5
छह महिने खोजते-खोजते बीत चुके थे कभी हरिद्वार, कभी ऋषिकेश, बनारस, गया, हरिद्वार एक-एक आश्रम छान लिया था, गाँव के लोग भी जहाँ तक हो सकता था, खोज आये थे। किसी पहाड़ की तलहटी पर कोई भी आश्रम दिखता उसमें पहुँच जाते, पर, कहीं भी पता नहीं लगा कि सिडंली गाँव के बी0ए0 में पढ़ने वाले जगदीश को वैराग्य ने झपट लिया!
सातवें महिने जब सासू जी की तेरहवीं हुई, उसके अगले दिन एक मंगता जोगी आया। उसी से पता चला कि जगदीश जोगी अखाड़े में अपना श्राद्ध कर हिमालय की ओर चला गया। ससुर जी ने सुना झोले में एक जोड़ी कपड़े और कुछ पैंसे रख अगले दिन पहली बस में बैठे गये थे-बद्रीनाथ में जरूर मिलेगा जगदीश देखे कैसे वापस नहीं आता? ससुर जी ने दो कदम चलकर फिर पलटते हुए कातर स्वर में कहा तो मैंने इसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंका था-कुछ भी हो...अब नहीं ...लौटेगा। माफी मांगेगा तब भी नहीं अपनी स्मृतियों से भी इसे निकालने की कोशिश में दिल पर पत्थर रख दिया था। सोचा था ससुर जी से कहकर नर्सिंग कोर्स या टीचर ट्रेनिंग कर अपनी जिदंगी को नया मोड़ दूँगी। मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, केवल मिडिल पास, पर मिडिल पास छोटी नर्स या अध्यापिका तो बन ही सकती थी। ससुर जी पन्द्रह दिनों बाद हताश निराश लौट आये, पर बेटे का कही पता नहीं चला, धरती निगल गई या आसमान उडा ले गया? बद्रीनाथ के तमाम आश्रम छान मारे, पर, किसी ने जगदीश नाम की आकृति के दीदार नहीं किये। उसके बाद देवर प्रदीप फौज से छुट्टी लेकर आया था, उसने भी भाई की खोज में पूरा हरिद्वार ऋषिकेश छान मारा, पर कहीं इसका सुराग नहीं मिला। फिर कुछ दिनों बाद सासूजी के छोटे भाई बल्लभ ने कलकत्ता से आकर बद्रीनाथ केदारनाथ के सारे आश्रम छान मारे पर कहीं पता नहीं! फिर कहीं से सूचना मिली कि इस शक्ल सूरत का युवक हिमांचल के धर्मशाला में लामाओं के साथ घूमता देखा गया। देवर प्रदीप और ममिया ससुर वहां के लिए निकल पड़े, एक सप्ताह भर बाद खाली हाथ लौटे। अब तो सुसर जी टूट गये। गांव के लोग आते सब की जिव्हा पर एक ही प्रश्न-जगदीश की कोई सूचना मिली?
ससुर जी उन्हें टुकर-टुकर ताकते जैसे उनसे ही उम्मीद कि वही कहेंगे-धैर्य रखो जगदीश के पिताजी एक दिन जगदीश जरूर लौटेगा..‘‘ पर जगदीश नहीं लौटा तो समय ने भी रूकने से इनकार कर दिया और समय के साथ दिनों दिन मेरा यौवन तेजी से फूटने लगा। लोगों को आश्चर्य होता कि पति विहीन मैं चाँद सी खिल क्यों रही हूँ? मुझे मुरझाते रहना चाहिये, बिना पति के स्त्री हर जगह, हर समय असुरक्षित होती है। गाँव के युवा और कुछ अधेड़ भी आँखों से मेरी देह टटोलने लगे थे। पर मेरा जवान देवर मुझे सम्मान भरी नजरों से देखता और उम्मीद की किरण थमाता, कि भाभी! आने वाला कल अच्छा ही होगा, वह बाजार जाता और चुनचुन कर मेरे लिये शिवानी, गुलशन नन्दा के उपन्यास ले आता। साथ ही फिलिप्स का रेडियो भी उसने मुझे दे दिया था, पर गांव वालों को इसमें एतराज हुआ, मैं खेतों में जाती लोग व्यंग कसते, पंदेरे में जाती लोग पूछते-जगदीश ब्वारी! कुछ पता चला जगदीश का....च्च च्च बेचारी इस जवानी में सूखी...सूखी..। स्त्रियाँ अश्लील फिकरे कसती, मैं घर आकर एकांत में खूब रोती, एक दिन जब मैं गुठार में कपड़े धोते हुए रो रही थी तो सुसर जी ने देख लिया और उसी क्षण फैसला किया! देवर को तार देकर घर बुला लिया।
देवर आया तो मेरे सोने के बाद दोनों में बात हुई, थोड़ा ना नकुर करके देवर ने हाँ कह दिया, फिर अकेले में ससुर जी ने मुझसे पूछा, मैं क्या कहती जिस तरह देवर मुझे सम्मान भरी नजरों से देखता मेरे दुख में दुखी होता था, मैं भी आकर्षित हो रही थी, जगदीश से रूप गुण में बीस, लंबा, चौड़ा खिलते चेहरे वाला युवा एक साल पहले फौज में भरती हुआ था। मुझे खुशियाँ देने बांहे पसारे था! हो सकता है नियति ने सही फैसला किया हो। अगले दिन हवन कुंड के सामने छोटी सी बेदी बनाकर हमने फेरे लिये थे। पंड़ित ने पति सुख, सौभाग्य का आशीर्वाद दिया था। ससुर निश्चिंत थे। थोड़े दिन के लिये भूल गये कि उनका एक बेटा घर से लापता है। उनका बुढापा सुख से गुजर रहा था। मैं उनकी सेवा में अपना सौभाग्य समझती। मेरे मालिक छुट्टियाँ पूरी होने पर चले गये थे, वे कारगिल सीमा पर तैनात थे। जिदंगी सात रंगों की झमक के साथ अपनी रफतार में आगे बढ़ रही थी। छलकते प्रेम से सराबोर मेरी देह और मन पूर्णमासी के चाँद की तरह खिल रहे थे कि मैंने पाया मेरी कोख में एक बीज फूट कर कांपल बनने को है। मैं बहुत खुश थी। प्रेम भरी चिट्ठी अपने फौजी को लिखती, उन्हें भी मेरी बहुत याद आती, बस चिटिठ्याँ ही हमें एक दूसरे की खुद बिसराने का माध्यम थी। बच्चा हुआ तो सारे गांव में मिठाई बाँटी गई, गांव वालों को रात्रि भोज दिया गया, नामकरण के बाद देव पूजा हुई। इस बीच मेरा फौजी भी आ गया बस चारों तरफ खुशियाँ रंग झमकने लगे थे, मेरी स्मृति में जगदीश कहीं नहीं था, पर जाने क्यों सपने में कभी दिखाई देता भूखा प्यासा दर-दर भटकता! पर मैं सोचती कि शायद अब वह इस दुनियां में ही नहीं हो, और अगर हो भी पूर्ण रूप से वैरागी बन गया हो, पर जब मैं वैराग्य के विषय में सोचती तो भीतर उलझने लगती-वैराग्य का कारण क्या था? अचानक भगुवा धारण करने भी क्या सूझी? कोई चिन्ह तक नहीं छोड़ा। चिट्ठी लिख जाते कोई कारण तो होगा? पर क्या...? जब मैं पति से कहती तो वे कहते, ’’रमोली अब इस विषय में सोचने से पाप लगेगा, अब तुम्हारा मालिक मैं हूँ, अपने खयालों में मुझे देख सिर्फ मुझे.... समझी...?’’ मैंने विस्फारित आँखों से देवर से मालिक बने आदमी को देखा था-सपने, ख्याल, स्मृतियाँ अपने वश में है क्या....? वे तो अनायास चली आती है... ’’मुझे हैरत हो रही थी कि इतना प्यार लुटाने वाला पुरूष उसके ही भाई का नाम लेते ही त्योरियाँ क्यों चढ़ा लेता है।
बच्चे ने दूध पी लिया है दूध भी तो भरपूर उतरता है मेरी छातियां में! तृप्त होकर सो गया है, इसे पीठ पर बाँध लेती हूँ और तनिक सुकून की साँस लेती हूँ, अभी दूर तलक कहीं नहीं दिखाई दे रहा वह...। पर अभी तो एक तिहाई पहाड़ी चढ़ी हूँ और उपर और खतरनाक चढ़ाई है, मतलब एकददम सीधी! थोड़ा सा चैन मिला तो भूख भी उछलने लगी है, आधी रात में उठकर रोटी बनाकर रख दी थी, नींद कहां थी आँखों में..।
बमुश्किल उठती हूं, अंग-अंग पीड़ा में है, कई दिनों से दौड़ रही हूँ। खाना भी ठीक से नहीं खाया, सोई तो बिल्कुल नहीं, बस, झपकी ही लगी होगी जरा सी, तभी कुंडी खटकने का खतरा, कभी भी घुस जाता मेरे कमरे में...! और वैसे बांहे फैलाये आता..। नहीं? अब तो झपटता चील की तरह...। जरा भी एकान्त दिखा झप्पटामार कर नोचना शुरू कर देता! तब की बात कुछ और थी। मैं भी लाज से सिकुडी फिर भी उड़कर जैसे चली जाती थी आंलिगन में। भूख ने दस्तक दी तो याद आया रोटी और गुड़ रखा था, रोटी निकाल कर चबाती हूँ, अंजुलि से बावड़ी का पानी लेकर पीती हूं, शायद खाने के लिये और भी कुछ रखा था, नारंगी और केला, थैला टटोलती हूँ, एक कागज हाथ लगा है, एक चिट्ठी है, फौजी प्राणनाथ की- हां तो प्राणनाथ ही कहुँगी, ना जिसने मेरे प्राण बचाये उफनती देह पर बाँध बनाया, मेरे प्राणों में समा गया....। इतना सुख दिया कि देह मन सुख से सराबोर हो गया।
उपर डाकखाने में कुछ शब्द डालकर लिख दूँगी, नहीं, तार भेजूंगी, ताकि जितना जल्दी हो आ सके क्या लिखूँगी? तुम्हारा भाई लौट आया और अब अपने पत्नी होने का हक मांग रहा है। नहीं नहीं वे विश्वास नहीं करेंगे, ‘‘मैं सकंट में हूँ’’ यही लिखूंगी हाँ यही ठीक रहेगा। पर संकट कैसा? वे तो सोचेंगे नहीं कि मैं बहुत बीमार हूँ पर बीमार कैसे अचानक मेरे साथ बड़ी दुर्घटना हो गई है। हाँ यही लिखुंगी वे तत्काल छुट्टी की दरख्वास्त देंगे आखिर उनकी जिंदगी हूँ मैं, कितना चाहते हैं मुझे..। जाते समय कह गये थे कि शीघ्र उन्हें पंजाब में किसी शहर में भेजा जायेगा। वहाँ फेमिली परमीशन मिलेगी ‘‘तुझे और मुन्ने को ले जाउंगा रमोली, अब तू गाँव में नहीं रहेगी।’’ बस इस एक वाक्य पर पुलकित हुई मैं पठान कोट जाने के सपने देखने लगी। गाय, भैस, बैल, बकरियां एक-एक कर बेचने लगी थी। खेती की बटाई पर देने की बात भी चल रही थी। फसल कट चुकने के बाद गेहूँ, जौ, मसूर भी भरपूर मात्रा में हुआ था। दालों की अलग-अलग पोटालियां बना कर रख दी। घी, शहद, सेम के बीज, राजमा और भी कई चीजों की पोटली बनती रहती और सुखद जीवन के ख्वाब देखती कि जिन्न की तरह प्रकट हुआ कमबख्त जोगी! भगवा धोती कुर्ता पहने और हाथ में कमंडल-भिक्षा दे माई जैसे ही वह देहरी के पास आया उसका चेहरा देखकर मैं आवक रह गई दाढ़ी में भी एकदम पहचान गई हकला कर बमुश्किल शब्द फूटे-तु..म....?
वह कमंडल रखकर देहरी के भीतर बंद बरामदे में धमक कर आया और तख्त पर बैठ कर हुंकारने लगा-तो तूने गृहस्थी बसा ली..? हा हा हा’’ वह बीभत्स हंसी हँसा तो तूने सोचा तेरा मालिक मर गया हा हा हा, उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे-अरी बदजात औरत! तू सुहागन होकर दूसरे आदमी के साथ कैसे सो सकती है....? ऐसी भी क्या आग लग रही थी इस जवानी पर...? उसने ऊपर से नीचे एक-एक अंग चबा जाने के भाव से तोला।
मेरा भी खून खौल उठा था-तब नहीं सोचा था जब छोड़कर गये थे साल भर तक कहाँ नहीं खोजा था हिमालय की तलहटी तक...। तब कहाँ लापता हो गये थे? ‘‘मैं भी जोर-जोर से चिल्लाने लगी थी। मुझे होश ही नहीं ठहरा कि बाहर भीड़ इकट्ठी हो गयी है। सिर्फ मेरी चचिया सासू वह काली नागिन भीतर आकर बोली थी-उसका घर है अब आ ही गया है तो पानी पिला.... भोजन करा, साधु महात्मा का तो दुनियां सत्कार करती है। तू कैसी औरत है अपने पति को उसी के घर में आने से रोक रही है छीऽ.....
‘‘ये जोगटा अब मेरा पति नहीं है..’’ मैं दुगने वेग से चिल्लाई-मेरा पति फौज में है....‘इससे मुझे कुछ लेना देना नहीं है..’ बुढिया भी चिल्लाई-इसका घर है और भोजन पानी रैन बसेरे पर अब भी इसका हक है। ‘‘उसने किनारे रखी गागर से औटा कर लोटा भर पानी जोगी को थमाया-बेटा पहले अपने गले की अपनी प्यास बुझा...।’’ बुढ़िया भी उसके पास तख्त पर बैठ गई। जोगी प्यासा था और भूखा भी। प्यास बुझाकर अब उसे खाना चाहिये था। मैं बाहर निकल गई। होना तो मुझे भीतर ही चाहिये था। किसी कोने में घुप्प अंधेरे में..। पाश्चाताप करते हुए अपने को लताड़ते हुए कि क्यों धैर्य नहीं रहा मुझे? इंतजार कर सकती थी। स्त्रियाँ तो पूरी जिंदगी इंतजार करती है। मैंने पके आम सा अचानक टपक पड़े सुख को क्यों लपक लिया? बैठी क्यों न रह गई रेत के कछार पर, पानी की बूदों का इंतजार करते...। पर मैं पीछे के दरवाजे से बाहर निकल कर गदेरे की तरफ चली आई। इसकी दूसरी तरफ घना जंगल था, उपर की पहाड़ी में झरना बह रहा था। पानी के बीच में बड़े विशालकाय पत्थर की चट्टाने, जहां से टकरा कर पानी अपनी दिशा में बह रहा था। यहां गाँव भर की स्त्रियाँ कपड़े धोने आती थी और कभी नहा भी लेती थी। मैं किनारे पत्थर पर बैठ गई और फूट-फूट कर रोने लगी जब काफी रो चुकने के बाद मन हल्का हुआ तो चौंक पड़ी-मेरा बच्चा भीतर बंद कमरे में सो रहा थ। हालांकि वह बहुत देर तक सोता था, पर शोर सुनकर जाग गया तो? कहीं जोगटे ने उसे गोद में उठा लिया तो? कहीं जोगटे ने उसे मारा तो? जिस तरह उसकी आँखों में आग थी वह कुछ भी कर सकता था और वह कुटनी बुढिया उसे बार-बार भड़का रही थी। मैं हवा की मांनिद उड़ कर अपने बच्चे के पास जाना चाहती थी, पर एक मन कह रहा था कि बच्चे को कुछ नहीं होगा, वह सोया रहेगा देर तक। मैं पानी को पत्थरों से टकराते देखने लगी कुछ पानी की लहरें पत्थर से टकरा रही थी, कुछ पानी चुपचाप किनारे से अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था। तभी मुझे खोजते हुए कुटनी चचिया सासू की बहू बैजन्ती आई-दीदी! ओऽ दीदी घर में भीड़ लगी है गांव के सभी लोग जोगी को घेरे बैठे हैं’’। अब क्या करूं....? मेरे भीतर जलजला उठ रहा है, अब तो यह पराया है मेरे लिये, पराया मर्द। हाँ अपना मर्द तो फौज में है। जब वह आयेगा तो जोगी निकाल बाहर करेगा, खूब धिक्कारेगा।