sohabat in Hindi Children Stories by padma sharma books and stories PDF | सोहबत

Featured Books
  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

  • સંઘર્ષ જિંદગીનો

                સંઘર્ષ જિંદગીનો        પાત્ર અજય, અમિત, અર્ચના,...

  • સોલમેટસ - 3

    આરવ રુશીના હાથમાં અદિતિની ડાયરી જુએ છે અને એને એની અદિતિ સાથ...

  • તલાશ 3 - ભાગ 21

     ડિસ્ક્લેમર: આ એક કાલ્પનિક વાર્તા છે. તથા તમામ પાત્રો અને તે...

Categories
Share

सोहबत

सोहबत

पिताजी की आवाज नीरवता को भंग करती चली गई। वे जोर से चिल्ला रहे थे-"क्या कहा, तू आगे नहीं पढ़ेगा ? पढ़ेगा नहीं तो और क्या करेगा? तू चोरी करेगा? या हराम की खाएगा?"

रात गहराने लगी थी।
सब लोग सोने की तैयारी कर रहे थे , वहीं अरविन्द के घर में कलह मची हुई थी। अचानक उसके रात्रि ने पूरा वातावरण अपने आगोश में ले लिया था। चारों ओर नीरवता और सन्नाटे के साथ-साथ अन्धकार छाया हुआ था।

भय से काँपते हुए बारह वर्षीय अरविन्द ने कहा-"पिताजी मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता। मैं आगे पढ़ना नहीं चाहता।" उसकी इस बात से तो घर में भयंकर विस्फोट हो गया, एक भूचाल-सा आ गया पिताजी ने गरजते हुए उसे उपदेश दिया-"अरे हम तो मेहनत मजदूरी करके थोड़ा बहुत ही पढ़ पाए और आगे पढ़ने की तमन्ना मन में ही रह गई! पढ़ाई के लिए पैसे नहीं रहते थे दूसरों से किताबें माँग कर पढ़ते थे। फीस जमा करने के लिए कड़ी धूप में काम करते थे। दिनभर मेहनत मजदूरी और रात को पढ़ाई करते थे। एक तुम हो आज की औलाद सारी सुविधाओं के बावजूद भी पढ़ना नहीं चाहते। अभी तो ठीक है नहीं पढ़ोगे लेकिन जब बड़े हो जाओगे तो पछताओगे। जब समय निकल जाएगा तो हाथ मलते रह जाओगे फिर वह समय लौटकर नहीं आ पायेगा । जाने कैसा कलयुग आ गया है कि छोटे-छोटे बच्चे भी कहना नहीं मानते।"
सहसा चुप हो कुछ देर तक वे उसके चेहरे को पढ़ते रहे, फिर समझाने के स्वर में बोले-"देखो बेटा हम नहीं पढ़ पाये तो छोटी-सी नौकरी कर रहे हैं उसमें से ही बड़ी मुश्किल से तुम्हारी पढ़ाई का खर्चा उठा पाते हैं। बेटा आज के समय में रहन-सहन अच्छा नहीं हो तो उसकी समाज में कोई इज्ज़त नहीं होती। चार अच्छे लोगों से मेल-जोल बढ़ाने के लिए स्तर भी बढ़ाना पड़ता है और उन सबके लिए शिक्षित होना जरूरी है। बेटा हम तुम्हें बहुत बड़ा आदमी बनाना चाहते हैं।"

अरविन्द की आँखों में आँसू आ गए उसके होंठ कुछ कहने को काँपने लगे किन्तु वह शान्त रहा। सोचा कि कहीं मेरे दो शब्द पिताजी के गुस्से की आग में घी का काम न कर जाएँ। उसके मन में उथल पुथल होती रही।
पिताजी ने उसकी ओर देखकर धमकी देते हुए आगे का कार्यक्रम घोषित कर दिया '-" यदि पढ़ना है तो घर में रहोंगे वरना घर से निकल जाओ। जहाँ जी में आए रहना। हमसे कोई ताल्लुक नहीं रखना।
इतना कहकर पिताजी चले गए किन्तु उस अबोध बालक के मन में एक द्वन्द्
छिड़ गया।
अरविन्द आठवीं कक्षा का छात्र था। वह हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ करता था। पढ़ाई के दिनों में खाना-पीना, सोना सब कुछ छोड़ देता था , लेकिन अब उसका मन पढ़ाई में नही लगता। उसे स्वयं आश्चर्य था कि उसे क्या हो गया है? जो पढ़ने में जी नहीं लगता।
वह अपने आप पर झल्ला उठता। वह स्वयं नहीं समझ पा रहा था कि वह क्या करे? हाथ में किताब रहती है नजरें लकीरों पर होती हैं फिर भी उसमें जो लिखा होता है वह दिमाग में नहीं उतरता। वह एक ही लाइन दस बार पढ़ लेता है लेकिन फिर भी वह उसे याद नहीं कर पाता।
पिताजी जा चुके थे।
रात्रि के ग्यारह बज चुके थे किन्तु नींद अरविंद से कोसों दूर थी। पिछली घटनाएँ उसकी स्मृति-पटल पर एक के बाद एक चित्रित होती गईं। उसे याद आया कि कुछ माह पूर्व जब उसके स्कूल बारह से चार बजे के थे। उसके दोस्त एक दिन रवि, राजू और राकेश तीनों उसे बहुत मना कर जबरदस्ती पिक्चर दिखाने ले जाना चाहते थे। चूँकि इसके वह पिक्चर कभी अकेले नहीं देखता था, जब कभी बच्चों की अच्छी पिक्चर लगती थी तो माँ-पिताजी के साथ देख लेता था । अतः उसने दोस्तों को मना भी किया। यह भी कहा कि हम स्कूल के लिए आते हैं हमें स्कूल में ही रहना चाहिए, हमें पिक्चर देखने नहीं जाना चाहिए।
तब उसके दोस्त रवि ने कहा-अमाँ यार तुम तो यूँ ही हिचक रहे हो । अपुन लोग तो शिक्षाप्रद पिक्चर देखने जा रहे हैं।
राजेश ने सहमति प्रकट करते हुए कहा-अरे उसमें तो विद्यार्थियों के जीवन के बारे में ही सब कुछ है।
तब तीसरे दोस्त राकेश ने सन्तवाले अन्दाज में कहा-अरे उस पिक्चर में तो महात्मा गांधी जी भी हैं।
तब अरविन्द ने कहा-नहीं, मैं अपने मम्मी-पापा से पूछकर नहीं आया, उनसे पूछे बिना मैं कहीं नहीं जाता।
वे तीनों गलती करते-करते इतने अधिक परिपक्व हो गए थे कि वे इस प्रकार पिक्चर देखना गलत काम नहीं मानते थे उन तीनों ने एक दूसरे की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा-अरे अरविन्द वह तो अपनी पढ़ाई से ही सम्बन्धित है इसलिए स्कूल में पढ़ाई करो या पिक्चर में शिक्षा हासिल कर लो बात तो एक ही है। फिर गुरु जी ने भी कहा था कि ये पिक्चर जरूर देखना । इसीलिए तो हम लोग देखने जा रहे हैं।

लेकिन अरविन्द ने फिर से दृढ़ता के साथ कहा-मेरे पास पैसे नहीं हैं। तुम लोगों के साथ कहीं नहीं जाऊँगा।
पैसे हम तीनों देंगे न कहते दोस्तों के उस त्रिकोण के सामने अरविन्द अपनी रक्षा नहीं कर पाया । जैसा व्यक्ति साथ होता है या जैसे साथी होते हैं व्यक्ति वैसा ही बन जाता है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिन पर बुरी संगत का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
अरविन्द ऊपर से मना कर रहा था लेकिन हर किशोरावस्था के लड़के की तरह उस के मन का एक अचेतन कोना स्वयं पिक्चर देखने को लालायित रहता था।

तीनों की बातों में आकर वही कोना उत्साह से भर गया । उसकी बाल-बुद्धि उन तीनों की तर्क-शक्ति के आगे हार गई और वह पिक्चर देखने को तैयार हो गया। पहली बार गलत कार्य करने पर बहुत अधिक घबराहट होती है और वैसी ही घबराहट अरविन्द के हृदय में हो रही थी। मन तरह-तरह के प्रश्न कर रहा था कि कहीं मम्मी-पापा को पता चल गया तो क्या होगा? कहीं कोई परिचित व्यक्ति देख न ले? कहीं कोई जाकर घर पर कह न दे? लेकिन वे तीनों कवच बनकर उसके मन के आक्रमण को झेल रहे थे। उन तीनों ने मिलकर अरविन्द के टिकट के लिए चन्दा किया और पिक्चर देखने चले गए।
पिक्चर देखते समय अरविन्द को ज्ञात हुआ कि उसमें न तो महात्मा गाँधी थे और न ही विद्यार्थियों के जीवन से सम्बन्धित ही कोई शिक्षा दी गई थी।
अरविंद को मन ही मन बहुत दुःख हुआ।
वे तीनों इस मामले में पक्के खिलाड़ी बन चुके थे। उन्हें मालूम था कि यदि स्कूल के टिफिन का खाना नहीं खाया गया तो घर में माँ दस तरह के प्रश्न करेगी और यदि स्कूल की छुट्टी के पहले घर पहुँच गए
तो भी घर पर पूछा जाएगा।
पिक्चर के बाद वे लोग एक होटल में गए।
अरविन्द को डर लग रहा था कि कहीं कोई उसे यहाँ पहचान न ले। इसलिए उसने अपना रूमाल हाथ से चेहरे पर लगा रखा था जिससे आधा चेहरा ढंक गया था। वहाँ थोड़े चाय-नाश्ते के साथ स्कूल लाए गए टिफिन की सामग्री को भी उन्होंने खाया और स्कूल का पूरा समय चार बजाकर घर वापिस आ गए।

व्यक्ति जब पहली बार कोई गलती या पाप करता है तो उसे बड़ी झिझक होती है। उसकी अंतरात्मा कई तरह के प्रश्न करके रोकना चाहती है। अच्छाई और बुराई के पलड़ों में उसका मन डाँवाडोल होता रहता है। किन्तु जब एक बार वह कोई कार्य कर लेता है तो दूसरी बार वही कार्य करने में उसे तनिक भी संकोच नहीं होता और मन इस बात का आधार लेकर अपना पीछा छुड़ा लेता है कि परिस्थितियों के कारण ऐसा करना पड़ा। जब व्यक्ति एक बार गलत कार्य कर लेता है तो दूसरी बार उस कार्य को करने में उसे कोई बुराई नजर नहीं आती।

उस दिन फ़िल्म देखने के बाद से ही अरविन्द को पिक्चर में दिलचस्पी हो आई और वह मौके-बे-मौके तीसरे-चौथे दिन सिनेमा हॉल में जाने लगा। जहाँ चाह होती है वहाँ कोई न कोई राह अवश्य निकल आती है इसके लिए उसने अपने कोर्स की किताबें भी बेचकर पिक्चर की भेंट चढ़ा दीं और तो और माँ के पर्स और पिताजी की पैंट से भी पैसे गायब करना शुरू कर दिए।
अब अरविन्द आए दिन स्कूल से गायब भी रहने लगा। उसकी दिनचर्या ही बदल गई और तब स्वाभाविक ही था कि उसका पढ़ने में मन उचट जाता।
माँ-पिताजी को उस पर पूर्ण विश्वास था इसलिए उन्होंने उसकी कभी खोजबीन नहीं की कि वह स्कूल जाता है या नहीं। कभी उन्होंने पैसे गिनकर रखने की भी जरूरत नहीं समझी।

अरविन्द की आँखों के सामने पिताजी का मायूस चेहरा घूमने लगा । आज उसको लग रहा था कि उसके पिताजी उस पर इतना विश्वास करते हैं लेकिन वह कितना विश्वासघात कर रहा है। माँ-पिताजी पहले उसकी फीस और किताबों के लिए पैसे अलग रखते हैं तब घर का अन्य सामान मँगवाते हैं। उसकी माँ साधारण-सी धोती पहने रहती है लेकिन कभी कुछ नहीं कहती। एक आशा उन लोगों की आँखों में दिखाई देती है कि अरविंद पढ़ -लिख जाएगा मसे य पूंजी है।
माँ पिताजी लिए कितना त्याग कर रहे हैं और वह अपने उद्देश्य को पूरा नही कर रहा ।
आज अचानक उसे अपनी गलती का एहसास हो चुका था कि जिन सपनों की बजह अरमानों की खातिर उसके पिताजी इतना पैसा खर्च कर रहे हैं, वह उन पैसों को बर्बाद कर रहा है और अरमानों को मिट्टी में मिला रहा है।
अरविंद की आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे । उसके अन्तर्मन ने उसे बहुत कोसा और समझाया कि अरविन्द अभी भी समय है कि वह सुधर जाए। यदि सुबह का भूला शाम को वापस आ जाता तो उसे भूला नहीं कहते। सुबह होते ही तू पिताजी को पूरी स्थिति बतला भी तो वार्षिक परीक्षा में तीन माह बाकी हैं। तू मेहनत करके पा सकता है। पिताजी भी तेरी सहायता करेंगे क्योंकि सच्चे का भगवान होता है और फिर सबसे बड़ी सजा तो प्रायश्चित करना होता है प्रायश्चित तू कर ही रहा है।

अरविन्द को अपने अन्तर्मन की बात सही लगी उसे लगा कि वह न बेकार है जो भीतरी मन को अच्छे कार्य करने से रोक देता है व अपनी सत्ता स्थापित कर लेता है। उसी समय अरविन्द ने अश्रूपूरित चेहरे को पानी से धोया और भगवान के सामने प्रण किया कि आगे से वह अपनी गन्दी आदतें सुधारेगा। साथ ही अपने दोस्तों को सुधारेगा, यदि सुधरेंगे तो वह उनका साथ छोड़ देगा!
अगले दिन स्कूल में दोस्त मिले तो सबसे पहले उसने दोस्तो से साफ कह दिया कि या तो वे भी स्कूल से भाग के सिनेमा देखने और चाट खाने की रोज की आदत बदल लें या वह आज से ही अपने रास्ते चल देगा।
अपनी बात कहके वह कक्षा में आके बैठ गया और इंतज़ार करने लगा कि दोस्तो का क्या जवाब होता है।
वे लोग देर तक नही आये तो वह समझ गया कि अब उनका और अरविंद का रास्ता अलग हो गया है और उनकी सोहबत खत्म हो चुकी है।
-----