सोने की काफी असफल कोशिशों के बाद आखिरकार उसने एक निर्णय लिया। " आपकी जिज्ञासा आपको कभी सुकून नहीं दे सकती। इसी लिए उठो और जो तुम्हारा दिल चाहता है वो करो।" वीर प्रताप उठा, उसने कपड़े बदले अपने आप को आयने में निहारा और चल पड़ा अपने दिल के रास्ते।
उसने दूर से उसे देखा, वो उस पहाड़ की निचली सीडी पर बैठ कुछ सोच रही थी। बार बार कैनेडा वाले उस ब्रोशर को देख रही थी। उसके चेहरे पर एक अजीब उदासी थी। " ऐसे उदास बिल्कुल अच्छी नहीं लगती हो। हस दो में तुम्हारे लिए यहां तक आया हु। में तुम्हे ऐसे दर्द मे कभी अकेला नहीं छोडूंगा।" वीर प्रताप ने सोचा। वो जैसे ही खड़ी हुई और ऊपर जाने के लिए मुड़ी वीर प्रताप उस के सामने खड़ा हो गया। उसे अचानक वहा देख जूही चौक गई।
" मुझे क्यो बुलाया ? वो भी इस वक्त" वीर प्रताप ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा। उसे सामने से भी गुस्से वाले जवाब की तमन्ना थी। पर ना ही उसके चेहरे के भाव बदले ना ही उसका जवाब देने का तरीका।
" मैने नही बुलाया तुम्हे । तुम जा सकते हो।" जूही ने बिना किसी भाव के कहा।
" जा सकते हो मतलब। पता है में कितना जरूरी काम छोड़ कर यहां चला आया सिर्फ तुम्हारे बुलाने पर ।" वीर प्रताप।
" मुझे माफ कर दो। पर सच मे मैने तुम्हे नही बुलाया।" जूही ने सर झुकाते हुए कहा।
" यहां बैठे हुए क्या सोच रही थी ?" वीर प्रताप।
" तुम्हे कैसे पता ?" जूही।
" काश नही पता होता। सवाल मत करो जवाब दो।" वीर प्रताप।
" तुम्हारे कपड़े महंगे लगते है। तुम्हारे जूते भी। तुम्हारे पास एक महंगा होटल भी है। मतलब के तुम अमीर हो। फिर भी जब भी तुमसे मिलती हू तुम मुझे उदास क्यों लगते हो ???? ये सोच रही थी।" जूही।
" ठीक है। इतनी रात को बाहर घूमना जरूरी है?" वीर प्रताप।
" मासी से लड़ाई हुई है। अभी अंदर नहीं जा सकती। आधी रात जब वो लोग सो जायेंगे, चुप चाप वापस चली जाऊंगी।" अब जूही के चेहरे पर हसी वापस आने लगी थी।
" अच्छी आदत है। डर नहीं लगता रात को अकेले ऐसे पहाड़ के पास घूमने मे ??" वीर प्रताप।
" नही। में कभी अकेली नहीं होती हु। आत्माएं हमेशा मेरे आस पास रहती है।" जूही।
" अभी कहा है वो ????" वीर प्रताप।
" तुमसे डरती है। तुम जब भी दिखते हो भाग जाती है।" जूही।
" फिर भी तुम्हे में डरावना नही लगता?" वीर प्रताप।
" नही। हमे उम्र भर का रिश्ता निभाना है। ये जवानी ये रूप आज है, कल नही रहेगा। फिर क्या तुम मुझे छोड़ दोगे ?" जूही।
वीर प्रताप ने उसे गौर से देखा और बात बदल दी " अब तुम ठीक हो लगता है। चलो।" वीर प्रताप।
" हम कहा जा रहे है???" जूही।
" वहा जहा तुम्हे मुझ से डर लगेगा। जल्दी चलो।" वीर प्रताप आगे आगे चल रहा था, जूही उसके पीछे थी।
" में बस यहां इस लिए हू, क्यो की मैंने रात का खाना कुछ ज्यादा खा लिया था। अब चल कर उसे पचा रहा हु।" वीर प्रताप ने जूही की तरफ देखते हुए कहा।
" हा पता है। ये तुमने तीसरी बार कहा।" जूही।
" तुम कुछ गलत ना समझ लो इसलिए विस्तार से बता रहा हु।" वीर प्रताप।
" हा। तुम चाहे तो जा सकते हो। मुझे इन चीजों की आदत है। में संभाल लूंगी।" जूही।
" और तुमने भी ये तीसरी बार कहा। चुप चाप मेरे साथ चलो।" वीर प्रताप उसे पहाड़ के रास्ते एक चोटी के सिरे तक ले गया।
" वा........" जूही के आखों से उदासी पूरी तरह गायब हो चुकी थी। उसके ऊपर सितारों से सजा आसमान था। तो सामने टिमटिमाती रोशनी से भरा हुआ शहर। रात के वक्त जंगल मे कीड़ों की मधुर आवाजे थी। तो पौधों की धीमी खुशबू।
" कितना खूबसूरत है।" जूही ने वीर प्रताप की ओर देखते हुए कहा।
" बेहद।" वीर प्रताप ने किनारे पर खड़ी जूही को पहाड़ पर से धक्का दे दिया।
" आ.........." एक चीख के साथ जूही हवा मे थी। उसके दोनो पैर पहाड़ की चोटी पर थे पर शरीर पूरा चोटी से बाहर झुका हुवा था। वीर प्रताप उसका एक हाथ पकड़े पहाड़ पर खड़ा था।
" क्या तुम्हे अब भी डर नहीं लग रहा ?" उसने सवाल पूछा। " बताओ मुझे कौन हो तुम ? क्यों मेरा जादू मेरी मर्जी के बगैर तुम्हारे मुताबिक चलता है। क्यों तुम मुझे जब चाहो तब बुला सकती हो ? बताओ।"
" क्या मज़ाक है। मैने कहा ना में तुम्हारी दुल्हन हू।" जूही सिर्फ उसकी तरफ देखे जा रही थी।
" अगर मैने हाथ छोड़ दिया तो पता है ना क्या होगा ? सच बताओ।" वीर प्रताप।
जूही को समझ नही आ रहा था वो उसे कैसे यकीन दिलाए। पर एक बात तो पक्की थी, उसे डर नहीं लग रहा था। उसने एक मुस्कान के साथ वीर प्रताप का हाथ छोड़ दिया। वो नीचे खाई मे गिरे उस से पहले वीर प्रताप ने उसे अपनी तरफ खींचा। ये पूरा वाक्या कुछ मिनटों के भीतर हुवा।
जिसका अंत ऐसा था, की जब वीर प्रताप ने जूही को अपनी ओर खींचा वो सीधे उसके ऊपर जा गिरी। हाथ हाथ से मिला, कंधा कंधे से और होठ, होठ से। वीर प्रताप की लाल आंखे और भी बड़ी हो गई थी। पूरी घटना इतनी शर्मनाक बन गई थी, की पूरे रास्ते दोनो ने एक दूसरे से बात नही की। उसने आधी रात सही सलामत जूही को उसके घर छोड़ा और खुद अपने घर के रास्ते चल पड़ा।
घर पोहोचते ही, उसने कपड़े बदले । एक किताब ली और यमदूत के कमरे मे चला गया। बेचारा यमदूत अपना काम खत्म कर अभी अभी नाह धो कर सोने के लिए बिस्तर मे लेट रहा था की तभी उसके कमरे का दरवाजा खुला।
" ये कैसा है?" वीर प्रताप।
" क्या कैसा?" यमदूत।
" ये अवतार। ये कपड़े । मुझ पर अच्छे लगते है नही????? " वीर प्रताप।
" हा बोहोत अच्छा।" यमदूत।
" ना.... । मतलब बकवास है।" वीर प्रताप।
वो वापस अपने कमरे मे गया कपड़े बदले कुछ और किताबे छानी और वापस आया।
" इसके बारे मे क्या ख्याल है ?" वीर प्रताप।
यमदूत ने अपने सर पर हाथ मारा। आधी रात को दो घंटे अलग अलग कपड़े और अवतार आजमाने के बाद आखिर कार थक हार के जब यमदूत सो गया। तभी वीर प्रताप ने उसकी ओढ़ी हुई चद्दर वापस उठाई।
" तुम ऐसे सोते हो ? क्या ये कोई कफन है? फूल ले आवु तुम्हे चढ़ाने के लिए ?" वीर प्रताप ने पूछा।
" मेरे लिए ये आरामदाई है। तुम्हे कोई परेशानी ????" यमदूत।
" नही। गुड नाईट। सो जाओ।" वीर प्रताप वापस अपने कमरे मे चला गया। बड़ी मुश्किल से उसे नींद आई और एक सपना।
खूबसूरत रात, उसका साथ और एक दूसरे से मिलने वाले वो होठ।
" आ......" चीखते हुए वो अपने बिस्तर से उठा। " नही। पागल हो गए हो क्या पिशाच। वो नही हो सकती। वो....... ही क्यों????" उस सपने के बाद नींद से मानो उसकी दुश्मनी हो गई।
सुबह सुबह यमदूत उठा, हर तरफ नए फूलो की खुशबू थी। उसने आंखे खोली। " आज तो तुम मेरे हाथो मरोगे। पिशाच.........." उसका खूबसूरत सफेद बिस्तर, वीर प्रताप ने रात को लाल रंग मे बदल दिया था।
" और अच्छी नींद आई। कोई परेशानी तो नहीं है, तुम्हे मेरे घर मे।" वीर प्रताप ने यमदूत का मज़ाक बनाते हुए कहा।
" नही। तुम यहां हो तो कोई ओर परेशानी यहां आने की हिम्मत नही करेगी। पर मुझे ये कुछ कपडे मिले है।" उसने वीर प्रताप के अंडरवियर को दिखाते हुए कहा।" क्या ये तुम्हारे है ? गंदे, कपड़े।"
" उन्हे नीचे रखो।" वीर प्रताप ने उसे गुस्से से देखा।
" क्या हुवा ? ये तुम्हारे कपड़े नही है। ओ.... तुम्हे इन कपड़ो की जरूरत नही है।" यमदूत ने उन कपड़ो की तरफ देखते हुए कहा। " क्या ये पिशाच अभी भी एक मर्द है ????"