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‘‘दीदी... तुम्हे पता है जेठा जोगी क्यों आये अचानक,’’ बैजन्ती पीछे मुड़ी-हमारी सासू जी को मिल गये थे वे हरिद्वार में...! जब वे बैसाखी को गंगा नहाने गई थी हरि की पैड़ी पर जाते हुए जोगियों की जमात में, पीछे मुड कर खड़ी होकर फुसफुसाई-सासू ने देखा जोगियों के झुंड में अपने जेठा जी मस्त जा रहे हैं। ये चकरा गई कि आज कहाँ से मिल गया बेटा! ससुर जी को गंगा मंदिर में रूकने को बोल कर लपकी थी, जोगी जमात के पीछे,’’ मैं’ तो उसकी बात सुनकर चकरा ही गई, यकीन नहीं हुआ-तू सच्ची कह रही बैजन्ती....?
‘‘हाँ दीदीऽ.. एकदम सच्ची खुद उनके मुँह से सुना जब तुम्हारे देवर को खुशी से उछलती बता रही थी। मैं चाय देने गई तो ठिठक गई देहरी पर...’’
‘‘फिर...?’’
‘‘फिर सासू जी ने जेठा जी का नाम पुकारा जोर-जोर से-ओऽ जगदीश...ऐऽ बेटा.. जगदीश!’’ और तेजी से उनके आगे आ गई-मैंने तुझे पहचान लिया बेटा... ‘‘और सड़क में भरभरा कर रोने लगी, जोगी सब घेर कर खड़े हो गये-माता जी जोगी किसी के बेटे नहीं होते’’ पर इन्होंने उनकी बाजू पकड़ लिये-ऐ बेटा तू कितना निठुर है अपनी चाची को भी भूल गया? और फिर बचपन की यादों की गांठ खोलने लगी जेठा जी तो खड़े ही रह गये थे आवाक! दूसरे जोगी आगे बढ़ गये, तब इन्होंने कहा-बेटा तू दर-दर भटक रहा है और तेरी औरत उसकी करतूत देखी नहीं जाती बेटा ‘‘मोटे-मोटे आँसू गिराने लगी बुढ़िया।
‘‘क्या हुआ उसे?’’
‘‘होना क्या था बेटा तेरे भाई को हड़प कर सुख भोग रही है, अब तो बच्चा भी है दो वर्ष का! और तू दो मुटठी अन्न के लिये देहरी-देहरी डोलता है कर्मजला....?’’
फिर पता नहीं क्या भड़काया (मैंने) नहीं सुना आवाज धीमी हो गई थी।
ओह! मुझे दुख के साथ गुस्सा भी आया-कुछ और सुना होगा तूने बैजन्ती याद कर....’ मैंने उसे झकझोरा, वह कुछ सोचते हुए चौंक उठी-इन्होंने कहा कि घर चल तेरी स्त्री है, तेरा हक है उस पर....‘‘पता नहीं उस कुटिल औरत को मुझसे क्यों इतनी ईष्या थी कि उसने कहा-तू हर तरह से भूखा प्यासा सड़कों पर डोल रहा है क्यों? तेरा भाई तेरे हिस्से का सुख भोग रहा है जोगी।’’ मैं सोचती हुई बैजन्ती के साथ घर में घुसी तो भीड़ छँट चुकी थी, जोगी तख्त पर लेटा था, बच्चा उठकर दरवाजे से बाहर आने को था, बाहर से कुंड़ी बंद थी, मैंने बच्चे को सीने से लगाया और अंदर से कुंडी बंद कर दी, दोपहर का समय था, भोजन करने जोगी चाची के घर चला गया तो मैंने चैन की सांस ली। रात को जैसे ही मैं बाहर के किवाड़ बंद कर सोने जा रही थी वह आ गया....। मेरे भीतर जलजला उठा।
‘‘तुम यहां नहीं आ सकते?’’ मैं अब तुम्हारी पत्नी नहीं रहीं।’’ वह धकेलने लगा दरवाजा। मैंने भी जोर लगाया और उसे बाहर धकेल दिया। अगले दिन वह सुबह ही घर के भीतर आ धमका। उसका जो कमरा था सीधे उसमें घुस कर उसी पुराने पलंग पर लेट गया। जो मेरी माँ ने दहेज में दिया था।
मैं डरती-डरती दरवाजे तक गई। खुद को संभालने की कोशिश कर अपना खोया विश्वास जगाने लगी। अपने फौजी के प्यार भरे शब्दों को याद करने लगी। मेरी देह काँप रही थी। लड़खड़ाती आवाज को संभालने की अथक कोशिश करते हुए मैं बोली थी-अब तुमने वैराग्य धारण कर लिया है, तुम किसी के कुछ नहीं हो और साधु महात्मा होने के बाद संसारी के घर में रहना भी पाप है.....। इतना भी समझ नहीं आता?’’
वह तेजी से उठा और मुझ पर चील सा झपट पड़ा-तू मेरी औरत है। याद कर हमने कितने सुंदर क्षण बिताये थे, पूरी रात में तुझे सीने में चिपकाये सोता था, उसकी आंखों में लाल डोरे तैर रहे थे। वह मेरी धोती का पल्लू खींचने लगा, नहींऽ....नहींऽ ये पाप है....‘‘ मैं किसी तरह खुद को बचाकर बाहर निकली और बगल में चचिया सास की देहरी पा जोर से बोली-एक जोगी को जबरदस्ती मेरे घर में घुसाकर क्या मिला तुम्हें....?’’ मैं रोती बिलखती जा रही थी, मेरा रोना चिल्लाना सुनकर फिर गांव के लोग भीड़ बन कर तमाशा देखने आ गये। बड़े बूढ़े मर्दों की बैठक हुई। मैंने साफ कह दिया कि जोगी मेरी देहरी नहीं लांघ सकता, पर, सबने जोगी को शरण देने का दबाव बनाया-ये घर जगदीश का भी है, अगर, वह वापस आया है तो उसको उसका हक मिलना चाहिये...। पंचायत बैठी। फैसला उसके हक में हुआ। सबने एक स्वर में कहा-सौभाग्यवती रमोली जगदीश की ब्याहता है, अब उसे उसके साथ पति धर्म निभाना होगा। मैं बच्चे को लेकर फिर कमरे में बंद हो गई। खूब रोई पर मेरा मन किसी भी तरह यह मानने को तैयार नहीं हुआ।’’ फिर अचानक मेरे दिमाग की बत्ती जल उठी। मैंने खाना बनाया, उसकी थाली देकर कहा-मेरे दिन चल रहे हैं। जब तीन दिन बाद नहा लूँगी फिर हम साथ सोयेंगे। पर तुम इस बच्चे को भी प्यार करोगे जो तुम्हारा नहीं है। उसने खाने की थाली वापस कर दी-मैं इस समय तेरे हाथ का नहीं खाऊँगा... थोड़ी देर में चाची के घर से उसका खाना आ गया। मैंने भविष्य की सूची बनानी शुरू की कि वह बैल लेने जायेगा, हल जोतेगा, खेती किसानी करेगा, मैं एक भैंस और रख दूँगी और वह अपने भाई की शादी कर देगा। वह मान गया। सुबह मैंने उसे जानवरों के साथ जंगल भेज दिया और बड़ा झोला उठाया, उसमें जरूरत भर का सामान रखा। आँगन में ताँबे का तौला (बर्तन) था उसमें बच्चा और सामान रखा, जाते समय चचिया सासू को आवाज दी- मैं गाड़ में कपड़े धोने जा रही हूँ, घर का ध्यान रखना कहीं उसे पता न चले कि रमोली भाग गई। माँ का घर भी तो कितनी दूर है, उस पर ये ऊँची पहाड़ी का रास्ता! बस ये पहाड़ी पार हो जाऊँ... उसके बाद खतरा नहीं। मैंने विधवा माँ को संदेश भिजवा दिया था, वह भी रास्ते लगी होगी...।
बहुत थक गई हूँ, थोड़ी देर बैठ जाती हूँ, इस पत्थर पर...। यहाँ से दिख रही है घाटी और रास्ता...। मोड़ों पर दृष्टि अटक रही है, कहीं किसी मोड़ से निकल आया तो...? पर कहीं कुछ नहीं, सुनसान रास्ता, अब इतमीनान से रोटी खा सकती हूँ। कंठ सूख रहा है। पानी की दरकार है। यहीं कहीं होता था बाँज की जड़ों से रिसता ठण्डा पानी। पानी ही है जो घायल देह-मन को जीने की ताकत देता है।
सूरज मेरे माथे पर चमक कर पहाड़ी के पीछे छुपने वाला है, उसकी किरणें धरती में विलीन हो रही है, ‘कल फिर सुबह होगी....’ इसी उम्मीद में धरती उसे विदा दे रही है।
मेरी उम्मीद रेत की मछली सी उस तार में बंद फड़फड़ा रही है, जो अभी भेजा ही नहीं गया...। अंधेरे की फुसफुसाहट शुरू हो गई है। बच्चे को फँछे पर बांधकर उठती हूँ। ऊपर से सीधा रास्ता है। बस थोड़ी दूर...। अब काहे का डर? अब तो जीत ही ली है जंग! सोचती हुई एक बार सरसरी नजर नीचे डालकर धक्क रह गई, भगुआ रंग पहाड़ी पर फड़फड़ा रहा है। अरे! इसके हाथ में डंडा भी है! मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं-अचानक जिन सा कहाँ से प्रकट हुआ कमबख्त जोगटा! मुझे तेजी से चलना चाहिये...। अभी आधा मील सीधा रास्ता है...। उस पर सरगोशी करता अंधेरा! जितनी तेजी से बोझ उठाये चल सकती हूँ...। चल पड़ती हूँ....।
सामने दिखने लगी है चाय की गुमटी। गहराते अंधेरे के बीच उसकी सफेद टिन की छत और चूना चमक रहा है। काले बादलों को चीरता सूरज जैसे.... मेरी उम्मीद का ठिकाना! मां वहीं बैठी राह देख रही होगी, (चाय की गुमटी मेरी चचेरी बहन के पति की है) ओः..! मांऽ....। थोड़ा आगे बढ़....मुझसे चला नहीं जा रहा अब.... पांव लड़खड़ा रहे हैं....। खौप का खंजर रीढ में घुसकर साँस लेना भी दुश्वार कर रहा है... कहीं दम ही न निकल जाये...?
मेरा बच्चा फँछे के भीतर चिड़िया के चूजे जैसे फड़फड़ा रहा है-माँऽ....उताल नीतेऽ.... ‘देख बेटा कनु... वोऽ देख... नानी... और मौसा जी बाहर निकल गये हैं.... अब पहुँच गये बेटा! मैं जोर से बोले जा रही हूँ... पर आवाज गले में ही अटक रही है... जोगी डण्डा लहराता नजदीक आ रहा है...।
‘‘रुक जाऽ....रमो...लीऽ... रुक जाऽ...’’ इसकी आवाज शान्त कोलाहल को चीरती हुई मेरे ऊपर गिरने लगी है.....। मैं और तेजी से चलने लगी हूँ उफ! रास्ते में खड़े पत्थर से ठोकर खाकर गिरने वाली हुई कि माँ की मजबूत बाँहों ने मुझे थाम लिया है! मेरी रूलाई फूटने वाली है। पर सहम जाती हूँ... जीजा जी पीठ से फँछा उतार कर बच्चे को गोद ले रहे हैं, बच्चा जोर-जोर से रोने लगा है। हम तेजी से गुमटी के भीतर जा रहे हैं कि भीषण शोर में पत्थर में तब्दील हो रही है। अरे! सारे गाँव के मर्द.. जलती मशालें लिये पुकार लगा रहे हैं- वापस लौटो... हम तुम्हें नहीं जाने देंगे...’’ इनकी आवाजों के समवेत स्वर से पहाड़ी के सुरम्य एकांक भर कर काँपने लगा हैं, जीजा जी मुझे भीतर ठेलते हैं। अंधेरी कोठरी में मैं बच्चे को लेकर खटोले पर गिर जाती हूँ, बाहर भीषण शोर बढ़ता जा रहा है, जोगी चिल्ला रहा है- मेरा माल वापस करोऽ... गाँव वाले चिल्ला रहे- हमारा माल वापस करोऽ....’’अकेले जीजा जी इतने सारे लोगों के साथ कैसे लड़ेंगे...? मेरे गले से अब तक जमी रूलाई फूट पड़ती है... पर माँ बाहर से आकर मुझे आश्वस्त करती है कि जीजा अकेले नहीं हैं, गाँव के चार लड़के हीरा, शंभू, हरि, उमा आ गये हैं...।’’ ये चार भाई गाँव के दबंग हैं, हलवाहे किसान! मां ने बताया होगा...।
‘‘हमारी बहन नहीं जायेगीऽ... चुपचाप चले जाओऽ...’’ उनकी आवाजें कोठरी के भीतर आ रही हैं-
‘‘हमारा माल है... हम लेकर जायेंगे..’’ आवाजों का भीषण युद्ध...! फिर मार पीट... गाली गलौज... किसका सिर फूटा...? किसकी टाँग टूटी...। मुझे नहीं मालूम। मैं तो अपनी रोशनी में लिपटी फौजी से चिरौरी कर रही हूँ- देखोऽ... जल्दी आना... तार मिलते ही...
और अब? महिना बीत चुका, ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं पगडंडी पर लहराती, बलखाती, गिरती, पड़ती, पोस्टमैन की एक झलक पाने पंचायती चौक नहीं गई, चौक की दीवार पर घण्टों बैठी रही...। कभी नयार की तरफ दौड़ती बावली सी... आज बुखार से तप रही है देह...। पर मन तो झंकृत था-प्रेम की सुहास से...। उम्मीद ने साथ नहीं छोड़ा था, सीमा पर प्रहरी बन जो प्राण गंवाने को आतुर है वह एकदम तो नहीं आ सकता है? हो सकता है पटियाला में फेमली परमीशन लेकर हमारे लिये बसावट के बंदोवस्त में व्यस्त हों।
‘‘सिडंली गांव से आदमी आया था, चिट्ठी दे गया है...’’ माँ चिटठ्ी और काढा एक साथ थमा रही है। मैं लिफाबे के भीतर से चिट्ठी निकालती हूँ। अब हम साथ रहेंगे, मुझे बुलावा आया होगा। पर चिट्ठी के अक्षर देखकर मेरे होश फाख्ता हो गये है...।
‘‘जैसे कि विश्वसनीय सूत्रों से पता चला, कि तुम मेरे सन्यासी भाई के साथ एक घर में रही..! मुझे तुम पर विश्वास नहीं रहा। अब मैं तुम्हे स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, अगले महिने मैं विवाह कर रहा हूँ। भाई भी अब गृहस्थ आश्रम में आ गये। हम दोनों भाई एक ही मण्डप में विवाह करेंगे, ऐसा विचार बन रहा है, शेष सब कुशल मंगल है, बच्चे को प्यार’’।
25 मार्च, 1950
हवलदार प्रदीप शर्मा,
गांव सिंडली पट्टी नैलस्यूं, पो0ओ0 सतपुली, जिला-पौड़ी गढ़वाल।
पुनश्यः नियति ने हमारी तकदीर में ऐसा ही
लिखा था.....होना।
कुसुम भट्ट