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कर्ण पिशाचिनी की एक दूसरी स्टोरी :-
भाग - 1
कुछ दिन पहले ही पूर्णिमा खत्म हुई इसीलिए गोल चाँद धीरे धीरे अपनी आकृति को खो रहा है । चारों तरफ सन्नाटा है । नहीं पूरी तरह सन्नाटा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि सन्नाटे में भी कुछ आवाजें होती है ।
दूर बहुत दूर कुछ सियारों की ' हुऊऊऊऊ ' आवाज सुनाई दे रहा । पत्तों पर हल्का हवा लगने के कारण सरसराहट की आवाज तैयार हुआ है । और बारिश की वजह से पेड़ के पत्तों से गिरने वाली ' टप टप टिप ' की आवाज भी उसका साथ दे रही है ।
चारों तरफ के सन्नाटे में एक जोड़े पैरों ने खलल डाला । एक सुडौल आदमी हाथ में मशाल लेकर जंगल की शांति को भंग करते हुए आगे बढ़ रहा है । उस आदमी की आंखों में दृढ़ संकल्प व तीव्रता है । उसने हल्का लाल वस्त्र पहना है । वह अकेले ही जल्दी से आगे बढ़ता जा रहा है । उसके पैरों की आवाज से पास ही सूखे पत्तों में आवाज करके किसी सरीसृप ने अपनी उपस्थिति को दर्शाया ।
लेकिन पदचर का उस तरफ कोई ध्यान नहीं है वह केवल सामने अपने गंतव्य की तरफ चलता ही जा रहा है । अंधेरा रास्ता और जंगल के भयानक परिवेश उसे किसी भी तरह भ्रमित नहीं कर पा रहे हैं । क्योंकि जिस कार्य के लिए वह जा रहा है वो इससे भी हजार गुना ज्यादा भयानक है । जंगल का घनत्व और साथ ही पदचर की गति दोनों कम होने लगी ।
जंगल के बीच से एक जगह थोड़ी सी रोशनी दिखाई दे रहा है । पदचर के पैर जहां रुके वहां पर जंगल की सीमा समाप्त हो जाती है । सामने एक पुराना टूटा फूटा मंदिर बना है और मंदिर के सामने बने चौखट को किसी ने अच्छे से साफ किया है । मंदिर प्रांगण के पास दो मशाल जल रहा है । उस मशाल के रोशनी में दिखाई दिया कि एक बूढ़ा आदमी किसी की प्रतीक्षा में खड़ा है । पदचर को देखकर वह बूढ़ा आदमी आगे की ओर आए । पदचर ने हाथ की मशाल को रखकर बूढ़े आदमी के सामने साष्टांग प्रणाम किया ।
" अरे अरे हर्षराय यह क्या कर रहे हो ? उठो वत्स तुम तो प्रजा के सेवक हो । "
" लेकिन गुरु का स्थान सबसे ऊपर होता है । गुरुदेव मेरे प्रणाम को स्वीकार कीजिए । "
" देवता का स्थान उससे भी ऊपर होता है । मंदिर प्रांगण में देवी - देवता के सामने दूसरों को प्रणाम नहीं करते । मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा । "
हर्षराय इस समतल उपजाऊ भूमि के एक बड़े जमींदार हैं । चारों तरफ के विस्तार वादी प्रक्रिया होने के बावजूद उन्होंने अपने स्थान को बरकरार रखा है । पहले के कुछ छोटे जमींदार आज उनकी बातों पर उठते - बैठते हैं । हालांकि कागज कलम के हिसाब से यह होलकर राजवंश के अधीन में है । यहाँ इस वक्त मल्हारराव होलकर प्रथम का राज है लेकिन उनके राज्य में छोटे जमींदार अपनी शक्ति व प्रभाव को बढ़ा रहे हैं इस बारे में उन्हें कोई खबर नहीं ।
हर्षराय तिवारी ब्राह्मण के लड़के हैं लेकिन काम और कुशलता में वो पूरी तरह क्षत्रिय हैं । उनके जीवन में एक ही नशा है और वह है अपनी शक्ति को बढ़ाना । इसके साथ ही वो त्रिकालज्ञ भी होना चाहते हैं । वो अभी तक अविवाहित हैं । जीवन में केवल दो लोगों के सामने अपना सिर झुकाते हैं पहला उनकी इष्ट व पूज्य कात्यायनी देवी और द्वितीय उनके गुरु भैरवानंद ।
और अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए ही आज वो यहाँ पर आए हैं । उनके चेहरे के प्रत्येक रेखा में उनका दृढ़ संकल्प स्पष्ट दिखाई दे रहा है । अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए वो कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार हैं । चाहे वह कितना भी भयानक हो ।
भैरवानंद तंत्र में सिद्ध पुरुष हैं लेकिन अपने संतान जैसे हर्षराय की सिद्धांत को देखकर उनका मन थोड़ा विचलित है ।
" बेटा हर्षराय तुम एक बार फिर सोच लो । "
" गुरुदेव मैंने इसके लिए दृढ़ संकल्प ले लिया है । यह शक्ति मुझे चाहिए क्योंकि मैं भविष्य को जानना चाहता हूं । "
" लेकिन भविष्य में आने वाले तुम्हारे अपने वंश की रक्षा भी तो तुम्हारा कर्तव्य है । "
" मैंने सब कुछ विचार कर लिया है । मैं जानता हूं कि क्या हो सकता है और मैं क्या पा या खो सकता हूं । पर मैंने यह करने का सिद्धांत बना लिया है । "
" लेकिन क्या तुम्हें पता है कि यह पूरी प्रक्रिया कितना भयानक व डरावना है ? केवल थोड़ी सी गलती और तुम्हारी मृत्यु हो सकती है । "
" जानता हूं गुरुदेव , आप मेरा मार्गदर्शन कीजिए मैं हमेशा तैयार हूं । "
उसी वक्त एक और सियार की ' हुउउउउउउउउउ ' आवाज सुनाई दिया ।
इस मंदिर के ठीक पीछे ही पवित्र शिप्रा नदी बह रही है । एक झटके हवा ने उस पार के श्मशान में जलते मांस की गंध अपने साथ ले आई । पूरी प्रकृति मानो जैसे अशुभ का संकेत दे रही है ।
हर्षराय नदी में स्नान समाप्त करके गुरुदेव के सामने आकर खड़े हो गए ।
" गुरुदेव आदेश दीजिये । "
" चलो बेटा पहले देवी महामाया की आशीर्वाद लेना है । "
" गुरुदेव जंगल के अंदर एक ऐसा मंदिर भी है यह तो मैं पहले नहीं जानता था । वैसे भी जंगल के इस तरफ कोई भी नहीं आता । और देवी की इस प्रचण्ड रूप को मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा । "
" ये है देवी गुह्य काली की मूर्ति । इन्हें तांत्रिकों की देवी कहते हैं । मान्यतानुसार देवी शताक्षी ने देवलोक को असुरों से बचाने के लिए अपने अंश से काली , तारा , कामाख्या , भैरवी , मातंगी , गुह्य काली ऐसे और अन्य रूपों में प्रकट होकर एक सेना बनाई और असुरों की सेना को परास्त किया । देवी गुह्य काली गृह में नहीं पूजी जाती हैं । ये देवी बहुत ही रहस्यमय व गुप्त और केवल तांत्रिक सिद्धि की देवी हैं । इनके साथ बहुत सारी विध्वनशक मातृशक्ति विचरण करती हैं जैसे डाकिनी , शाकिनी इत्यादि । जो कि साधकों की सभी मनोकामना को पूर्ण कर देती हैं । देवी शक्ति भिखारी को राजा और राजा को भिखारी भी बना सकते हैं । इसीलिए बेटा अंतिम बार के लिए सोच लो क्या तुम अब भी इस पथ पर आगे बढ़ना चाहते हो । इसके फलस्वरूप तुम्हारा आगामी जीवन संपूर्ण बदल जाएगा । अगर तुम चाहोगे फिर भी सब कुछ पहले जैसा नहीं होगा । "
" गुरुदेव मैंने सब कुछ सोच कर ही इस पथ पर चलने का निर्णय लिया है । "
देवी की पूजा समाप्त करने के बाद भैरवानंद अपने साथ हर्षराय को जंगल के और अंदर की ओर लेकर चल पड़े । एक मशाल की रोशनी और दो मनुष्य परछाई धीरे - धीरे जंगल के अँधेरे में गायब गए ।..
गुरुदेव भैरवानंद के साथ हर्षराय जहाँ पर आकर खड़े हुए वह एक खुला जगह है । शिप्रा की कलकल करती धारा अपनी उपस्थिति को दर्शा रही है । आसमान के चाँद की हल्की रोशनी में अच्छे से सब कुछ नहीं दिखाई दे रहा ।
मशाल भी खुराक ना पाने की वजह से क्रमशः अपनी रोशनी को समेट रहा है । दूर एक अग्निकुंड व उससे उठता धुआँ दिखाई दे रहा है । जलती हुई चिता , हर्षराय यह देख समझ गए कि शिप्रा नदी के उस पार श्मशान है । और यह स्थान ठीक उसके विपरीत स्थित है ।
गुरुदेव भैरवानंद बोले ,
" बेटा यही तुम्हारा साधना स्थल है । आने वाले 21 दिनों तक तुम्हें यही पर साधना करना होगा । तभी तुम्हें इसका फल मिलेगा । मैंने तुम्हारे साधना में लगने वाले सभी सामग्री को पहले से जुगाड़ कर रखा है । तुम साधना का संकल्प मेरे नाम से करोगे । गुरु नाम से संकल्प किए बिना साधना पूर्ण नहीं होगा । लेकिन मैं यहां पर नहीं रह सकता । केवल मैं ही नहीं , तुम्हारे अलावा यहां पर कोई भी नहीं रहना चाहिए । इस साधना भूमि पर एक निर्दिष्ट लकीर मैंने बना दिया । कुछ भी हो जाए आगामी 21 दिन तुम उस लकीर से बाहर नहीं निकलोगे । तुम्हारा आहार , निद्रा व नित्य क्रिया सबकुछ इसी के अंदर करना होगा । अनाज व पानी से भरे घड़े हैं लेकिन अगर आहार व पानी की कमी हुई तो तुम्हें अपने मल - मूत्र को ही भोजन के रूप में ग्रहण करना होगा । मानसिक रूप से तैयार रहना । साधना समाप्त होने से पहले ही अगर तुम लकीर से बाहर निकल गए तो मृत्यु अवश्य हो जाएगी । तुम जिसकी आह्वान कर रहे हो वही तुम्हारी मृत्यु का कारण बनेगी । "
" अपने मल - मूत्र से ही आहार ? "
" हाँ बेटा , यह बहुत ही कठिन साधना है । इसीलिए तो मैं बोल रहा हूं कि एक बार और सोच लो । इसके अलावा और भी चीजें हो सकती है । तुम जिसकी आह्वान करने जा रहे हो वो हैं देवी श्मशान काली की सहचरी यक्षिणी देवी कर्णपिशाचिनी ।
निम्न तंत्र में 3 दिनों के अंदर भी कर्णपिशाचिनी को वश में किया जा सकता है लेकिन उस क्रिया में साधक असली यक्षिणी का दर्शन नहीं पाते । उसमें किसी निम्न श्रेणी की आत्मा का दर्शन मिलता है उसमें भी वह पिशाच कानों में भविष्य व अतीत बताता है । "
" फिर यक्षिणी व प्रेत क्या एक ही ? "
" नहीं बेटा , सोना और पीतल क्या कभी एक जैसे हो सकते हैं । पुराण व तंत्र मत में सभी देवी की एक अंधकार व तामसिक रूप होता है । और उस तामसिक रूप के अधीन बहुत सारे भयानक शक्तियां जैसे डाकिनी , शाकिनी , हाकिनी, लाकिनी , यक्षिणी रहती हैं । यक्षिणी देवियों के आशीर्वाद से सम्पत्ति लाभ भी होता है । देवी सरस्वती की तामसिक व तांत्रिक रूप है देवी मातंगी और उनकी अधीन भयानक शक्ति हकिनी है । इसी तरह तुम देवी कर्णपिशाचिनी साधना के अंत में त्रिकालज्ञ हो जाओगे । अतीत व भविष्य की घटनाओं को तुम जान सकोगे । कर्णपिशाचिनी ही तुम्हारे कानों में सबकुछ बोल देगी । लेकिन उससे पहले कर्णपिशाचिनी को तुम्हें पूरी तरह संतुष्ट करना होगा । "
हर्षराय गुरुदेव के इशारे को समझते हुए बोले ,
" मैं तैयार हूं गुरुदेव । "
" इसके बाद तुम किसी भी महिला के साथ विवाह नहीं कर पाओगे । "
" मुझे अपने प्रजा और अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए त्रिकालज्ञ होना ही पड़ेगा । इसके लिए मैं कोई भी मूल्य दे सकता हूं । "
इन बातों को बोलते वक्त हर्षराय यह नहीं जानते थे कि इस शक्ति को पाने के लिए उन्हें भविष्य में कितना भयानक मूल्य चुकाना पड़ेगा ।...
...अगला भाग क्रमशः....
@rahul