mera bharat dikha tumhr kya - 4 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 4

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मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 4

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? 4

काव्‍य संकलन-

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या?

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण --

धरती के उन महा सपूतों,

जिनके श्रम कणों से,

यह धरा सुख और समृद्धि-

पाकर, गैार्वान्वित बनी है,

उनके कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्‍त।

दो शब्‍द-

आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्‍चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्‍हीं की खोज में यह काव्‍य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्‍म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--

वेद राम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

19- शहरी हाल -

शहरों का विपरीत हाल है, जरा जानिये।

बन रहे सभी विदेशी, बात सच, आप मानिए।

सब विकते बे मोल, यही चिंता है भारी।

बन जाने से पूर्व, बिगड़ने की है त्‍यारी।।

आयु से पहले ही, नर बूढ़ा हो जाता।

सब कुछ जीवन-सार, न जाने कहां खो आता।

कितने व्‍यसनों का बाजार है, शहर हमारा।

जहर पी रहे लोग, देख लो आज नजारा।।

ब्‍यूटी पार्लर खुले, बदन का सदन सजाते।

कई एक ऐसिड मिले क्रीम, पाउडर को पाते।

नकली गहनन साज, सजत नकली हो जाते।

असली को परित्‍याग, नकलची बन मुस्‍काते।।

शहरी दौरा-दौर जिंदगी भारी-भारी।

कुछ भी रहा न हाथ, पी गई आसब सारी।

कभी-कभी तो, बात-बात में ठनत लड़ाई।

अति पतली हो गई, यहां, संबंध-सगाई।।

होड़ लगी दिन रात जीत मेरी झण्‍डी में।

कढ गई जीवन रेल, सही में, पगडण्‍डी में।

बे जीवन बयोहार, लग रहे बदले बदले।

खींच तान की चाल, हो गए बौने कद ले।।

20- लेखनी क्‍यों गिरवीं रखदी -

विषम समय में लेट, लेखनी सिरहाने रख ली।

जो कुबेर के बस में भी नहीं, गिरवी क्‍यों रख दी।

सत्‍य, अहिंसा के संरक्षण, जिसका है क्षण-क्षण।

इसी लेखिनी की रंग रंगत, पाया है कण-कण।।

नहीं रूकी है, कई युगों से, दुर्जन-जन द्वारा।

इसकी गति अबाध रही है, कोई नहिं टारा।

करीं घोषणाएं अपने दम, इसी लेखिनी ने।

ईशा देश को दयीं चुनौं‍ती, इसी लेखिनी ने।।

देश सुरक्षा में पग रोपे, आज खड़ी होती।

साथ दिया होता जो तुमने, अग्र बढ़ी होती।

हृदय रक्‍त से पोषों इसको, कुपित नहीं करना।

साक्षी बन जाएगी नि‍श्‍चय कभी नहीं डरना।।

सृष्टि का उपकार, इसी की जिव्‍हा से बोला।

कभी-कभी तो इसके भय में, अंबर भी डोला।

कई एक कुरूक्षेत्र लिखे हैं, इसने अनजाने।

इसकी सच्‍ची कथन, हमेशां ईश्‍वर भी माने।।

गांवों की धरती से लेकर, दिल्ली तक बोली।

विश्‍व बंधुता के आंगन में, निर्भय हो डोली।

गांवों के सच्‍चे दिल मानव, इसके पथ राही।

समझ लेब मनमस्‍त इसी से, जीवन जय पायी।।

21- विपल्‍वी बीज -

आज समय कुछ और, प्‍यार के गीत नहीं गाओ।

मां की रक्षा में हिल मिल कर, आज सभी आओ।

होना है तैयार, पहन कर, केशरिया बाना।

कलम रही ललकार, शहीदी जीवन अपनाओ।

मां की रक्षा में हिल मिल कर, आज सभी आओ।

अनजाने में यहां प्रसारित कोई करता है।

अन इच्छित से भाव, कान में कोई भरता है।

सभी गली-कूंचे से ध्‍वनियां, उन पद चापों की।

गली-गली में भरी बर्जना, जीवन-छापों की।।

दर्दों को दे, छुपे कहीं हो, आभाषित होता।

आज विपल्‍वी बीज, लेखिनी के मुंह से बोता।

सत्‍य असत्‍यी खोज, विभाषी की जिद में पाओ।

बात अनर्गल, अब भी छोड़ो, मार्ग सही आओ।।

शहरों की अनमेली भाषा, कहां सीख आए।

गांवों की पगडंडी के क्‍यों गीत नहीं गाए।

जीवन को जीवित रखना तो, गांव-गली जाना।

शहरों की बीमार बात से, तब कहीं बच पाना।।

अजब- गजब सी, यहां प्रभाती गीतों में हंसती।

भेदभाव से दूर है कोसों, गांवों की धरती।

अनहोनी भी टल जाती, यह गांव सिखाते हैं।

प्रेम भाव मनमस्‍त जहां पर, रंग बरसाते हैं।।

22- हमरा चैन हमें तो दे दो -

नियति-नटी को समझ लिया क्‍या। कैसी होशियारी।

निगल गए पूरी की पूरी शान्‍ती की क्‍यारी।

खूनी होली, साल-साल भर, क्षण भर रंगोली।

हमरा चैन, हमें तो दे दो, धनियां यौं बोली।।

मानव जीता, बेर पात खा, भण्‍डारन कैसा।

विज्ञापन का सच क्‍या, बोलो उगल रहा पैसा।

आंखों में खटकता, विदेश को, यहां फागुन आया।

कंकड़ फैंक करी हलचल कयों तालाबी- काया।।

तुम्‍हीं सोच लो। इसका हल क्‍या कैसे होगा।

काटेगा वही फसल सही में, जो जैसा बोएगा।

रोग लगाया किसने, कैसा, क्रान्‍ती नहीं होगी,

यह अलाप अभिसार राग का, शान्‍ती नहीं होगी।।

हमको हमरा हिस्‍सा दे दो, नियति – नीति क्रम में।

अब तक झेले दंश तुम्‍हारे, चुम्‍बन के भ्रम में।

घना अंधेरा, घर में आकर, सांय-सांय करता।

दीपक राग अलाप रहे तुम, जन-जीवन मरता।।

यह सब छोड़ो, धरा-धूल के गांवों में आओ।

सच्‍चे मन और सच्‍चाई से, हमसे बतियाओ।

गांवों से ही बना देश तुम गांव नहीं जाने।

बुला रहीं मनमस्‍त आज ये, प्‍यार भरी छानें।।

23- क्‍या अपराध किया -

भड़क रही तुम से बरबादी, कुछ विचार करलो।

मैंने कुछ समझायस देदी, क्‍या अपराध किया।

तुमरी राहें, तुम्‍हें मुबारिक, तुम्‍हीं जानोगे।

मैंने चुनली अलग राह तो, क्‍या अपराध किया।।

लोगों ने उसका धन जीवन, सब कुछ चुरा लिया।

मैंने पीड़ा अगर चुरा ली, कया अपराध किया।

चांद हथेली पर मांगा तो, कया अवसाद दिया।

पर पीड़ा अहसास हुआ तो, क्‍या कुछ बुरा किया।।

किया चीबरौं ने मैला, वह धर्म लेख उसने।

साया से, कर दिया स्‍वच्‍छ तो, क्‍या अपराध किया।

इसीलिए, दीनों-जीवन हित, कुछ तो कर जाओ।

इस विमर्श को मैंने छेड़ा, क्‍या अपराध किया।।

अब भी जागो और जगाओ, पाड़-पड़ौसिन को।

समय नहीं बख्‍शेगा साथी, यदि नहीं ध्‍यान दिया।

अभी समय है, कुछ नहीं बिगड़ा, समय साध्‍य-समझो।

इस उधेड़ बुन में ही साथी, जागत समय जिया।।

गांव गली का, निपट अनाड़ी यह सब पीता है।

अपनी अबनी का प्‍यारा रस, हंस-हंस पीता है।

गांवों से शिक्षा कुछ ले लो, समय यही कहता।

खुशियों के संसार गांव हैं, जो जीवन-गीता।।

24- धन्‍यवाद तुमको -

भरसक मेहनत कर जीवन भर, कहां होशियारी है।

चतुराई से नोट, खसोटी, क्‍या होशियारी है।।

मानव होना हश्र यही क्‍या। धन्‍यवाद तुमको।

भोलेपन की रूचि में डूबे, धन्‍यवाद तुमको।।

नूंन-तेल की चिंता, सबकी मति को मार गई।

रोटी के खातिर, मजबूरी यहां पर हार गई।

फुसला कर, चतुराई लुटती, इस बसंत के द्वार।

मैत्री हित में, जान दई तो, आज बात गई हार।।

खूब झेलते आए अब तक, और झेलना है।

इस हलचल के खेल, अभै-भी और खेलना है।

कब तक चुप होकर जीओगे, सोचा जरा कभी।

जाग जाओ गहरी निंद्रा से, है तो समय अभी।।

शहरी है जनतंत्र हमारा, यह हमको लगता।

जो गहरी नींदों में सोया, ऐसे कब जगता।।

कम्‍बर कस के खड़े होउ तो, जाग जाए क्षण में।

तुम पार्थ हो, कुरूक्षेत्र यह, डटे रहो रण में।।

आओ तो गांवन चौपालों, सब कुछ सिखा रहीं।

धरती के आनंद सूत्र जो, तुमको दिखा रहीं।

सच्‍चा है दरबार गांव का, सब कुछ यह जानो।

धन्‍यवाद-मनमस्‍त पाओगे गांवों में आनो।।