उजाले की ओर
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स्नेही मित्रो
नमस्कार
हम अपने बच्चों को छोटेपन से ही पढ़ाते रहते हैं ,कोई आए तो उसके सामने तमीज़ से पेश आना,मेहमान के सामने रखे हुए व्यंजनों में हाथ मत मारना,पहले ही खा लो जितना खाना है | अब उस समय आपके लाड़लों का खाने का दिल नहीं होता या उनका मन करता है कि वे उन अतिथि विशेष के सामने ही खाएं ,वे भी उनमें सम्मिलित हों तो क्या कर लेंगे भला ? हम उन्हें तहज़ीब सिखाते-सिखाते थक जाते हैं और वे हमारे भाषण सुन सुनकर खीजते रहते हैं और उन विशेष मेहमानों के सामने ऐसा ही कुछ अवश्य कर देते हैं जिससे लगता है ,भई नाक कटवा दी |
हम सब यह कर चुके हैं और वास्तविक बात बहुत बाद में समझ आई है कि भाई बच्चों पर इतना नियन्त्रण क्यों ? मेहमानों के सामने वे उनके सामने सोफ़े पर चढ़कर खूब मस्ती करेंगे ,सामने के दीवान पर उछल-कूद करेंगे और कुछ नहीं तो अपने खिलौनों की टोकरी या पेटी उठा लाएंगे और वहीं कालीन पर या फर्श पर उलटकर बहुत विजयी भाव से अपने हाथों में कोई खिलौना विशेष नचा-नचाकर दिखाएंगे जिससे मेहमान का ध्यान स्वाभाविक रूप में उस बच्चे और उसके खिलौने पर जाएगा और वह पूछेगा ही ;
“अरे ! बड़ा सुन्दर है !कहाँ से लिया ---?”
बच्चा और इतरा जाएगा और मटककर कहेगा ;
“मेरे मामा जब जापान गए थे न ---वहाँ से लाए थे ”
फिर बच्चे की बात तो बीच में ही रह जाएगी और शुरू हो जाएगी बच्चे के भाई की बात ! वह साल भर में कितने टूर करता है ! किस–किस देश से क्या-क्या लाता है | बहुत बड़ा नाम है उसका ! बच्चा अपने हाथ का खलौना झुलाता बुरा सा मुह बनाकर एक तरफ खड़ा रह जाएगा और कुछ न कुछ बोलने ,अपने मन की बात कहने के चक्कर में बार-बार आगे आएगा पर पीछे धकेल दिया जाएगा |हाँ,इस बीच बच्चे की माँ का मायका और भाई-बहन पुराण शुरू हो जाएगा |बेचारा मेहमान भी यह महसूस करने लगेगा कि हाय रे! आखिर उसने बच्चे से क्यों और किस घड़ी में पूछा होगा कि बेटा ! ये खिलौना तो बड़ा सुन्दर है !!
हम बच्चों को तो बहुत संस्कारी,बहुत तहज़ीबदार बनाना चाहते हैं किन्तु अपने ऊपर हमें कोई अंकुश नहीं रह पाता |कई बार बच्चों को सिखाते हुए हम वे ही सब करने लगते हैं जो हम बच्चों से न करने की अपेक्षा करते हैं |सच तो यह है कि बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं ,कहीं न कहीं हम बड़े ही अपनी चेष्टाओं से बच्चों को उनकी उम्र से पहले ही बड़ा बनने पर मजबूर कर देते हैं|कोई भी बात क्यों न हो ,बच्चे उसे बड़ी साफ़गोई से कह देते हैं,मुल्लमा तो हम बड़े ही चढ़ाते हैं |हमसे ही तो वे सब संस्कार अनजाने में ही सीखते रहते हैं और उनका व्यक्तित्व उसी प्रकार ढल जाता है जिस प्रकार वे महसूस करते हैं | हम बेशक बच्चों की बात को ध्यान से सुनें या न सुनें और उन पर ध्यान दें या न दें लेकिन यह सौ फीसदी सत्य है कि बच्चों में बातों को सूंघने की शक्ति बहुत गहरी होती है|
इसीलिए यह आवश्यक है कि हम अपने व्यवहार ,भाषा एवं तौर-तरीकों पर ध्यान दें जिससे बच्चे सहज रूप में अपने व्यक्तित्व में उस गरिमा को भर सकें जो हम चाहते हैं अथवा हम इच्छा करते हैं |
मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है ||
बच्चा बेचारा गोल-गोल घूमता ही रह जाता है कि भई जब हमारे बड़े यह व्यवहार कर रहे हैं तब हमें क्यों टोका जाता है ?तो चलिए ,सोचें इस बात में कितना दम है !!
आप सबकी मित्र
डॉ प्रणव भारती