Scope of relationships in Hindi Motivational Stories by Sudha Adesh books and stories PDF | रिश्तों के दायरे

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रिश्तों के दायरे

रिश्तों के दायरे

नवीन का विवाह तय होते ही रूचि खुशी से झूम उठी थी...वर्षो बाद एक बार फिर इस घर में शहनाईयों की धुन गॅूजेगी...। बहू के लिये कैसे जेवर बनेंगे, कैसे कपड़े खरीदे जायेंगे, रिश्तेदारों को विदाई में क्या देना होगा, कौन सा हलवाई लगेगा...मीनू में क्या-क्या रहेगा...? काम अनेक थे, समय कम था । बहू रिया के पिता स्टेटस से उसका विवाह करने भारत आये थे...उन्हें शीघ्र ही वापस लौटना था । रिया पली बढ़ी तो विदेश में थी लेकिन वह भारतीय संस्कृति से प्रभावित थी तथा इसी से संबधित शोध कार्य भारत में रहकर करना चाह रही थी । शोध कार्य के लिये उसने नवीन के कहने पर स्थानीय विश्वविद्यालय में आवेदन पत्र भी दे रखा था ।

रिया के पिता आनंद मोहन और नवीन के पिता सुरेंद्र प्रकाश काफी अच्छे मित्र हैं । आनंद मोहन के स्टेटस जाने के पश्चात् भी उनकी मित्रता में कोई कमी नहीं आई थी । जब रिया ने विवाह के पश्चात् भारत रहने की इच्छा जाहिर की तो उन्हें सबसे पहले अपने मित्र के पुत्र नवीन का ही विचार आया । उन्होंने रिया से इस संदर्भ में बात की, उसने भी सहर्ष स्वीकृति दे दी थी ।

नवीन और रिया बचपन से ही अच्छे मित्र थे। उनकी मित्रता समय के साथ परवान चढ़ती रही । वास्तव में रिया के भारत प्रेम का कारण नवीन ही था ।यही कारण था कि उसने पिता की बात तुरंत मान ली । इन्टरनेट के जरिये धीरे-धीरे अपनी मंजिल पर पहॅुंची उनकी मित्रता अब विवाह के अटूट रिश्ते में परिवर्तित होने जा रही है । नवीन ने ही भारत के पर्यटन स्थलों, तीर्थ स्थानों तथा रीति रिवाजों का ऐसा वर्णन किया था कि वह पाश्चात्य देशों की सुख सुविधायें छोड़कर भारत में ही बसने का मन बना चुकी है ।

विवाह का दिन जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा था रूचि की व्यस्तता बढती जा रही थी । निमंत्रण पत्र देने वालों की ध्यान से सूचियॉं बनाई गई कहीं ऐसा न हो कि कोई छूट जाए...ऐसा मौका जीवन में बड़े भाग्य से आता है अतः वह चाहती थी कि कोई कमी न रहने पाये ।

विवाह का दिन भी आ गया । बेटे बहू को स्टेज पर साथ-साथ बैठा देखकर रूचि फूली नहीं समा रही थी...दोनों की जोड़ी लग भी बहुत सुंदर रही थी । प्याजी रंग के बेशकीमती लंहगे ने रिया की सुंदरता में चार चॉंद लगा दिये थे ।

‘ बहू तो आप बहुत सुंदर लाई हैं...।’ उसकी मित्र सुजाता ने उसे बधाई देते हुए कहा ।

धन्यवाद कहकर वह मुड़ी ही थी कि अन्य मित्र नम्रता ने जिंदादिली के साथ कहा,‘ बहुत-बहुत बधाई रूचि, सास बनने के लिये...।’

‘ अरे ! क्या कह रही हो नम्रता...सास तो मैं आज से दो वर्ष पूर्व ही बन चुकी हॅू ।’ रूचि ने सहजता से कहा ।

‘ वह तो मैं भी जानती हॅूं लेकिन बहू की सास बनने तथा दामाद की सास बनने में जमीन आसमान का अंतर है ।’

‘ वह कैसे....?’ आश्चर्य से रूचि ने पूछा ।

‘ दामाद तो चार दिन के लिये आता है, आवभगत करवा कर चला जाता है लेकिन बहू के साथ तो निभाना पड़ता है ।’ नम्रता ने दार्शनिक अंदाज में कहा ।

नम्रता तो कहकर चली गई किंतु रूचि के लिये अंतहीन प्रश्न छोड़ गई थी...!! वह सोचने लगी...नारी रूपी सास और मॉं एक ही सिक्के के दो पहलू होते हुए भी किसी के लिये अच्छी और किसी के लिये बुरी क्यों हो जाती है ? सास के रूप में और मॉं के रूप में उसके व्यवहार में अंतर क्यों होता है ? एक स्त्री जहॉं बेटियों की स्वतंत्रता की पक्षधर होती है वहीं बहुओं को परम्परा के नाम पर सैकड़ों बेड़ियॉं पहनाने में उसे कोई संकोच नहीं होता । तरह-तरह की बंदिशें, न मानने पर बेशउर, उच्श्रृंखल, बददिमाग जैसे अलंकरणों से सजाते हुये, आनंदित होते समय शायद वह भूल जाती है कि यह वही लड़की है जिसे वह गाजे बाजे तथा पूर्ण रीति रिवाजों के साथ संपूर्णं बिरादरी के सम्मुख अपने पुत्र के लिये ब्याह कर लाई थी । फिर बहू के घर में कदम रखते ही ऐसा क्या हो जाता है कि सास रूपी स्त्री अपने घर में उसका दखल सहन नहीं कर पाती है । वह घर की जिम्मेदारियों से मुक्त भी होना चाहती है और नहीं भी, यह स्त्री की कैसी दुविधा है ? घर की चाबियॉं बड़े प्यार से बहू को संभलवाते हुए बड़े प्यार से यह कहने वाली स्त्री कि तू मेरी बहू ही नहीं बेटी भी है...अब यह घर तेरा है, तू जैसे चाहे रह, जो चाहे कर...अचानक इतनी निष्ठुर क्यों और कैसे हो जाती है ? वह आज तक नहीं समझ पाई है ।

‘ मॉं, तुम यहॉं हो ,डैडी कब से तुम्हें ढॅूंढ रहे हैं ? जल्दी जाओ...डैड, भइया भाभी के पास हैं ।’ प्रिया उसकी पुत्री, अपना बेशकीमती लंहगा संभाले हॉंफती हुई आकर बोली तथा जैसे आई थी वैसे ही चली गई ।

नवीन के विवाह में प्रिया ने अपनी सारी सहेलियों को आमंत्रित किया था...उन सबको अपनी नई नवेली भाभी से मिलाने में ही वह इतनी व्यस्त थी कि अपनी एक वर्षीया पुत्री को भी भुला बैठी थी । उसको गोद में लिये दामादजी एक कुर्सी पर बॅंधे बैठे थे । अचानक उसे अपनी प्यारी और मासूम बेटी पर प्यार आ गया...एक बच्चे की मॉं बन गई है पर बचपना अभी तक नहीं गया, सोचकर वह मुस्करा उठी ।

‘ कहॉं चली गई थीं ? जो आता है वह तुम्हारे बारे में ही पूछता है...कम से कम इस समय तो साथ-साथ रहो ।’ उसे देखते ही सुरेंद्र झुंझला कर बोल उठे थे ।

विवाह की सारी रस्में निबटाते-निबटाते भी बार-बार नम्रता के कहे शब्द उसके जेहन मे गॅूंज रहे । बहू के साथ तो निभाना पड़ता है । यह सच है कि बहू एक अलग घर अलग परिवेश से आती है, उसे नये घर, नये परिवेश में ढलने में समय लगता है लेकिन बहू भी तो बेटी जैसी ही होती है । अगर सारे पूर्वाग्रह त्याग दिये जायें तो कोई संदेह नहीं कि सास-बहू के रिश्ते में मधुरता न आये । वह तो इक्कीसवीं सदी की गिनी चुनी सासों में से एक है, प्रगतिशील विचारों की है, उसे भला बहू के साथ निभाने में क्या दिक्कत आयेगी ? अगर कुछ आई भी तो वह सब संभाल लेगी । वैसे भी प्रत्येक रिश्ते में थोड़ा बहुत समझौता तो करना ही पड़ता है, और वह तो उसके पुत्र की पत्नी है...उसके घर का सम्मान है...इज्जत है । जब वह उसे प्यार और सम्मान देगी तभी तो उससे प्यार और सम्मान पायेगी यह सोचकर उसने मन में उठ आई सैकड़ों नागफनियों को दबाने का प्रयास किया तथा एक नई सुबह के स्वागत की तैयारी मे जुट गई ।

विवाह खूब धूमधाम से हो गया । बहू घर आई नहीं कि रिश्तेदारों का जाना प्रारंभ हो गया । शाम होते-होते तक घर खाली हो गया । लग ही नहीं रहा था कि कल ही इस घर में विवाह हुआ है, बहू आई है । न संगीत की सुमधुर सूरलहरियॉं, न लोगों के कहकहे और न ही बच्चों का शोर...शांति ही शांति थी । एक समय था शादी की भागदौड़ हफ्ता पहले प्रारंभ हो जाती थी और हफ्तों बाद तक चलती रहती थी । ढोल मंजीरे की आवाज सुनकर दूसरे गांव के लोग भी समझ जाते थे कि पड़ोस के गॉंव में विवाह है । घर में मिठाई और पकवानों के ढेर लग जाते थे । कितनी मिठाइयॉं बॉंटी जाती थी, उसके बावजूद भी बरबादी होती थी !! वस्तुतः बरबादी देखकर ही उस समय विवाह की शान का पता चलता था । अब सब कांट्रेक्ट पर आसानी से हो जाता है...बस कुछ घंटों का खेल, न कोई परेशानी और ही न कोई झंझट, और न ही बरबादी । बस पैसा फेंको और तमाशा देखो वाली स्थिति रहती है...।

बैन्किविट हॉल को बुक कराने की तरह ही पंडित भी आजकल विवाह संपन्न कराने घंटों के हिसाब से ही तय किये जाते हैं...यानि सब कुछ यांत्रिक...सुनियोजित...। उन्होंने भी शहर के प्रतिष्ठित होटल का हॉल बारह घंटे के लिये बुक किया था...कुछ नजदीकी रिश्तेदारों को छोड़कर अन्य सभीं मेहमानों के लिये होटल में ही कमरे बुक करा दिये थे । वे वहीं आये और वहीं से चले गये । न किसी को परेशानी और न ही कोई समस्या और न ही शिकवे शिकायतें...।

प्रिया अपनी नई नवेली भाभी के साथ कुछ समय और गुजारना चाहती थी पर अपनी सास के बीमार होने के कारण चाहकर भी नहीं रूक पाई ।

‘ दीदी, बहू तो बहुत सुंदर, पढ़ी लिखी और होशियार है, पर तुम जरा संभल कर रहना ।’ घर की अंतिम मेहमान उसकी देवरानी भी जाते-जाते सीख देती गई थी ।

रूचि कहना चाहकर भी कुछ नहीं कह पाई । भला संभल कर रहने वाली क्या बात है ? बहू ही है न कि कोई शेर या भेड़िया जिससे संभल कर रहा जाए...!! शायद इसी तरह के वाक्य सास-बहू में दरार पैदा कर मनमुटाव का कारण बनते हैं, सोचते हुए उसे वितृष्णा हो आई थी । पता नहीं क्यों वह प्रारंभ से ही किसी को कुछ नहीं कह पाती थी...चाहे दूसरों की उलजलूल बातों को सुनकर, सोच-सोचकर परेशान होती रहे । उसका मानना था कि क्यों किसी को कुछ कहकर उसका दिल दुखाया जाये । कभी-कभी वह सोचती कि जब दूसरे कह सकते हैं तो वह क्यों नहीं...? वह जानती थी कि अन्याय सहना ही अन्याय को बढ़ावा देना है लेकिन सब कुछ समझने बूझने के बाद भी वह अपनी आदत नहीं बदल पाई थी ।

सुबह आठ बजे बहू रिया स्लीवलैस गाउन पहने-पहने ऑंख मलते हुए बाहर आई तथा सोफे पर पॉंव रखकर बैठते हुए बोली,‘ हाय मॉम ,हाय डैड, वैरी गुड मार्निग, सॉरी आज उठने में थोड़ी देर हो गई ।’

रिया की वेशभूषा और हावभाव देखकर बीसवी सदी की सास का आक्रोश निकलने ही वाला था कि इक्कीसवीं सदी की प्रगतिशील सास बीसवीं सदी की सास पर हावी होते हुए बोली,‘ कोई बात नहीं बेटा...क्या चाय पीओगी ?’

‘ नहीं मॉम, मैं चाय नही पीती ।’ कहकर वह बेतक्लुफी से टी.वी. खोलकर बैठ गई ।

रूचि ने सोच लिया था कि जब रिया स्वयं चाय नहीं पीती तो उससे एक कप चाय की आशा करना भी व्यर्थ होगा । उसे वह दिन याद आये जब वह सुबह उठकर दर्जन भर लोगों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने के पश्चात् अपने दिन का प्रारंभ करती थी । रात्रि को सोने से पूर्व भी सास-ससुर के चरणस्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेना आवश्यक था । सुरेंद्र ने प्रथम रात्रि में ही उसे बता दिया था कि उसके घर सुबह उठकर तथा रात्रि में सोने से पूर्व घर के बुर्जुगों का आशीर्वाद लेने की प्रथा है तो क्या नवीन ने अपनी पत्नी को अपने घर के रीति रिवाजों के बारे में रिया को कुछ नहीं बताया !! वह तो अच्छा हुआ कि सारे रिश्तेदार कल ही चले गये वरना उसके ऐसे व्यवहार को देखकर न जाने क्या सोचते...?

‘ बहू, देखना तो सही किसने इतना तेज टी.वी.चला दिया है । मेरी पूजा में विध्न पड़ रहा है ।’ टी.वी. की आवाज सुनकर अंदर से पूजा करती अम्माजी बोली ।

‘ मॉम, दादी मॉं से कहना कि पूजा पूजाघर का दरवाजा बंद करके कर लें । मेरा मनपसंद प्रोग्राम आ रहा है, अभी मैं टी.वी. बंद नहीं करूंगी ।’ बच्चों की तरह कहकर वह टी.वी. देखने में मगन हो गई ।

वह समझ नहीं पाई कि किसको क्या कहे...लेकिन शायद उसकी तेज आवाज जरूर अम्माजी तक पहॅुच गई होगी तभी उन्होंने कुछ नहीं कहा ।

नाश्ते में नवीन की मनपसंद आलू की कचौड़ी बनाई थी । कचौड़ी देखते ही वह बोली,‘ मॉम, मैं तो नाश्ते में एक गिलास दूध और दो स्लाइस ब्रेड लेती हॅूं, फिगर मैनटेन रखने के लिये कुछ तो सैक्रीफाइज करना ही पड़ता है...।’

वह ब्रेड स्लाइस लाने के लिये उठ ही रही थी कि उसने पुनः कहा,‘ आज रहने दो मॉम, आज यही चलेगा ।’

‘ वाउ...वैरी टेस्टी, वैरी डेलिशयस...? आज पहली बार इतना टेस्टी कचौड़ी खा रही हॅूं ।’
कहते-कहते वह दो तो क्या कई कचौड़ियॉं खा गई । आम के अचार की गुठली तो वह काफी देर तक चूसती रही थी ।

रिया की मॉं मीता बचपन में ही नहीं रही थीं...। उसके पिता स्टेटस में अपने काम में ऐसा रमे कि दूसरे विवाह का ख्याल भी उनके दिमाग में नहीं आया । काम से बचा समय वह पुत्री के साथ बिताते...मॉं के न रहने के कारण रिया भारतीय खाने के स्वाद से वंचित थी । पिता और पुत्री बस जैसे तैसे काम चला लेते थे ।

शाम को वह उनका मूवी जाने का प्रोग्राम था...जीन्स और टॉप में तैयार होकर रिया निकली तो बीसबीं सदी की सास ने रोकना चाहा...शब्द निकलने को ही थे कि उसकी मनःस्थिति समझकर वह बोली,‘ मॉम, मोटर साइकिल पर साड़ी पहनकर बैठना अच्छा भी नहीं लगता तथा कन्वीनियेंट भी नहीं रहता है, इसलिये यह पहन लिया ।’

इक्कीसवीं सदी की सास ने मुस्कराकर जाने की इजाजत दे दी...आखिर नई नवेली दुल्हन से तकरार करने से क्या लाभ ?

‘ नई नवेली दुल्हन पायल छनकाती आती हैं तो अच्छी लगती हैं...मरदाने कपड़ों में बहू बेटी अच्छी नहीं लगती हैं...लाड़ में इतनी छूट न दे कि बाद में पछताना पड़े ।’ अम्माजी ने चेतावनी के स्वर में उसे आगाह किया ।

अम्माजी शायद अपनी जगह ठीक थीं । लेकिन वह जानती थी कि ईक्कीसवीं सदी की बहू से जबरदस्ती कुछ भी नहीं करवाया जा सकता और न ही उस पर अपनी इच्छा थोपी जा सकती है...फिर जब नवीन को कोई एतराज नहीं है तो फिर भला उन्हें एतराज करने की क्या आवश्यकता है ? उसने सोचा था ।

हफ्ते भर बाद नवीन और रिया हनीमून के लिये गोवा गये । थोड़ा सकून मिला वरना पिछले कई दिनों से लग रहा था मानो रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया है । अपना घर ही बेगाना लगने लगा है । कई दिन अव्यवस्थित घर को व्यवस्थित करने में ही लग गये । वास्तव में मनुष्य अपनी दिनचर्या में इतना रम जाता है कि दिनचर्या में आया जरा सा भी व्यवधान उसे कष्टप्रद प्रतीत होने लगता है चाहे यह व्यवधान उसके अपनों द्वारा ही उत्पन्न क्यों न किया गया हो...?

जब रूचि खाली होती मन में चलता अन्तर्द्वन्द उसको घेर लेता था । पता नहीं क्यों उसके हृदय में बार-बार नम्रता के शब्द गॅूज उठते थे, ‘ दामाद की सास बनने में तथा बहू की सास बनने में अंतर होता है...असली सास तो तुम आज बन रही हो...।’

सच उसके एक छोटे से वाक्य में ही जीवन का सारा निचोड़ समा गया था...क्या यह सच नहीं है कि बेटी दामाद जब घर आते हैं तो वही स्त्री जो सास के रूप में बहू के नाजुक कंधों पर सारे घर की जिम्मेदारियों का बोझ डालकर मुक्ति पाना चाहती है वही मॉं के रूप में बेटी का एक-एक काम कर खुशी से फूली नहीं समाती । दामाद को मेहमान का दर्जा प्रदान कर उसे पानी का गिलास भी नहीं रखने दिया जाता...। बहू कितना भी करे...उसमें सदा कमी ही दिखाई देती है जबकि बेटी जरा सा भी कुछ कर दे तो उसे बढ़ा चढाकर पेश किया जाता है । क्या केवल इसलिये कि बहू पराये घर से आई है...? पराया तो दामाद भी है लेकिन उसके सम्मान मे जमीन आसमान एक कर दिया जाता है जबकि कल की ब्याही बहू से आशा की जाती है कि वह घर में प्रवेश करते ही घर के प्रत्येक सदस्य की इच्छाओं आकांक्षाओं को पूरा करे ! यह कहॉं का न्याय है ? रूचि ने मन ही मन प्रण किया कि वह बहू को भी बेटी जैसा ही प्यार और सम्मान देगी । कभी बेवजह रोक टोक नहीं करेगी...जब उनकी बेटी तरह-तरह की वेशभूषा पहनती है तब उन्हें बुरा नहीं लगा तो बहू को पहनने से क्यों रोके ?

नवीन और रिया गोवा से लौट आये । वे दोनों उनके लिये ढेर सारे उपहार लेकर आये थे । उनका एक सूटकेस उपहारों से भरा था । उसके तथा दादी के लिये साड़ी, सुरेंद्र के लिये सूट का कपड़ा और भी न जाने कितने छोटे-छोटे उपहार...।

एक दिन अवसर पाकर रिया माबाइल में उसे फोटो दिखाने लगी ,‘ मॉम, देखो यह गोवा का मशहूर बीच है । यह गिरजाघर है...प्रत्येक दर्शनीय स्थल के अनेकों फोटोग्राफ थे । किसी में वह नवीन के हाथों में हाथ डाले घूम रही थी...किसी में एक दूसरे को किस कर रहे थे तो किसी में अपने होटल के रूम के बाथटब में ही एक साथ घुसे अठखेलियॉं कर रहे थे । बीच पर स्विमिंग ड्रेस में रिया को सूर्यस्नान करते देखकर ऑंखें ठगी सी रह गई । उसका तराशा हुआ शरीर देखकर मन गर्व से भर उठा...सच जिसके पास दिखाने के लिये कुछ होगा वही तो दिखायोगा...किसी अभिनेत्री के कहे शब्द जेहन में गॅूंज उठे थे लेकिन इस समय बीसवीं सदी की सास इक्कीसवीं सदी की सास पर हाबी होकर कह ही गई कि यह फोटोग्राफ अपने डैड को मत दिखाना उनको इतना खुलापन पसंद नहीं है । उसकी नसीहत सुनकर उसका चेहरा बुझ गया था, फोटो दिखाने का सारा उत्साह एक क्षण में समाप्त हो गया था तथा बिना कुछ कहे वह अपने कमरे में चली गई ।

रूचि के मन में अपने हनीमून के दृश्य चलचित्र की भॉंति घूमने लगे...काश्मीर की खूबसूरत वादियों में हाथों में हाथ डाल कर घूमते हुए उन्होंने भी अपने अंतरंग क्षणों के कुछ फोटो अपने आटोमैटिक कैमरे से खींचे थे लेकिन सुरेंद्र ने उन्हें एलबम में लगाने ही नहीं दिया था । उनके अनुसार जीवन के कुछ क्षण नितांत अपने होते हैं जिन्हें किसी के साथ भी शेयर करना अपनी गोपनीयता में अनाधिकृत प्रवेश देना है जो उन्हें पसंद नहीं था । वह बोलते भी बहुत ही कम हैं...उनकी ही आदत नवीन ने पाई है...और तो और मॉंजी के कठोर अनुशासन में रहकर वह भी अपना चुलबुलापन खो बैठी है ।

उसे याद आया वह पल जब वह दुल्हन बनकर इस घर में आई थी । वह अपने साथ कुछ स्लीवलैस ब्लाउज, नाइटी और सलवार कुर्त्ते लाई थी किन्तु सुरेंद्र को घर में मॉं पिताजी के सामने इस तरह के कपड़े पहनना पसंद नहीं था । यद्यपि बाहर कहीं घूमने जाते तो उन्हें एतराज नहीं होता था लेकिन वह क्षण उनके जीवन में हनीमून के अलावा कभी आया ही नहीं । घर परिवार की जिम्मेदारियों में ऐसा उलझे कि कहीं निकलना ही नहीं हो पाया तथा वे कपड़े बक्से में ही बंद पड़े रह गये । बाबूजी के महाप्रयाण के पश्चात् अम्माजी के सदा साथ रहने के कारण उसने सोचना भी बंद कर दिया था ।

कभी-कभी रूचि को लगता था कि पुरूष के दो रूप होते हैं...बाहर वह पत्नी को सर्वगुण सम्पन्न सहचरी के रूप में देखना चाहता है जो उसके तथा उसके मित्रों के साथ राजनीति से लेकर सामाजिक विषयों पर भी अपने विचार बखूबी रख सके...आवश्यकता पड़ने पर काकटेल पार्टियों में भी सम्मिलित होकर अपने आधुनिक होने का प्रमाण दे सके और वहीं घर में उसके अपने मॉं पिताजी के सामने सिर पर पल्ला रखकर आज्ञाकारिणी बहू बनकर उनकी प्रत्येक इच्छा को बिना किसी नानुकुर के सिर झुकाकर पूरा करती रहे । उसने दोनों ही रूपों को निभाने की चेष्टा की थी लेकिन चक्की के दो पाटों में पिसती हुई वह अपना व्यक्तित्व ही गॅंवा बैठी थी...भूल गई थी कि कभी उसकी अपनी भी कुछ रूचियॉं, अभिरूचियॉं थीं । उसने भी कभी ऐसे संसार की कल्पना की थी...जो सिर्फ उसका अपना हो...जहॉं वह अपनी इच्छानुसार रह सके...लेकिन उसे सिर्फ कर्तव्य ही कर्तव्य मिले, अधिकार कभी मिले ही नहीं । उसका पूरा जीवन समझौता करते-करते ही बीत गया ।

बहू के आने पर उसने सोचा था कि वह अपनी कुछ दमित इच्छाओं को पूरा कर पायेगी । वह भी मॉंजी की तरह एक ही जगह बैठे-बैठे किसी को तो अधिकारयुक्त शब्दों में आदेश दे पायेगी...कभी तो वह भी किसी के हाथ की बनी एक प्याला चाय आराम से पी पायेगी किंतु पिछले कुछ दिनों के रिया के व्यवहार ने उसे बता दिया था कि अगर घर में शांति रखनी है तो उसे ही समझौता करना होगा...। जब वह पति के साथ, सास के साथ समझौता कर सकती है तो बहू के साथ क्यों नहीं ? वह भी तो अब इस घर की सदस्या है, उसके पुत्र के लिये अपना, अपने पिता का घर छोड़कर आई है फिर उसके मन में उसके प्रति दुर्भावना क्यों आ रही है...? उसने मन में अनाधिकृत प्रवेश करते विचारों को झटक दिया । नई नवेली दुल्हन के प्रति अचानक ही उसके मन में प्यार उमड़ आया था ।

रूचि सुबह उठकर मॉंजी के पैर छूकर मुड़ी ही थी कि रिया ने पूछा,‘ माम, आप रोज सुबह-सुबह ग्रांड माम के पैर क्यों छूती हैं ? ’

‘ बेटा, जिस तरह तुम लोग ‘गुड मार्निग या गुड नाइट ’ कहकर बड़ों का आशीर्वाद लेते हो, वैसे ही हम लोग बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं ।’

‘ नवीन ,पापाजी और मैं तो रोज पैर नहीं छूते, फिर क्या उनका आशीर्वाद हमारे साथ नहीं रहेगा ?’ उसने मासूमियत से पूछा ।

‘ नहीं बेटी, मेरा आशीर्वाद तो तुम सबके साथ है । यह तो हमारी परम्परा है कि घर की बहू सुबह उठकर बड़ों के पैर छूकर घर का काम प्रारंभ करती है । तू भी अपने सास ससुर के पैर छूयेगी तो सदा सुखी रहेगी...।’ अम्माजी ने गर्व से कहा था ।

‘ ग्रांड माम, पाश्चात्य देशों में पैर छूने की प्रथा नहीं है तो क्या वहॉं के लोग सुखी और सम्पन्न नहीं हैं ? मॉम की तो कमर में दर्द रहता है । डाक्टर ने उन्हें झुकने से भी मना किया है फिर क्या वह रोज आपके पैर छूकर अपनी बीमारी को बढ़ा नहीं रही हैं ? अम्मा, पैर छूने से न कोई सुखी सम्पन्न होता है और न ही किसी के मानसम्मान में वृद्धि होती है...जरा सोचिए तो अगर किसी के घर कई बुजुर्ग हों तो उनका कितना समय तो पैर छूने में ही निकल जायेगा...यह सब बेकार की बातें हैं जिनमें हम अपना समय नष्ट करते हैं ।’

‘ बेटा, यह तो अपने-अपने सोचने की बात है, हो सकता है जिसे तुम अच्छा कह रही वह यहॉं के परिवेश के उपयुक्त न हो ।’ बात आगे बढ़ती इससे पहले ही रूचि ने कहकर व्यर्थ के टकराव को रोक दिया था लेकिन उसे अच्छा लगा था कि रिया ने उसके कमर दर्द की ओर ध्यान दिया था...स्लिप डिस्क का दर्द उसे कई वर्षो से था । ज्यादा दर्द होने पर वह कमर में बेल्ट का उपयोग भी करती थी...डाक्टर ने झुककर काम करने के लिये मना किया था लेकिन घर के काम ही ऐसे हैं कि न चाहते हुए भी कभी-कभी न झुकना पड़़ ही जाता था लेकिन घर में किसी ने पहली बार दर्द रहने पर इस तरह झुकने के लिये मना किया था ।
मॉजी रिया की बात सुनकर चुप रह गई थीं...शायद नई पीढ़ी को अपने तर्को द्वारा समझाने की असमर्थता उन्हें दंश दे गई थी...लेकिन रूचि के कथन ने उनका मान रख लिया था...।

अभी वह उस हादसे से उभर भी नहीं पाई थी कि एक छुट्टी के दिन मॉंजी को पूजा करते देखकर वह उनके सामने पालती मारकर बैठ गई तथा बोली,‘ मॉंजी, आप घंटा घंटा भर इनके सामने बैठकर हाथ में माला लेकर क्या करती रहती हो ?’

‘ अधनंगी पोशाक में घर की बहू बेटियॉं अच्छी नहीं लगतीं...जा, पहले नहा धोकर ढंग के कपड़े पहन कर आ, तब मैं बताऊंगी ।’ मॉंजी ने उसकी डफेस को देखकर मॅुह बनाते हुए उत्तर दिया ।

‘ आपकी ये देवियॉं तो मुझसे भी कम कपड़े पहने हैं इन्हें तो आप कुछ नहीं कहतीं...।’ रिया ने मॉंजी के सामने रखी एक धार्मिक पुस्तक में शिवजी की समाधि को भंग करने का प्रयास करती अप्सराओं को इंगित करते हुए कहा ।

‘ मॉंजी, कपड़े वही पहनने चाहिये जो शरीर को आराम दे...अब गरमी में पॉंच गज की साड़ी मुझासे नहीं पहनी जायेगी । ’ मॉंजी की ओर से कोई उत्तर न पाकर वह पुनः बोली ।

‘ बहस करना तो कोई तुम लोगों से सीखे...। तुम क्या औरों से अलग हो ? जब दूसरी लड़कियॉं पहन सकती हैं तो तुम क्यों नहीं ।’ अम्माजी ने तीखी आवाज में कहा था ।

अम्माजी की तीखी आवाज सुनकर, बहस कहीं कटुता का रूप न ले ले, सोचकर रूचि ने रिया को आवाज देकर बुला लिया था ।

ऐसा नहीं था कि रिया साड़ी़ नहीं पहनती थी...साड़ी उसकी प्रिय पोशाकों में से एक थी । वह नवीन के साथ उसके मित्रों द्वारा दी गई पार्टी या विवाह इत्यादि में जाती तो साड़ी ही पहनना पसंद करती थी लेकिन काम पर जाने के लिये वह अन्य ड्रेस ही उपयुक्त मानती थी क्योंकि वे साड़़ी की तुलना में ज्यादा आरामदेह थी तथा उन्हें पहनने और सहेजने में भी ज्यादा समय नहीं लगता है ।

‘ अम्मा पता नहीं क्यों तिल का ताड़ बना लेती हैं, अरे, बच्चे हैं जो चाहे पहने...जो चाहे करें, उन्हें उनसे क्या मतलब है ? उनका जमाना गया जब बहुएं सिर ढककर रहा करती थी...और फिर रिया तो विदेश में पली बढ़ी है, आधुनिक परिवेश की है, कुछ तो असर वहॉं की संस्कृति का आयेगा ही । यह सब तो तो उसे घर की बहू बनाने से पहले सोचना था...तुम भी सुन लो यदि तुम भी स्वयं को नहीं बदल पाई जमाने के साथ नहीं चल सकी तो तुम स्वयं भी दुखी रहोगी और बच्चों को भी दुखी रखोगी । ’ रात मे सोते हुए सुरेंद्र ने सीख दी थी, शायद उन्होंने भी अम्माजी की बातें सुन ली थीं ।

उसे स्वयं सुरेंद्र की बात सुनकर आश्चर्य हुआ था...वह सोच ही नहीं पा रही थी कि ये विचार उस आदमी के है जो अपनी मॉं के विरूद्ध एक शब्द भी सुनकर आगबबूला हो उठता था । जिसके लिये उसकी मॉं ही सब कुछ थी । उसके प्यार का...उसकी इच्छाओं का गला घोंटते हुए जब तब कह उठता था,‘ किसी इंसान की मॉ तो एक ही होती है जबकि पत्नी तो कई हो सकती हैं...मॉं की सेवा करना हमारा कर्तव्य ही नहीं हमारा धर्म भी है ।’
वह तो ताउम्र अपना धर्म निबाहती आई थी लेकिन क्या मॉंजी ने अपना धर्म निबाहा था उन्हें तो सदा इसी बात से खुशी मिलती थी कि वह दुखी रहे...इसके लिये वह सदा उसके कार्यों में मीनमेख निकालकर राई का पर्वत बनाने से नहीं चूकती थी और सुरेंद्र भी उनकी बात को सही मानकर उसे ही बुरा भला कहते रहे थे । भले ही रात के अंधेरे में दिन में कही बातें बेमानी हो जाती हों या कभी स्वयं को अपराधी महसूस करके क्षमा भी मॉंग लेते हों लेकिन दिल को चीरकर घायल करती बातों को क्या सहज ही भुलाया जा सकता है ? काश यह बात वह पहले समझ पाते तो आधे से ज्यादा जीवन नीरसता में न बीतता...।
यह सच है कि मॉं...मॉं है, मॉं का स्थान कोई नहीं ले सकता लेकिन पुरूष यह क्यों नहीं समझ पाता कि मॉं रूपी स्त्री का यदि वह अंश है तो पत्नी रूपी स्त्री भी उस पर अपना तन मन अर्पण कर उसे सुख और संतोष देती है । मॉं रूपी स्त्री उसका बचपन सहेजती है, उसे संस्कार देती है तो पत्नी रूपी स़्त्री भी उसकी यौवनावस्था से बुढापे तक साथ देते हुए अपना खून और पसीना बहाकर साथ निबाहती है...उसके सुख-दुख की साथी होती है । उसका घर बसाने के लिये अपने जन्म के माता-पिता को छोड़कर उसके माता-पिता को अपना मानकर पतिगृह में प्रवेश करती है । उनका प्यार पाना चाहती है...कुछ अधिकार चाहती है तो बिना उसकी इच्छा जाने उसके हिस्से में रिश्तों में बॅंधे कर्तव्य ही कर्तव्य डाल दिये जाते हैं । जब तक रिश्तों के अर्थ समझ में आते हैं तब तक आधी जिंदगी बीत जाती है...।

समय गुजर रहा था और वह नई और पुरानी पीढ़ी में संतुलन स्थापित करने का प्रयास कर रही थी कि एक दिन सुबह सोकर नित्य की तरह किचन में जा रही थी कि लिविंग रूम की दीवार पर ‘ हैप्पी मदरस डे ’ का बैनर देखकर आश्चर्यचकित रह गई...कमरा गुब्बारों से सजा था । अभी वह कुछ कहती या पूछती कि सामने से रिया और नवीन ने आकर उसके हाथ में सुंदर गुलदस्ते के साथ गिफ्ट पैक पकड़ाया । पैकेट पर चिपकाये कागज पर रंगबिरंगे अक्षरों में लिखा था...‘ यू आर द वेस्ट एन्ड लवली मदर आफ दिस यूनीवर्स....वी बोथ प्राउड आफ यू....।’

ऑंखों से झर-झर ऑंसू बहने लगे....पता नहीं प्रकृति का यह कैसा नियम है कि खुशी हो या गम यह ऑंसू पीछा नहीं छोड़ते हैं । भावनाओं पर काबू पाते हुए उसने पूछा,‘ तुम दोनों अम्माजी के लिये भी कुछ लाये हो...? उनका दर्जा मुझसे पहले है...वह हम सबकी मॉं हैं । ’

‘ हॉं मॉम , आपको सरप्राइज देना था इसलिये कुछ नहीं बताया...डैड को पता है । यह दादी अम्मा का उपहार है ।’ नवीन ने उसके हाथ में एक अन्य गिफ्ट पैक देते हुए कहा ।

‘ चलो, उनके कमरे में जाकर उन्हें विश कर दें । ’ रूचि के कहने पर अंदर जाने के लिये मुड़े ही थे कि देखा सामने अम्माजी खड़ी हैं...शायद सबकी आवाज सुनकर वह बाहर आ गई थी, उन्होंने उनकी बातें सुन ली थीं ।
उनके हाथ में उपहार देने के पश्चात् जब रूचि उनके पैर छूने के लिये झुकी तो उन्होंने उसका हाथ पकड़कर उसे उठाते हुए गद्गद स्वर में कहा,‘ बस बेटी बस, मेरा आशीर्वाद तो तुम सबके साथ हमेशा ही है...तू भी अब पैर छूना छोड़कर रिया की तरह बस ‘ गुड मार्निग ’ ही कह दिया कर...आखिर कब तक बेमतलब की परम्पराओं में उलझी रहेगी ? बहू के रूप में तू मेरी बेटी ही है...जितनी सेवा तूने मेरी की है उतनी तो मेरी कोख जाई अपनी बेटी भी नहीं करती...। ’

अम्माजी के मॅुह से अपने लिये बेटी शब्द सुनकर रूचि खुशी से भर उठी थी...इसी एक शब्द की ही तो उसे वर्षो से प्रतीक्षा थी । वह बैड टी बनाने के लिये किचन में जाने के लिये मुड़ी तो रिया ने हाथ पकडकर उसे सोफे पर बैठाते हुए कहा,‘ मॉम, आज ‘ मदरस डे ’ है...मॉं को समर्पित है आज का दिन...आज आप कोई काम नहीं करेंगी । आप हमारी मॉं है, पूरे साल आप हमारी देखभाल करती हैं...तो क्या एक दिन हम बच्चे आपका काम नहीं कर सकते...? आज मैंने और नवीन ने छुट्टी ले ली है...हम दोनों ही सारे काम करेंगे । लंच घर में करके शाम को बाहर घूमने जायेंगे तथा डिनर बाहर ही करेंगे...।’ कहकर रिया किचन में जाने लगी ।

‘ क्या मैं भी तुम्हारी मदद के लिये आऊॅं ? आखिर मुझे भी ‘ मदरस डे’ सेलीब्रेट करना है...यदि मैंने कुछ नहीं किया तो अम्मा सोचेगी कि कैसा बेटा है मेरा...इसने तो मेरे लिये कुछ किया ही नहीं...!! ’ रिया के पीछे-पीछे नवीन को जाता देखकर सुरेंद्र ने अम्माजी की ओर देखते हुए स्वभाव के विपरीत मजाकिया स्वर में कहा ।

‘ डैडी, चाय हम बना लेंगे...सर्व आप कर दीजिऐगा ।’ अंदर से रिया का चुलबुला स्वर आया था ।

काश ! वक्त यहीं ठहर जाए...कौन कहता है कि पाश्चात्य देशों में प्यार और लगाव नहीं है...प्रेम तो इंसानी रिश्तों का वह जज्बा है जिससे मिलकर दो शरीर एक जान हो जाते हैं...घर प्रसन्न्ता और खुशियों से भर उठता है । भले ही पाश्चात्य संस्कृति में कुछ बुराईयॉं हों लेकिन अच्छाइयॉं भी तो हैं...अच्छाइयों को अपनाने में तो कोई बुराई नहीं है...।

इस पराई लड़की ने उसे इस क्षण इतना सुख दे दिया है जितना कि उसके अपने जिंदगी भर नहीं दे पाये । अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों, अनुशासन और अपने द्वारा निर्मित नियमों के खोखले दंभ में बंधा परिवार सहज जीवन जीना ही भूल गया था । उसे याद है विवाह के पश्चात् पहली बार जब सुरेंद्र की बर्थ डे पड़ी तो उसने बड़े मन से केक बनाया था तथा देने के लिये उपहार भी खरीदा था । जब मॉंजी को पता चला तो वह यह कहकर उस पर खूब बिगड़ी थी कि कुछ करने से पहले पूछ तो लिया करो ! हमारे यहॉं किसी का जन्मदिन नहीं मनाया जाता । वैसे भी क्या फायदा जन्मदिन मनाने से...प्रत्येक जन्मदिन यही एहसास दिला जाता है कि जीवन का एक वर्ष और कम हो गया है ।

बात भले ही कड़वी थी लेकिन सच ही थी...वैसे भी अच्छाई बुराई देखने वाले की ऑंखों में निहित होती है । यह सच है कि प्रत्येक जन्मदिन जीवन का एक वर्ष कम होने का अहसास करा जाता है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस दिन हम आयु की निर्धारित सीमा का एक वर्ष पूराकर नवउत्साह और नवआकांक्षाओं के साथ जीवन के नये वर्ष में प्रवेश कर अतीत पर दृष्टिपात करते हुए भविष्य का ताना बाना बुनने का प्रयास करते हैं । शायद जीवन के इस विशिष्ट दिन को विशिष्ट तरीके से मनाकर रोजमर्रा की जिंदगी से अलसाये मन को जीवनी देना चाहते हैं...जीवन की नीरस दिनचर्या से मुक्ति पाने का कोई न कोई साधन तो इंसान के पास होना चाहिए । तभी तो इंसान इन अवसरों की आड़़ लेकर कुछ न कुछ हॅंगामा करने से नहीं हिचकता अगर जीवन में यह कुछ विशिष्ट दिन न हों तो जीवन ही नीरस हो जाए ।

बाद में पता चला कि सुरेंद्र के बड़े भाई का पहला जन्मदिन मॉंजी ने खूब जोर शोर से मनाने का प्रबंध किया था लेकिन अचानक उन्हें न जाने क्या हुआ कि एक घंटे के अंदर ही आठ दस उल्टियॉं हुई और वह चल बसे...तब से मॉंजी ने न किसी का जन्मदिन मनाया और न ही मनाने दिया ।

बचपन में नवीन और प्रिया अपने दोस्तों की देखादेखी जन्मदिन मनाने की बहुत जिद किया करते थे । जन्मदिन मनाने के मॉजी के पूर्वाग्रह के कारण वह किसी तरह समझा बुझाकर उन्हें शांत करने का प्रयास करती थी या फिर किसी अन्य दिन उन्हें कपड़े दिलवाकर, खाना खिला देती थी । बड़े होने पर पैसे दे देती थी, वे बाहर ही अपने दोस्तों को पार्टी देकर जन्मदिन मना लेते थे लेकिन उन्हें चेतावनी दे दी जाती थी कि दादी अम्मा को पता न चले...वरना भूचाल आते देर नहीं लगेगी । छिप-छिपकर मनाई गई खुशी, खुशी नहीं कहलाती, महज औपचारिकता बन जाती है । सच कहें तो प्रिया और नवीन के विवाह के अतिरिक्त इस घर में कभी खुशियॉं मनाई ही नहीं गई..।

‘ मॉम, चाय...कितनी शक्कर लेंगी आप चाय में...।’ रिया ने पूछा तो वह अतीत से वर्तमान में आई, देखा सुघड़ गृहणी की तरह रिया उससे चाय में शक्कर पूछ रही है, आदतानुसार रूचि ने उठते हुए कहा,‘ लाओ बेटा, मैं स्वयं डाल लॅूगी...।’

‘ मॉम, याद नहीं है, आज आपको आराम करना है, इसके अलावा कुछ नहीं...। बस इतना बता दीजिए कि चाय में आप कितनी शक्कर लेंगी । ’ रिया ने अधिकारयुक्त शब्दों में कहा और उसके निर्देशानुसार चाय में आधा चम्मच चीनी डालकर कप उसे पकड़ा दिया था ।

सुबह के नाश्ते के लिये रिया को किचन में जाते हुए देखकर रूचि सोच रही थी कि अगर सारे पूर्वाग्रह त्याग दिये जाए...व्यर्थ के बंधन और रोक टोक न लगाई जाए तो कोई कारण नहीं कि बहू बेटी न बन पाये...आखिर नये रिश्ते, नये परिवेश, नये रीति रिवाजों को अपनाने में समय तो लगता ही है...धीरज रखकर तथा प्यार और सम्मान देकर ही किसी को अपना बनाया जा सकता है । क्या अच्छा हो कि संबंधों में बंधने से पूर्व ही सबको अपने-अपने रिश्तों के दायरे का पता हो...जिससे व्यक्ति दायरे के अंदर रहकर ही अपने कर्तव्यों और अधिकारों का पालन कर सके...कोई न किसी के अधिकार का अतिक्रमण करे और न ही किसी को बेमतलब के कर्तव्यों के चक्रव्यूह में फंस कर पंगु बनाए...लेकिन क्या इक्कीसवीं सदी में भी ऐसा हो पायेगा...?

सुधा आदेश