मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या? 1
काव्य संकलन-
मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या?
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
समर्पण --
धरती के उन महा सपूतों,
जिनके श्रम कणों से,
यह धरा सुख और समृद्धि-
पाकर, गैार्वान्वित बनी है,
उनके कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त।
दो शब्द-
आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्हीं की खोज में यह काव्य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--
वेद राम प्रजापति ‘मनमस्त’
1- शारदा विनय -
शहरों में मन नहीं लगता मां, पाखण्डी हैं भेार।
जीवन का सुख चैन लूटने, चलो गांव की ओर।।
बनावटी पन है शहरों में, अर्चन, वंदन, पूजा।
बासे पुष्प, बल्व की ज्योति, टैप गीत नित, गूंजा।
दीपक की, घृत ज्योति कहां है, बासे जल नहाओ।
बासे जल, अभिषेख तुम्हारा, बासा ही सब पाओ।।
बिस्तर पड़े पुजारी, पूजन चैनल की घनघोर।।
शहरों के भोजन में दौड़त बोतल के ही घोडे
छल, प्रपंच की संसद चलतीं, न्याय, नीति ही छोड़े।
पूजन घंटों, रूग्न घंटियां, बकध्यानी- सी माला।
हृदय मन कहता सब कुछ, क्या- से क्या कर डाला।
नहीं मनमस्त शहर का जीवन, गहो गांव की कोर।।
गांवों का सच्चा है दर्शन, सुमन भरा है, नंदन।
टूटी-फूटी अनगढ़ भाषा, पर सच्चा है वंदन।
सब कुछ शुद्ध गांव में मइया, न्याय, नीति, दर्शन।
छल विहीन जीवन का चिंतन, सच्चे मन,का अर्पण।
स्वच्छ वायु, परिवेश स्वच्छ है, स्वास्थ्य वान है भोर।।
2- प्यारे कृषक हमारे भइया -
प्यारे कृषक हमारे भइया, जन-जीवन को, जीवन दइया।
प्रकृति पारखी तुम हो सच्चे, भारत मां के, प्यारे छइया।।
प्रकृति खेलती खेल, तुम्हारा मेल, उसी से हो जाता है।
डीम-डिमारा खेत, कि गहरी नींद, उसी में सो जाता है।
कर कुहनी की अनुपम तकिया, धरती मां की पावन गोदी।
खर्राटे की नींद अनूठी, जिसमें सफल, साधना पो दी।
कैसा है जीवन निनांद यह चल कर देखो, प्यारे भइया।।
कंपन करती सर्दी पड़ती, गाती मारे पानी देता।
आग जल रही दूर, मेढ़ पर, गर्माई उससे ले लेता।
मिट्टी में सन रहा, सनी है कपड़ा में मिट्टी की लाली।
ईश्वर जैसा रूप सही में, छलक रही हो जीवन प्याली।
जग मगात श्रम बिन्दु–भाल पर, अनुपम मोती जैसे दइया।।
कांटों में भी फूल खिलैं जहां, फूलों में कांटे पलते हैं।
पावस की घनघोर, झड़ी में, तुमसे धैर्यवान चलते हैं।
तुमने ही गड्डां, पोखर में, गंगा जल का रूप, निहारा।
जीवन भर, जन-जन जीवन को, श्रम जीवन से दिया सहारा।
धरती के मंथन-मदराचल, पार लगा दो जीवन नइया।।
सृजन मार्ग पर जो चलता है, प्रकृति उसी को दुलराती है।
कर्मभाव, कर्मठता, जीवन बस दुनियां उसकी थाथी है।
हर मौसम उस का अनुचर है, तुमसे प्रकृति परीक्षा हारी।
जन-जीवन का जीवनदाता तेरी सफल साधना सारी।
तेरा गान, जहां के अंदर, सब जग को मनमस्त करइया।।।
3- जमीर जगमगा उठे -
गीत गा वो गांव के, गांव गांव गा उठे।
जमीर जगमगा उठे, जमीन मुस्कुरा उठे।।
उतारै आज गांव सभी, गांव की ही आरती।
छेड़ दो तराने नए, गा-उठे जो भारती।
सुनाओ गांव गीत-वो, समा-भी फड़फड़ा उठे।।
सुना दो एक बार वह, दिशाओं को दिशा मिलें।
हमारी विश्व वाटिका के, खिले फूल-फिर खिले।
हिन्द जान गांव है, जहान को जगा उठे।।
आन-बान गांव की, इकवार तो उछाल दो।
गांव है अनूठी जान, मुर्दों में भी डाल दो।
फूंक दो अनूठी तान, कब्र भी तो गा उठे।।
है नहीं बड़ी-सी बात, ठान लो जो आज भी।
हवाएं गुनगुनाएंगी, कांप जांऐं, ताज भी।
होयेगा वो विश्व गान, संबेत-स्वर जभी उठे।।
गीत, गीता से बने, तूं कृष्ण होऐगा, यहां।
सुना दे एक बार तो, पार्थ ठाड़ा है वहां।
जमीं औ आसमा मगन, मनमस्त हो के मिल उठे।।।
4- मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या ?-
मेरा भारत दिखा तुम्हे क्या ? , गांव गली, गलियारों में।
धूल सना, चिथड़ों में हंसता,मन रोता त्यौहारों में।।
नहीं कहता है कभी – किसी से, पांव उभरते छालों की।
भूला नहीं, अभी भी यादें, सुबह शाम, चौपालों की।।
।संघर्षों की कहानी गढ़ता, बैठ – दोपहरी, हारों में।
धूल -------------- त्यौहारों में
भोर-शाम को जाना केवल, कार्यशील जीवन पथ में।
स्वाभिमान का बांध अंगोछा, गोरी की – पायल नथ में।
मानवता को सजा रखा है, द्वारे – वंदन – वारों में ।
धूल -------------- त्यौहारों में।
चूल्हों की नहिं झरती राखें, कितनेउ दिन से, यह देखा।
मेरे दिन, कब फिर हैं पांड़े, रोज दिखाता है रेखा।।
जख्मों के पैबन्द सिलैनित, जीवन के अंधियारों में।
धूल -------------- त्यौहारों में।
सच्चा सेवक है अन्नदाता, मांगत कुछ भी नहिं देखा।
अनगिन भाव, बांटता सबको, खुद अभाव पलते देखा।
कभी – कभी पाश्चात संस्कृति में छलाता, अनुदारों में।
धूल -------------- त्यौहारों में।
भेदभाव नहीं जाना जिसने, जाति – पांति से दूर रहा।
फिर भी, पछपात का दोषी, उनने – उसको सदां कहा।
उलझा रहा, आज तक यौं ही, एक – एकता नारों में।।
धूल -------------- त्यौहारों में।
इतना भोला, नहिं समझता दुनियां के जंजालों को।
समझदार होकर, नहिं समझा, ठगियों की भी चालों को।
है मनमस्त झोंपड़ी अपनी, लदा हुआ, सब भारों में।
धूल -------------- त्यौहारों मे
5- बसंत पूजा -
लो। अब तो आही गया, फूलों भरा बसंत।
लुभा रहा है हृदय को, जैसे कोई अनंत।।
कलियों से महका पवन, ले मकरंदी गंध।
धूप संजीली हो गई, छोड़ सभी अनुबंध।।
प्रकृति कलाएं सब सजीं, सौन्दर्य निखरा खूब।
मदमाते से हो गए, भौरों के मंशूब।।
सरस्वती का आगम हुआ, साज-बाज के साथ।
ध्वनियां गूंजत चहु दिसन, बीणा-सा अनुनाद।।
ज्ञान बांटता सा लगा, यह बसंत का रूप।
फूलों के आखर बना, स्वर गुरू-लघु अनुरूप।।
प्रकृति सुधा ने भर दिया, सब के मन में प्यार।
अनगिन झोली भर गयी, ले बसंत उपहार।।
सरसों पर पीयर चढ़ो, पहना दुल्हिन साज।
टेशू के फूलन उड़ा, बासन्ती का राज।।
गीत और संगीत से, पूजत चटक गुलाब।
सगुन भाव से सज गए, द्वार-द्वार शुभलाभ।।
नई कौंपलें, नव पर्ण, नव पुष्पी संदेश।
नव आशा, संकल्प का, नव पावन उपदेश।।
नव उमंग, नव स्वांस का, यह उत्सव है खास।
नई साधनाएं शुरू, ले सरस्वती विश्वास।।
जन्म दिवस मां भारती, भू-आयीं, गौ-लोक।
पूजन प्रकृति पर्व-से, ब्रम्ह नांद- अभिषेख।।
आदि शक्ति मां, धरत्री सकल सृष्टि की इष्टि।
सुमिरन कर, मां भारती, नाशे सभी अनिष्ठ।।
अधिष्ठात्री प्रकृति की, है ब्राजी चहुओर।
अनहद नांदों से भरे, संसृति के चहुं छोर।।
पूजन करो बसंत का, पाओगे सुख सार।
षट ऋतु का ऋतुराज है सुमन भरत संसार।।
हे बसंत शत-शत् नमन, अष्टांगी, परिणाम।
जयति-जयति, जय-जय, जयति है, अखिलेश्वर धाम।।
5- यादों में गांव -
यादें आतयीं हमें गांव की, जहां न यहां सा शोर।
जीवन की कोयलियां गातीं, मन के नचते मोर।।
तनक किताबैं थीं बस्ता में, अब सा, बोझ कहां था।
ऊट-पटांग पाठ नहीं थे, सार तत्व सब ही था।
गिनती-पहाड़े खूब रटत थे, जीवन धन थी शाला।
वे गुरूजन अब नहीं दिख रहे, प्यार भरे थे प्याला।।
भूले नहीं अबैलों उनखौं, सच्चे गुरू थे मोर।।
गुड़ के लड़ुआ, बांध छिकउआ, हम पढ़वे को जाते।
सुम्मेरा भइया के संग में, सबई गैल, बतराते।
दद्दा की समझाबन नींकी, मां का प्यार अपार।
गांव-ग्वारे अति स्नेही, एक नया संसार।
हिल-मिल सबई पढ़ते दिन भर, संग में नवल किशोर।।
न्याय, नीति न्यायालय होतीं, गांवन की चौपालें।
दद्दू न्यायधीश होते थे, नहिं थीं, अब सीं चालें।
सांचऊं, सांचों राम राज्य था, नेह, प्यार की बातें।
हृदय खोलकर सब बतियाते, नहिं थी, अब सी घातें।
डग, ढोगी पाखण्डी नहीं थे, और नहीं थे चोर।।
आ जातीं जब यादें मन में, गांव-गली बतियाते।
प्यार और स्नेह बरसता, हंसते जीवन-नाते।
यहां, में वहां में बहुत की अंतर, सोचो। जरा विचारो।
झूठे ढोल पिट यहां तो सब कुछ कारौ-कारौ।
बेचैनी मनमस्त यहां तो, चलो गांव की ओर।।
6- दीप मालिका -
आओ मित्रो। अमां निशां में, दीप मालिका आज सजाओ।
शत शत स्नेह साफल्य वर्तिका हृद दीवट पर, दीप जलाओ।
हर कोने से तिमिर भगाओ।
दीप मालिका आज मनाओ।।
बहुत हुआ जगुनू समूह का, छल-प्रकाश, अब नहीं काम का।
बरस रहे हौ, जैसे उल्का, मृगमरीचिका, सिर्फ नाम का।
देख रहे भ्रम के दल-दल से, आज मिला छुटकारा मानो।
पावस की मटमैली गलियां, आज स्वच्छतामय पहिचानो।
छलक रहा है राग-रंग अरू फूंस झोंपड़ी भी, खुश हाली-
चिडि़यां बैठ डालि पर कहतीं, आओ आओ हिलमिल गाओ।
दीप .............मनाओ।।।
अट्टहास हंस रही तारिका, अब घन-पट से, मुक्ति मिली है।
सुख की नींद, चांद हो सोता, जीवन की हर कली, खिली है।
आज यामिनी के अंग-अंग में, दीप मालिका मुस्काती है।
गहन अमां भी, दिवस लग रही, चक्क बाक उर, हर साती है।
नव सत साज साज के स्वर में आज लक्ष्मी अवनि पधारी-
स्वागत में, शीतल वायु में, महियागिरी की महकन पाओ।।
दीप .............मनाओ।।
हर द्वारे पर, गऊ गोबर से, दहरीं लिपीं, पांवड़े पाओ।
चौकपुर रहे, हर उर घर में, द्वार-द्वार स्वागत धुनि गाओ।
आज मानवी लिए हुए व्रत, मनहु युगों से वाट जोहती।
पहुनाई मेरे घर करलो, मन-मनिका की माल फेरती।
आल-बाल अरू युवा वृद्ध भी, लिए आरती सभी खड़े हैं-
जीवन में, जीवन दायिनी हो, सभी समर्पण ओ मां, आओ।
दीप .................मनाओ।।।
बटवारा ना हो, श्रंगार का जो चाहै तो, उन्हें मनाओ।
शामदाम अरू दण्ड भेद से, तुम चाहो जैसे समुझाओ।
हठ धर्मी पर अगर चले तो, उनको सुन्दर पाठ सिखा दो।
झगड़े कभी न तेरी गोदी, ऐसा मनहर गीत सुना दो।
हंस हंस रहे परस्पर हिलमिल, दीप-दीप से द्वीप जलावैं-
हो मनमस्त आज जग सारा, पूजन करै, जननि हरषाओ।।
दीप .....................जलाओ।।।