जीवन का मूलमंत्र
"ट्यूशन की फीस तो इतनी लेते हैं लेकिन स्कूल की तरह यहाँ भी न तो पूरा कोर्स कराते, न हरेक को ठीक से समझाते हैं।" गुंजन ने कहा और बादलों की गड़गड़ाहट से भरे आसमान की तरफ देखने लगा।
शाम का धुंधलका गहरा होता जा रहा था। आकाश में काली घटाएँ छा रही थीं और बादल हल्की चमक के साथ गड़गड़ा रहे थे। इस समय के माहौल से ऐसा लग रहा था जैसे कुछ देर पश्चात् भयानक वर्षा होगी।
पल्लव और गुंजन ट्यूशन से लौटकर तेजी से घर की ओर जा रहे थे। सभी विद्यार्थियों की तरह वे दोनों 'ट्यूशन वाले सर' की आलोचना करते हुए धीरे-धीरे जा रहे थे।
लेकिन जब उन्हें बारिश के आसार नजर आए तो उन्होंने अपनी गति तेज कर दी।
पल्लव अपनी किताबों को शर्ट में छुपाने की नाकाम कोशिश करने लगा और गुंजन ने अपने बैग को आगे कर लिया। ताकि जितना हो सके बैग बारिश से बच जाए।
पल्लव और गुंजन एक ही कक्षा के छात्र थे और सबसे बड़ी बात तो यह कि वे दोनों एक ही मोहल्ले में रहते थे। पल्लव के पिता एक ऑफिस में क्लर्क थे जबकि गुंजन के पिता आफिसर थे।
पल्लव पढ़ने में बहुत होशियार था वह अपने सिद्धान्तों और आदर्शों का भी दृढ़ निश्चयी था। ये सिद्धान्त उसे संस्कार स्वरूप अपने पिता से मिले थे। गुंजन अपने आवश्यकता व समय दोनों के हिसाब से अपने जीवन में परिवर्तन लाता रहता था।
जब माँ-बाप बच्चों की आवश्यकताओं को आवश्यकता से अधिक पूर्ण करते जाते हैं तो बच्चों के मन में पैसों का महत्व घट जाता है और वे ऐशो-आराम के आदी हो जाते हैं। ऐशो-आराम से पले बालक अपने दायित्व से विचलित होकर सामाजिक बुराइयों का दामन पकड़ लेते है। यही हाल गुंजन का था। वह अमीर घराने से सम्बन्ध रखता था अब उसका ध्यान पढ़ाई से हटकर मौज-मस्ती की ओर झुक गया था। दूसरी तरफ कीचड़ में प्रस्फुटित कमल के समान अभावों से
तपते जाते हैं। ठीक वैसे ही पल्लव एक न घर का बालक था और समृद्धि की अपूर्णता में भी सम्पूर्णता अनुभव करता था।
सड़क पर चलते-चलते अचानक पल्लव का पैर किसी भारी चीज से जा टकराया। ठोकर लगने की वजह से वह वस्तु बिजली के खम्भे के पास पहुंच गई।
पल्लव कुछ समझ नहीं पाया। उसने ध्यान से उधर देखा तो उसे कोई वस्तु पड़ी हुई नजर आई। उसने गुंजन का हाथ थामकर कहा -" देखो कोई चीज मेरे पैरों से टकराकर दूर जा पड़ी है।"
गुंजन ने हाथ झटकते हुए कहा-"अरे जल्दी घर चल। तू इस चक्कर में मत पड़। कोई मेंढक होगा। देख नहीं रहा बारिश शुरू हो गई है।"
लेकिन पल्लव को सन्तुष्टि नहीं हुई। वह उस ओर बढ़ गया जहाँ वह वस्तु पड़ी थी। जब गुंजन ने देखा कि पल्लव का रुख उस ओर हैतो वह भी वस्तु को देखने की उत्सुकता में उसी तरफ बढ़ गया। गुंजन की आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं क्योंकि वह वस्तु मेढ़क नही किसी का पर्स था।
इससे पहले कि पल्लव उसे उठा पाता गुंजन ने शीघ्रता से उसे उठा लिया और चुप रहने का संकेत किया जैसे पर्स का मालिक आस पास ही कहीं उपस्थित हो।
पल्लव गुंजन के कन्धे पर हाथ रखकर धीरे-से फुसफुसाया-"अरे यार आखिर है क्या चीज?"
गुंजन कुछ न बोला और आदेशात्मक स्वर में बगीचे में चलने को कहा।
बादल बहुत जोरों से गड़गड़ाकर, तेज बारिश होने की सूचना दे रहे थे। लेकिन इन सबसे बेखबर वे दोनों यह भी भूल गए थे कि चन्द क्षणों में वर्षा अपना रूप धारण कर लेगी। बगीचे के एकान्त कोने में पहुँचकर वहाँ गुंजन ने वह पर्स निकाला और उसमें रखी हुई रकम देखने लगा। सौ-सौ के तीन नोट और पचास के करीब खुले रुपये पड़े थे।
जबकि पल्लव की निगाह पर्स में एक ओर लिखे गए उस व्यक्ति के पते पर थी। वह ध्यानपूर्वक उस पते को पढ़ रहा था ।
दोनों अपनी-अपनी दृष्टि से उस पर्स को देख रहे थे। इतने में ही गुंजन की आवाज ने उसका ध्यान भंग कर दिया-"अरे इसमें तो साढ़े तीन सौ रुपये हैं।" उसकी आवाज में प्रफुल्लता थी। पल्लव उसे ध्यान से देख रहा था। वह सोच रहा था कि विचार बदलते देर नहीं लगती और व्यक्ति समय के मुताबिक जरूरत से भी ज्यादा चालाक हो जाता है।
उसने गुंजन के चेहरे को पढ़ते हुए कहा-"तो क्या करना चाहिए?"
गुंजन ने तीखी आवाज में कहा-“करना क्या चाहिये, आधे-आधे कर लेते हैं। कुछ दिन मौज-मस्ती करेंगे।"
फिर कुछ सोचते हुए बोला-"अरे हाँ, मुझे तो पान वाले की उधारी पटानी है। चलो अच्छा है मेरी उधारी पट जाएगी। आज तो लक्ष्मीजी मेहरबानी हो गई।"
पल्लव तिलमिला गया और चीखते हुए बोला-"क्या कहा तूने!
पैसे आधे-आधे बाँट लें।" परन्तु शीघ्र ही उसने स्वयं पर काबू कर लिया क्योंकि उसे मालूम था कि क्रोध से काम बिगड़ सकता है।
वह हँसकर उसे समझाते हुए बोला-“देख गुंजन इस समय वो व्यक्ति कितना दुखी होगा, न जाने किस आवश्यक कार्य के लिए उसने ये पैसे सहेजकर रखे होंगे। हमें ये पैसे उसी व्यक्ति तक पहुँचा देने चाहिए।"
फिर पर्स की ओर इशारा करते हुए कहा-"देख तो सही इसमें उस व्यक्ति का पता लिखा है।"
पर गुंजन के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। उसने अपने किये जाने वाले कार्य पर पर्दा डालते हुए कहा-"नहीं, ये रुपये हमने चुराए थोड़े ही हैं। ये तो हमें मिले हैं, हम कोई पाप नहीं कर रहे हैं। थोड़े रुपयों का प्रसाद भी चढ़ा देंगे। ये रुपये तो भगवान ने खुश होकर हमें दिए हैं। हम उसे रुपये लौटाने क्यों जाएँ? भला यह भी कोई बात हुई?"
पल्लव ने फिर से समझाते हुए कहा-"देखो मानवता के नाते हम अपने कर्तव्य का पालन न करें यही सबसे बड़ा पाप है।"
इस पर गुंजन ने लोगों पर ही इल्जाम लगाते हुए कहा-"वाह भई वाह! यह भी खूब बात हुई एक तो ये लोग अपनी जेबें संभाल कर नहीं चलेंगे। दूसरे गिर गया तो हमें क्या मतलब है लौटाने से। पर्स उनकी गलती से गिरा है अब ढूँढते हम फिरें।"
पल्लव ने कहा, "देखो गुंजन यदि हम कोई चीज किसी को दे देते हैं तो गम नहीं होता और यदि पच्चीस पैसे भी खो जाते हैं तो हम
हो जाते हैं। उसे दस बार ढूँढते हैं। तुम्हीं याद करो जब तुम्हारे मामा द्वारा लाया गया पेन खो गया था तो तुम कितने व्यथित हुए थे मात्र दस रुपये के पेन के कारण तुमने खाना-पीना सब-कुछ त्याग दिया था। अब तुम ही बताओ कि तुम इतने लापरवाह क्यों हो गए थे तुम अपने आप में स्वयं वैसा परिवर्तन नहीं ला सकते जैसा दूसरों को बनने का उपदेश देते हो।"
गुंजन ने बातों का सिलसिला खत्म करते हुए कहा-"अरे छोड़ भी इन बातों को इनमें क्या रखा है?"
पल्लव का मन खिन्न हो रहा था कि इस प्रकार के हादसे को सहन करके भी गुंजन दूसरे के दुःख को महसूस नहीं कर पा रहा था। पल्लव ने उसे फिर याद दिलाया-"देख तेरा पेन एक लड़के को मिल गया था और उसे पता चलने पर वह तुम्हारा पेन वापस करने आया था न। चाहता तो वह भी तुम्हारा पेन रख सकता था। लेकिन उसने अपने दायित्व का निर्वाह किया था। तब तुमको अतुलित प्रसन्नता हुई थी। आज तुम ही गिरी हुई चीज पर अपना अधिकार जमा रहे हो । दूसरे की अमानत को अपना बना रहे हो।"
गुंजन ने कहा-"देख पल्लव मैं बीती हुई दुःखद घटनाओं को केले के छिलके के समान जीवन से उतार कर फेंक देता हूँ। अब तू यह बता कि तुझे यह रुपये चाहिये या नहीं?"
पल्लव को अहसास हो गया कि इस लालची चिकने घड़े पर ईमान की चन्द बूंदों का कुछ भी असर नहीं होगा। वह झल्लाकर बोला- "उस पर्स के बारे में तो मैंने ही तुझसे कहा था। अतः उस पर्स पर मेरा ही अधिकार होना चाहिये फिर मैं जो चाहूँ करूँ ।"
गुंजन ने कहा-"माना कि बताया तो तुमने था जनाब , पर साहेब उठाने की हिम्मत तो हमने ही की थी।"
इतने में बूंदा-बाँदी होने लगी और वे लोग तेज कदमों से घर वापिस चल दिए। पल्लव सोच रहा था कि जब इन्सान पर लालच का भूत सवार होता है वह किसी की नहीं सुनता। लोलुप आँखें दूसरे की विवशता या आवश्यकता को नहीं देखने देती। उसे ठोकर लग चुकी है, परन्तु यह सुधरा नहीं है। ठोकर लगने पर व्यक्ति अपने कर्मों में सुधार लाकर जीवन नई दिशा प्रदान कर देता है और यदि न सुधरे तो उसे सबक सिखाना चाहिए।
अभी वे रास्ते में ही थे कि बारिश ने जोर पकड़ लिया और वे एक दुकान के पास जा कर खड़े हो गए, जहाँ बारिश से थोड़ा बचा जा सकता था। गुंजन ने बैग खोलकर उसमें पर्स रख लिया और बैग को बन्द करने की आवश्यकता न समझ लापरवाही से खड़ा हो गया।
पल्लव को उस पर बहुत क्रोध आ रहा था। आज थोड़े से रुपयों के कारण वह अपने ईमान से डिग रहा था। जब व्यक्ति के खुद के सिर पर कोई दुःख आता है तब व्यक्ति को दुःख का अहसास होता है। नहीं तो व्यक्ति दूसरे दुःख को अपने मनोरंजन का साधन मान लेता है। वह उसे सही रास्ते पर लाने की योजना बनाने लगा। वर्षा तेज होने की वजह से वह गुंजन से और अधिक सटकर खड़ा हो गया और चुपचाप उसके बैग में से पर्स निकाल लिया। गुंजन को इस बात की खबर तक नहीं लगी। अब तक बारिश हल्की हो गई थी वे शीघ्रता से घर की ओर चल पड़े।
घर पहुँचकर पल्लव ने पिताजी को सारी बातें बताई और पूछा कि पिताजी मैंने गुंजन के बैग से बिना कहे पर्स निकालकर कोई बुरा कार्य तो नहीं किया?
उन्होंने कहा-"नहीं बेटे, दूसरों की भलाई के लिए यदि हम झूठ बोल देते हैं तो कोई गलत बात नहीं। एक सही बात के लिए तुमने एक गलत काम किया। बेटे मानवीय धर्म का पालन करना ही जीवन का मूलमंत्र है।"
गुंजन को घर से बुलाया गया, वह बेतहाशा रो रहा था, आज उसके पापा स्कूटर से जा रहे थे तो उनका कार से एक्सीडेंट हो गया था। पल्तव के पापा ने गुंजन को समझाया फिर वह अपनी गलती को स्वीकार कर वह उन लोगों के साथ जाने को उद्यत हो गया।
वे तीनों पर्स में लिखे पते पर खोजते हुए पर्स के मालिक के यहाँ पहुँचे । तो पता लगा कि वह एक इन्सपेक्टर था। उसने बताया कि आज एक कार और एक स्कूटर की दुर्घटना के बाद दुर्घटना ग्रस्त घायल आदमी को अस्पताल ले जाने के चक्कर में पर्स कहीं लापता हो गया था।
गुंजन सोच रहा था कि घर पहुँचते ही पता लगा था कि उसके पापा का एक्सीडेंट हो गया था। इन्सपेक्टर के विवरण के अनुसार उसके पापा को वही इंस्पेक्टर अस्पताल लाये होंगे ।
उसके पापा को अस्पताल ले जाने के चक्कर में इनका पर्स गायब हुआ होगा। तब तो और भी उसका फर्ज बनता है कि वह पर्स लौटा दे। जबकि वह मानवीय धर्म को भूलकर दूसरों के रुपयों को हजम करना चाहता था।
उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। पल्लव, गुंजन के अंतर्मन की बात समझ गया।
इन्सपेक्टर साहब ने पुरस्कारस्वरूप उन्हें कुछ रुपये देना चाहे तो सबसे पहले गुंजन ने ही लेने से इन्कार कर दिया। पल्लव के लिए तो सबसे बड़ा पुरस्कार यही था कि आज आँसुओं के रूप में उसके दोस्त का पूरा कलुष बहकर निकल गया।
वह जीवन के मूलमंत्र की महत्ता को परख चुका था कि पराए धनके लिए कभी न ललचाना चाहिए । फिर उसने गुंजन से वादा लिया कि भविष्य में वह अपने दायित्व का निर्वाह करेगा और मानवीय धर्म का पालन करेगा।
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