।
क्रोधी हृदय दया भावना। यह कैसी पीड़ा का अनुभव।
किस रामायण की रचना है कितने काण्डों होना सम्भव।।
लक्ष्मी के आधीन हुआ जो, पईसा की आवाज जानता।
जो रूठा, सिमटा बैठा हो, मनुहारों को कभी, मानता।
उस समुद्र के पार गमन में, लगा हुआ जो, जीवन क्रम में।
उसके संग व्यवहार तुम्हारा, कैसा है अब भी हो भ्रम में।।
रो मत तूं, आग्रह की भाषा खुल्लम खुल्ला यहां व्यापार है।
एकमात्र ही, लाभ भावना लिए-प्रयोजन का बाजार है।
क्यों खुद को परतंत्र बनाया, बर-बरणा का चयन-नहीं है।
किस मटकन में कवि भटके हो, पुष्प चयन का समय नहीं है।।
किधर जा रहे हो। क्या सोचा किन कुठाओं में तुम भटके।
जीवन की इस लवण सरित में किन घाटों की घाटी अटके।
अपने पथ को छोड़ चल पड़े, किस पगडंडी की झण्डी लें।
अब भी होश संभालो साथी, निडर कलम की शत चण्डी ले।।
28- पीड़ा का इतिहास –
मत पूछो। किस-किस से मैंने धोखा खाया है।
तुम, ईश्वर और दास सभी से, मन समुझाया है।
आज निराशाओं के बादल, लूम रहे धरती को छूने।
मुंह और पेट नहीं भरता है, ईमानी राहों, दोजूने।।
उम्र घरौंदे के रहस्य को, मैंने तुमने जान न पाया।
लोग भाष्य जो करत सहज में सुख का भाव कहां से पाया।
तुम्हें पूजकर, उन्हें पूजना सच ही मानो व्यर्थ हो गया।
फुर्सत कहां प्रणय स्तुती की, मौन देवता कहां खो गया।।
व्यर्थ ग्रीष्म में याद पौंस की अरू श्रावण की ऐसे करना।
इन यत्नों से, कहां शान्ती का मुश्किल निर्मल झरना झरना।।
जीर्ण काय, आंतों की कुन-कुन बहुत कठिन है, इन्हें देखना।
सुन सकते हो सिर्फ जभी तुम, जब कहीं- स्वर्ण खनक की धुनिना।।
दया, उपेक्षा और न जाने, कया कया चाहत करते देखा।
पीड़ा का इतिहास हठीले इस विभाष में किसने देखा।
देख सको तो देखो साथी, सूक्ष्म यंत्र की लिए साधना।
अन्दर की भाषा है यह तो इसका इतना सरल लेख ना।।
इस रहस्य को अगर जानना, मेरे साथ गांव में चलना।
घनी दोपहरी की मृग तृष्णा, लहराती जहां उसे परखना।
बर्फ झरे, सर्दी का मोसम, कृषक खेत में गाती मारे।
भर भादों की घोर निशा में, चल कर देखो, मेरे प्यारे।।
29- पतन की दासतां -
सच में, हवा और पानी का, कोई दोष नहीं।
फलां जाति में जन्म लिया तो, पूरा दोष यही।
विरासतों को तुम, संभाल पाए नहीं अब तक।
ऐसी क्या की खोज कोन दोषी हो कब तक।।
कौरव पनपती बेटी की, क्यों आज खोज की।
कैसी जीवन भार, कहानी, रोज-रोज की।
शास्त्रों के उपदेश, घटित घटना क्या दोषी।
अथवा दोनों नहीं, जांघ हमारी क्या दोषी।।
इस विमर्श में, भाषा चिंतन विषय नहीं है।
अघ- पतन की घोर दासता, विषय सही है।
इस पर कब सोचोगे, दौड़ता समय जा रहा।
दुनिया का संवाद, हमारा समय खा रहा।।
इस धारा को कब रोकोगे, किस विधि प्यारे।
गली-गली और शहर-शहर में, ये ही नारे।
कदम तुम्हारा नहीं बढ़ा तो, क्या युग होगा।
जीवन का इतिहास तुम्हारे पथ पर रोगा।।
कर सकते चिंतन तो, इस पर करना साथी।
जाति, वर्ग है जन्म कथा क्या, जीवन थाथी।
मानव जीवन का सच्चा-सा, यही पतन है।
इसे मिटाने के उपक्रम कर, यही यतन है।।
30- समर्पण या छलना –
देखा था उस दिवस, तुम्हारा बह व्यावर्तन।
यही सोचता रहा-निरंतर मन में कर्तन।
समय आज का यही, दिखावा मात्र सही है।
ईमानदारी मिटी, बात अनकही, कही है।।
सब कुछ हुआ बाजार डरे हैं सब मन ही मन।
बिक नहीं जाए कहीं गैर के संग में, यह तन।
सूना, मन नहीं लगे, शोर से मन घबराता।
सीठे-मीठे गीत यहां पर, क्यों कोई गाता।।
यहां समर्पण – यंत्र साधना, क्या छलना है।
यही खड़ा है प्रश्न तुम्हें यहां क्या करना है।
इस विभीषिका की आंधी को, आज मोड़ना।
यह विमर्श है, जीवन घाती, इसे तोड़ना।।
मरियादा का पाठ पढ़ो, और सवै पढ़ाओ।
इस विनाश की, ऐसी दरिया नहीं बहाओ।
जीवन की धरती को ऊसर नहीं बनाना।
मरियादा की आन बान का गौव ठिकाना।।
चलना है उस ओर, छोड़कर इस छाया को।
बनावटी का दौर, छला-छल इस माया को।
जहां जीवन का दृश्य झलकता है जीवन में।
चले चलो मनमस्त गांव की मृदु गलियन में।।