कहानी--
प्रतिभा का पहलू
आर. एन. सुनगरया,
श्रवण कुमार को उदासीन बुझा-बुझा, दिग्भ्रमित, अक्रियाशील, निठल्ला, बैठे-ठाले, जहॉं-वहॉं, इधर-उधर, निरूद्धेश डोलते-डालते, घूमते-घामते, भोजन के समय पर क्वार्टर लौट आता है। धर्मशाला समझकर। कोई चिन्ता-फिकर नहीं। किसी स्तर पर जिम्मेदारी नहीं। भविष्य की योजना या तैयारी नहीं। पूरी तरह आश्रित, लज्जा, शरम,संकोच लेस मात्र भी नहीं, बसी-बसाई घर-गृहस्थी तो है ही, सर्वसुविधायुक्त, दिमाग-पच्ची क्यों, फिजूल!
श्रवण कुमार का पिता सेवकराम तथा माता लाजवन्ती घौर समस्या में गमगीन डूबे-डूबे गम्भीर चर्चा में लीन हो जाते हैं।
‘’श्रवण खोया-खोया सा रहता है।‘’ लाजवन्ती ने बेटे की हालत अथवा असली परिस्थिति से सेवकराम को अवगत कराया इस गरज से कि वे कुछ समाधान की सोचेंगे-विचारेंगे। ताकि बेटा कुछ रोजगार धन्धे या नौकरी ढॅूंढ़ने का प्रयास करेंगे पिता के मार्ग दर्शन में। अन्त में लाजवन्ती बोली, ‘’वह हमेशा गुम-सुम ना जाने क्या सोचता रहता है। ना-उम्मीदी घर कर रही है। उसके दिल-दिमाग में........।‘’
‘’पढ़ाई तो करे पूरी.......।‘’ सेवकराम झुंझलाकर बोला, ‘’तब तो नौकरी या कुछ काम धन्धे का, सोचकर, करेंगे कुछ!’’
‘’अनियमित वेतन के कारण, आगे पढ़ाई जारी रखने में अविश्वास होता होगा।‘’ लाजवन्ती ने शंका जाहिर की, ‘’हॉं, हो सकता है।‘’ सेवकराम ने समर्थन किया, ‘’माहौल ही एैसा है कि मनोवैज्ञानिक आधार पर बच्चे ऐसा सोचकर उदास हो सकते हैं। स्वभाविक है।‘’ सेवकराम ने आगे बताया, ‘’पढ़ाई पूरी करने की चिन्ता तो होगी ही, आर्थिक संकट के कारण’’ सामान्य तौर पर सेवकराम ने कहा, ‘’डिग्री नहीं, तो जॉब नहीं!’’
‘’ऐसा ही प्रतीत होता है।‘’ लाजवन्ती ने धारणा बनाई।
‘’उन्हें यकीन दिला....।‘’ सेवकराम ने लाजवन्ती को काम सोंपा, ‘’कहना तुम उनसे कि इस मसले पर तुम्हारे पापा कुछ सोच रहे हैं, गम्भीरता से, सकारात्मक! तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.....फिजूल ऊलूल-जुलुल विचार अपने दिमाग से निकाल दो। समझे!’’ हिदायत दी।
आर्थिक मंदी के दौर में, घर-गृहस्थी बच्चों की शिक्षा-दिक्षा, अन्य अनेक समस्याऍं तात्कालिक एवं दीघ्रकालिक, अपेक्षित-अनापेक्षित आवश्यकताओं को सुचारू रूप से जारी रख पाना अत्यन्त दूभर हो रहा है। निकट भविष्य में वेतन नियमित होने की आशा अत्यन्त क्षीर्ण है। ऐसे विषम हालातों में बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखकर कुछ अनचाहा निर्णय लेने के लिये विवश होने का वक्त सर पर सवार हो गया है। घर-परिवार को विश्वास में लेकर, नौकरी छोड़कर कोई दूसरा विकल्प अपनाने की मानसिकता बन रही है। सम्बन्धित सभी सदस्यों की अनुमति अथवा स्वीकृति में हरी झण्डी दिखाने के पश्चात शासकीय संस्थान में स्वेच्छिक सेवा निवृति का विकल्प उपलब्ध था। जिसे परिवार के सुखद भविष्य के लिये कल्याणकारी मान कर अपना लिया।
फिलहाल कष्ट निवारण हो गया। बच्चों को भी विश्वास हो गया कि वे अब अपने-अपने करियर बनाने के मुताबिक कोर्स सुविधानुसार पूरे कर सकेंगे। आर्थिक संकट की कोई सम्भावना नहीं है। सबके सब निश्चिन्त हो गये। मगर सेवकराम की चिन्ताऍं और बढ़ गईं। वह अपने आप को उदासीन महसूस करने लगा। हमेशा क्रियाशील रहने वाला व्यक्ति कैसे निठल्ला बन कर बैठ सकता है। उसका दिल दिमाग निरन्तर क्या-क्या योजनाऍं बनाने-मिटाने लगा। वगैर स्रोत के तालाब भी सूख जाता है। कुछ तो आवक का जरिया स्थापित करना अत्यावश्यक महसूस होने लगा। तभी तो पूर्ण सफलता मिलेगी। समाज में मान-सम्मान प्रतिष्ठा बढ़ेगी । मुख्यरूप से आर्थिक आवक के आधार पर ही समाज में स्थान निर्धारित होता है।
मुकम्मल विचार-विमर्श के बाद मैन्युफैक्चरिंग यूनिट अपनी क्षमता एवं पूँजी निवेश के अनुसार स्थापित की गई जिसमें सक्रियतानुसार सहयोग देने का आश्वासन दिया।
यूनिट अपने आपके हर स्तर पर परिपूर्ण थी। कहीं भी किसी कार्यकलाप के लिए, किसी अन्य संस्थान पर आश्रित नहीं थी। धीरे-धीरे मार्केट में अपनी साख जमा ली एक-एक करके सभी सह व्यपारियों से मेल-जोल बढ़ने लगा। शीघ्र ही शहर की जानी-मानी यूनिट की छवि बन गई।
सेवकराम और लाजवन्ती निश्चिंत होकर उज्जवल भविष्य की उम्मीद में सपने बुनने लगे।
’’बेटा श्रवण ने व्यापार की बहुत अच्छी जिम्मेदारी सम्हाल ली है।‘’ लाजवन्ती ने कहा, ‘’अब कहीं शादी विवाह की बात चलाई जाये!’’
‘’लगता तो है, मगर........।‘’ सेवकराम ने शंका जाहिर की ‘’सम्पूर्ण हालातों को गम्भीरता से सोचना-विचारना जरूरी होगा।‘’ सेवकराम ने अविश्वास जताया, ‘’ऊपर से तो ठीक दिखता है, मगर अन्दर से भी परखना पड़ेगा। कहीं ढोल की पोल तो नहीं........।‘’
लाजवन्ती से ज्यादा व्यवहारिक था, सेवकराम। दुनियॉं देखी-परखी थी अपने दोस्तों और संगी-साथियों के पुत्रों के कारनामे, चालाकियॉं, चतुराईयॉं, धोखेबाजियॉं आदि-आदि से अच्छी तरह, अथवा भलि-भॉंति वाकिफ था। तो फिर कैसे ऑंखें बन्द करके, उस पीढ़ी के नुमायन्दे पर विश्वास कर लेता। संगी-साथियों की दुर्दशा से कुछ तो सीख लेनी थी। जॉंच-पड़ताल तो करेगा, खून-पसीना एक करके पैसा कमाया है, परिश्रम का फल लगाया है व्यापार में, अगर मेरी अनदेखी से डूब गया तो? अभी तक तो दस फीसदी भी वापस नहीं आया है। कैसे मान लें कि अपेक्षित एवं अनुकूल मुनाफे में चल रही है यूनिट। अथवा कार्यशील पूँजी बढ़ रही है। यह सब फेक्टर तो स्पष्ट होने चाहिए। तभी तो आगे कुछ भविष्य के निर्णय लिये जा सकते हैं।
सेवकराम अपनी अंतर्चेतना के आधार पर यूनिट का अवलोकन एवं आंकलन करने की तैयारी कर ही रहा था कि श्रवण कुमार की शादी के प्रस्ताव चारों ओर से आने लगे। जिनके मकड़जाल में सेवकराम पत्नि सहित उलझकर जस्मंजस्य में एवं दिग्भ्रमित हो गया। कुछ खास रिश्तेदारों के सलाह मशविरा युक्त जिम्मेदारना बयान भी आने लगे। इन सभी के बीच एक हिमायती श्रवण कुमार का चाचा भवानी भी था, जो आधिकारिक रूप से उभरकर, मुख्य सचेतक बन कर सामने आया। सम्पूर्ण हालातों को अपनी प्रभावशाली शैलि के जरिए अपने कब्जे में करके।
कुछ चरित्र ऐसे होते हैं, जिन पर ना चाहते हुये भी विश्वास करना विवशता होती है। उनकी साजिशों को मौन समर्थन देना पड़ता है। भवानी उन्हीं में से एक था। जिसके प्रस्ताव को बगैर कोई हिलाहवाले के स्वीकृत कर लेने की शर्त पर ही, वह अधिकांश आर्थिक एवं अन्य आवश्यक जिम्मेदारियाँ निवाहने के रवैये पर अडिग था। लेकिन हुआ कुछ अलग; पहले से निर्धारित परिवार में शादी तय हुई, तो भवानी भुनभुना और कुड़कुड़ा गया, अपनी मंशा अनुसार, मन मुताबिक कार्य ना होते देख, उसने अपना सहयोगात्मक स्वार्थी हाथ खींच लिया। कड़ा विरोध करने पर अड़ गया। क्योंकि निर्धारित दिनांक को शादी करने का वचन दिया जा चुका था। किसी तरह का परिवर्तन, बिना किसी कारण, जग हंसाई का कारण बन सकता था समाज में वादा खिलाफी का दुष्परिणाम अगली पीडि़यों तक जाने का खतरा था। अत: किसी भी तरह के बदलाव की कोई गुन्जाईश नहीं थी।
सेवकराम को भवानी के व्यवहार एवं फितरत का अनुभव था। पहले भी वह ऐन मौकों पर अपनी असलियत दिखा चुका है। सेवकराम बहुत ही भली-भॉंति वाकिफ था उसके रंग बदलने के आचरण से। गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया। चाहे कुछ भी कारण हो, अगर भवानी के मर्जी मुताबिक अथवा साजिश के अनुकूल सलाह नहीं मानी गई तो काम बिगाड़ा क्रियाशीलता निश्चित है। हर स्तर पर! इसमें भले ही किसी भी तरह के दीर्घकालिक तत्कालिक दुष्प्रभाव-दुष्परिणाम या फिर खून के रिश्तों में दरार ही क्यों ना पड़ जाये, मगर वह किसी भी सीमा तक जाने हेतु तैयार रहता है एवं उस पर काम भी करता है; वह पूर्ण सक्रिय हो जाता कि ज्यादा से ज्यादा बिघन या बाधा उत्पन्न करे या हो। अपने कारनामों से निरन्तर प्रयास करता है, जग हंसाई के, निसंकोच!
बुजुर्गों ने कहा है कि कीचड़ में पत्थर फैंकने से छींटें अपने ऊपर ही उचटते हैं। सेवकराम ने भवानी के हथकण्डों को नजर अंदाज करने की हिदायत सभी संबन्धित सदस्यों को दे रखी थी।
अंतत: यह मांगलिक कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो गया। हंसी-खुशी, हर्षोल्लास एवं धूमधाम से; व्यंग्यात्मक लहजे में सेवकराम ने भवानी को शुभकामनाऍं एवं धन्यवाद भी दे दिया। नववधु आ गई परिवार में, देर सबेर से एडजस्ट हो ही जायेगी। इसी आत्मविश्वास से सेवकराम भविष्य की ओर देखने-सोचने लगा।
सेवकराम के परिवार एवं अन्य खास-खास रिश्तेदारों और सगे सम्बन्धियों के साथ हितैसी, आत्मीय, शुभचिंतक इत्यादि-इत्यादि नव वधु प्रतिभा का स्वभाविक एवं परम्परागत, प्रत्येक्ष-परोक्ष उपहार, प्यार, दुलार, स्नेह, आर्शीवाद, दुआऍं, शुभाशीश; जैसा कि प्रचलन है। सबने अपने-अपने ढंग से औपचारिकताऍं पूरी की एवं अपने पारिवारिक-सामाजिक समूह में शामिल समझ लिया।
रोजमर्रा की गतिविधियॉं सामान्य रफ्तार से संचालित होती प्रतीत हुई, लेकिन बहु ने अपनी आंतरिक साजिश से लिपटी योजना पर अपने निजि स्वार्थ की इमारत निर्माण की शुरूआत कर दी, बेहद गोपनीय एवं रहस्यमय तकनीक के जरिए। आहिस्ता-आहिस्ता अपनी बिघटनकारी फितरत एक-एक कड़ी-दर-कड़ी जोड़ने का नमूना पूरा करना प्रारम्भ कर दिया।
बहुत ही बारीकी से चतुराई से गम्भीरता पूर्वक, गुपचुप, निर्धारित बहु की छबि को, अपने मुताबिक पक्ष में भुनाने की जुगत शुरू कर दी। ताकि वातावरण अनुकूल निर्मित हो और अपनी हरकतों का सिला मिल सके।
परिवार के प्रत्येक सदस्य के व्यवहार, बात-चीत, चाल-चलन, पसन्द-ना-पसन्द, व्यक्तित्व का अध्ययन गम्भीरता से करने के पश्चात, योजनाबद्ध प्रक्रिया से, किसको कैसे शिकार बनाया जाये, यानि किसको कैसे प्रभावहीन किया जाये एवं उस पर अपना सिक्का जमाया जाय। अपने असर को बढ़ाने के लिये। सम्पूर्ण कार्यकलापों की डोर अपनी उँगलियों में फंसाये रखना चाहती है। ताकि पूर्णत: मनोवैज्ञानिक स्तर पर कब्जा करके सारे सदस्यों को अपनी मर्जी-मुताबिक नचाते हुये, स्वयं सत्ता का सुख भोगने का अवसर हाथ लगे।
सेवकराम परिवार के मुखिया एवं पत्नि लाजवन्ती उनकी सहायक के रूप में साथ-साथ कन्धे–से-कन्धा मिलाकर घर-गृहस्थी चला रहे थे। अमन चेन से। कहीं कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। सुचारू रूप से सारे रोजमर्रा के काम-काज समय पर चल रहे थे। किसी को कुछ भनक नहीं लग रही थी कि बहु प्रतिभा अपनी कारगुजारियॉं किस रूप में, किस मकसद से, अन्दरूनी प्रक्रिया में खोखला करने की जी तोड़ कोशिश में लगी है। धीमे-धीमे जहर फैलाने की तरह, एक के बाद एक मौर्चा अपने कब्जे में करती जा रही है।
प्रतिभा ने निष्कर्ष निकाला कि पति श्रवण कुमार अपने माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र है। माता-पिता का पुत्र एवं पुत्र का माता-पिता पर अत्यन्त गहरा भरोसा है। स्वभाविक तौर पर। प्रतिभा का उद्देश्य है, इस भरोसे को खण्डित करना अथवा तोड़ना। इसके वगैर पति पूर्णत: मेरी मुट्ठी में नहीं हो सकता। वह चाहती है, पति समग्रता पूर्वक कब्जे में हो, दिल-दिमाग, तन-मन-धन के सम्पूर्ण कार्य प्रतिभा के लिये, प्रतिभा के कारण प्रतिभा द्वारा संचालित हो। प्रधान ध्येय को उसने प्राथमिकता के आधार पर प्रथम स्थान पर रखा।
प्रवीण शिल्पी की भॉंति प्रतिभा ने छैनी-हथोड़ा अपने जुबान पर धारण कर लिया। निरान्तर शब्दों को शहद लगाकर, श्रवण कुमार के दिल-दिमाग को तराशना प्रारम्भ कर दिया। सर्वश्रेष्ठ एवं माहिर शिल्पकार की नायाब कलाकृति के समान, प्रतिभा ने पति के मस्तिष्क को शब्दों की चोट-ठुक-ठुक....ठां...ठूं....ठक्क..... करके उसके दिल-दिमाग को सर्वथा अपने स्वार्थ का सारथी बना कर, अपने अनुसार अनुरूप उपयोगी हथियार की तरह गढ़ लिया। श्रवण कुमार जैसे सम्मोहित की मानिंद प्रतिभा की ऑंखों के ईशारों पर संचालित होने लगा। प्रतिभा ने समग्र रूप सेअपने शीशे में उतार लिया। महारथी जादूगर की तरह कब्जा करके।
इस प्रक्रिया में श्रवणकुमार जन्मजात सम्पूर्ण एहसान, पालन-पोषण, शिक्षा-दिक्षा, अपनापन, नाते-रिश्तों के सब ,खून के बन्धन, सहानुभूति सेवाभाव, भावनाऍं। आत्मियक सुख-दुख। माता-पिता द्वारा सहन किये गये सारे कष्ट, प्रीत-प्रेम, लाड़-प्यार कर्त्तव्य अधिकार, संस्कार, संस्कृति कुछ ऐसे भूल गया, जैसे ये सब काल्पनिक बातें हो, इसके अलावा वह तो पूर्ण जवान पुरूष के रूप में आसमान से टपका हो, किसी चमत्कार के तहत श्रवण कुमार यही सच मान बैठा है।
प्रतिभा को लगा कि अब श्रवण पूरी तरह उनके जादू के असर के कारण, वह प्रतिभा के भ्रमजाल में कैद हो गया है। अब उसे सम्मोहित गुलाम के माफिक उपयोग किया जा सकता है। मन-मर्जी के परिणाम प्राप्त करने का समय आ गया है।
किसी तरह की डिमाण्ड, कैसे भी निर्णय लेने में श्रवण ऑंखें मूँदकर प्रतिभा के प्रस्ताव को शिरोधार्य करेगा। इसके लिए उसे कुछ भी क्यों ना करना पड़े, करेगा। कोई भी रिश्ता, सम्बन्ध, एहसान फरामोशी, मर्यादाओं का उल्लंघन, मान-सम्मान को अनदेखा करना। अपना स्वाभिमान, आत्म सम्मान नेक, नियति, कर्त्तव्य, परायणता, जिम्मेदारी आदि-आदि मानवीय, सामाजिक पारिवारिक, नैतिक गुणों एवं तत्वों को दरकिनार करके अपनी पत्नि की अपने आप में सिमटी स्वार्थपरता, स्वजीवीपन, मुफ्तखोरी प्रत्येक्ष-परोक्ष भयभीत कर धमकी भरी फटकार, प्रताड़नायुक्त बातव्यवहार को अंगीकार करके उसका अनुसरण करते हुये, उसके तलबे चाटना, वफादार स्वान की तरह स्वीकार करके।
श्रवण कुमार ने प्रतिभा के बहकावे में अपने जीवन यापन, उज्जवल भविष्य के खातिर स्थापित यूनिट को, चोरी छुपे सेवकराम को अंधेरे में रखकर आहिस्ता–आहिस्ता कुतर-कुतर कर खोखली करके वगैर किसी बात-चीत, विचार-विमर्श, बिना, अनुमति एवं सूचना देने की आवश्यकता नहीं समझी। जिस यूनिट से श्रवण कुमार ने अपना करियर बनाया, उसे लात मारकर, कबाड़खाने में तब्दील करके, चोरों की भॉंति दूसरा जॉब ज्वाईन करना किसी भी शिष्टाचार की परिधि में नहीं आता। परस्पर व्यवहार के भी सर्वदा विपरीत है। जो किसी भी सामाजिक परिपाठी के उल्लंघन का साक्षात उदाहरण है। जिसे भूल पाना साधारण घटना नहीं होगा। सहानुभूति की अवमानना एवं अवहेलना है। इतना सब कुछ होने या करने पर आत्मग्लानि का भाव नहीं जागना मानवीय मूल्यों को कुचलने जैसा है। खेर!
सेवकराम की खून पसीने युक्त परिश्रम की कमाई दौलत से खड़ी की यूनिट को लावारिस छोड़कर, अपने आपके सुनहरे भविष्य की कल्पना में अपनी एक मात्र हितैसी और सर्व-सुरक्षित एवं सर्वे सर्वा पत्नि प्रतिभा का पहलू रोशन करके, उस चकाचौंध में श्रवण कुमार समा गया।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
न्न्न्न्न्न्