Nine thirteen twenty two in Hindi Horror Stories by Deepak sharma books and stories PDF | नौ तेरह बाईस

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नौ तेरह बाईस

“मैं निझावन बोल रहा हूं, सर” मेरे मोबाइल के दूसरी तरफ मेरे बॉस हैं, मेरे जिले के एस.पी। अपनी आई.पी.एस के अंतर्गत। जबकि मेरी प्रदेशीय पुलिस सेवा में मेरी तैनाती यहां के चौक क्षेत्र में सर्कल ऑफिसर के रूप में कर रखी है। अभी कोई तीन माह पूर्व।

“एनी इमरजेंसी?” राजधानी से बॉस आज सुबह लौटे हैं और इस समय जरूर अपनी श्रृंगार-मेज पर अपने प्रसाधन के मध्य में हैं।

“यस सर। मेरे सर्कल के नवाब टोला की वारदात है। कल शाम स्पोर्ट्स कॉलेज की कोई लेक्चरर आग में झुलस कर मर गई थी, सर।”

“नवाब टोला कहां पड़ेगा?” वे अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते हैं। दूसरों को गोल-गोल घुमा कर उन्हें फिर नौ-तेरह बाईस बताने में उनका कोई सानी नहीं।

“मेरे थाने की दिशा से वह धक्कम-धक्के वाले एक चूड़ी बाजार का अंतिम छोर है सर, और आपके बंगले की दिशा से बड़े चौराहे की एक तिरछी काट।”

हमारे जिले में बड़ा चौराहा एक ही है। जहां पहुंचकर सीधी और दो घुमावदार सड़कें अपने फलक उसके हवाले कर देती हैं।

“रिहायशी क्षेत्र है? मुस्लिम बाहुल्य?”

“यस सर। चौदह मकान हिंदुओं के हैं और पच्चीस मुस्लिमों के।”

“मरने वाली मुस्लिम थी?”

“नहीं सर, वह हिंदू थी। आशा क्वात्रा। उम्र 26 साल।”

“हैंग लूज। परवाह न करो।”

अंग्रेजी भाषा और अमरीकन स्लैंग का बॉस को चस्का है, तिस पर उनकी खूबी यह है, वे स्लैंग उच्चरित करते ही उसकी हिंदी भी साथ ही जोड़ देते हैं। मुझ जैसे ‘देसी’ जन की सुविधा के लिए।

“यस सर” मेरी आवाज में सलामी है। अपनी रणनीति के निश्चय-अनिश्चय के बीच मैं व्यवहार-कुशलता की ओट में जा खड़ा होता हूं, “लेकिन सर, मृतका के पिता मेरे दफ्तर में बैठे हैं और एक एफ.आई.आर. दर्ज करवाना चाहते हैं। उनके दुस्साहस पर मैं स्वयं बहुत हैरान हूं, सर। उनके आरोप की असंभावना…”

“हैंग आउट। भेद खोल दो।” वे धैर्य खो रहे हैं।

“वे आपको अपनी बेटी की मृत्यु का कारण ठहरा रहे हैं, सर…”

“होल्ड एवरीथिंग। प्रतीक्षा करो। मैं पहुंच रहा हूं…।”

“यस, सर…”

विभाग में बॉस की अच्छी धाक है। बावजूद इसके कि वे सप्ताह में तीन दिन राजधानी में बिताते हैं और बाकी चार दिन की लगभग प्रत्येक संध्या देर रात की पार्टीबाजी में। उनके ससुर प्रदेश पुलिस के एक महकमे के डायरेक्टर जनरल हैं और सभी जानते हैं यह सीढ़ी उन्हें बहुत ऊपर ले जाने वाली है।

बॉस को मैं नहीं बताता मृतका के पिता अपने रूसी वुल्फहाउंड के लापता होने की एफ.आई.आर. में भी बॉस को नामजद करना चाहते हैं- ‘बुर्के वाली जिस टहलनी की आपको तलाश है वह और कोई नहीं, आपका यह एस.पी. है क्योंकि हमारे उस बौलजौए से भी उस दुष्ट ने हेल-मेल कर रखा था।’

असल में मृतक के पड़ोसियों द्वारा वारदात की सूचना मिलने पर जब मैं अपने दल के साथ वहां पहुंचा था तो उन्हीं में से कुछ लोग बारंबार एक ही बार दोहराए रहे, दोपहर में उन्होंने मृतका के कुत्ते को बुर्के वाली उसी टहलिन के साथ मकान से बाहर निकलते हुए देखा था जिसे वे अक्सर उस कुत्ते के साथ आते-जाते हुए देखा करते। वह तो जब शाम होते-होते मृतका के मकान से उठ रहे धुएं का आयाम अप्रत्याशित रूप ग्रहण करने लगा था और मकान के दरवाजे की घंटी बजाने पर, जवाब में, दूसरे दिनों की तरह न तो उन्हें कुत्ते की भौंक सुनाई दी थी और ना ही अंदर से मृतका की कोई आहट, तभी उन्हें ध्यान आया रहा, बुर्के वाली टहलिन मृतका के कुत्ते के साथ नवाब टोले पर लौटी ही न थी। तिस पर जब दरवाजा देर तक घंटी बजाने पर भी खोला नहीं गया तो उन्हें फायर ब्रिगेड और पुलिस बुलाने की जरूरत महसूस हुई रही। और जब तक हम पहुंचे, लड़की मर चुकी थी। अस्पताल ले जाए जाने पर डॉक्टर बोले थे- ब्रॉट डैड।”

अपने बाथरूम के एकांत से मैं अपनी मेज़ पर लौट आता हूं।

एफ.आई.आर. का रजिस्टर खोलता हूं, उसकी पेंसिल अपने हाथ में लेता हूं और अपने सामने वाली कुर्सी पर बैठे हुए मृतका के पिता, चंद्रमोहन क्वात्रा से पूछता हूं, “आपकी बेटी हमारे एस.पी. साहब को कब से जानती थी?”

बॉस के आने तक मुझे उन्हें बातों में उलझाए रखना है। बिना कुछ दर्ज किए।

“मेरे लिए यह अत्यंत लज्जा का विषय है और मैंने उनसे नाता भी तोड़ रखा था किंतु उसकी मृत्यु ने मुझे फिर उससे ला जोड़ा है…” तना हुआ उनका चेहरा एकदम ढीला पड़ जाता है। उठी हुई ठुडी नीचे गर्दन पर गिर जाती है और वह फूट-फूटकर रोने लगते हैं; बीच-बीच में अपने विलाप भरे वाक्य जोड़ते हुए- वह सबसे ज्यादा मेधावी थी…, सबसे ज्यादा खूबसूरत…’ कुल जमा तेईस वर्ष की आयु में उसने इतने बड़े स्पोर्ट्स कॉलेज में अध्यापकी पा ली थी…, वॉर्डनशिप पा ली थी…,

“वार्डनशिप!” मैं चौंकता हूं, “लेकिन आपकी बेटी तो हमारे चौक क्षेत्र के इस नवाब टोले में पिछले साल ही से एक किराए के मकान में रह रही थी…”

स्पोर्ट्स कॉलेज दूसरे खाना क्षेत्र में पड़ता है।

“हमारा दुर्भाग्य। जो वह वार्डनशिप उसके हाथ से निकल गई…” उनका कोप उनके चेहरे पर लौट रहा है, शोकाकुलता को मिटाता हुआ…

“कैसे?” मैं पूछता हूं।

“डेढ़ वर्ष पहले स्पोर्ट्स कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल की एक छात्रा की आकस्मिक प्रसूति के कारण हुई मृत्यु पर भयंकर बखेड़ा खड़ा हो गया था। आशा की जवाबदेही शंका के घेरे में आ गई थी। तिस पर पुलिस के हस्तक्षेप ने मामला और पेचीदा बना दिया था। तभी तो इस दुष्ट एस.पी. से मेरी अभागी बेटी की भेंट हुई रही…।”

"आपके परिवार में और कौन-कौन हैं?"

"मेरी पत्नी है। दो बेटियाँ हैं।"

"वे क्या करती हैं?"

"मेरी पत्नी एक स्कूल में गेम्स टीचर हैं। बड़ी बेटी लखनऊ के एक बी.पी.एड. सेंट्रल स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर। आशा हमारी मछली थी” एक पल के लिए उनका गला भर आया है किंतु अगले ही पल वे अपने को संभाल ले जाते हैं।

“एक ही परिवार में इतने स्पोर्ट्स परसंस!” अपना परिचय देते समय में मुझे बता चुके हैं कि वे स्वयं उधर अपने कस्बापुर के फिजिकल ट्रेनिंग कॉलेज में अध्यापक हैं, एक ही परिवार में इतने अध्यापक!”

प्रभावित होने का भाव मैं अपने चेहरे पर ले आता हूं। शायद मैं उनसे प्रभावित हो भी पा रहा हूं। उनकी आयु पचपन और अठ्ठावन के बीच कुछ भी हो सकती है। किंतु उनकी देह का गठन अभी भी खूब कसरती है, बलिष्ठ है। उनके दिखाव-बनाव में कहीं विपुलता नहीं, कहीं अप्राकृतिकता नहीं। आधे से अधिक सफेद हो चुके अपने बालों पर उन्होंने किसी खिजाब की परत नहीं डाल रखी। पुरानी काट का वे एक साधारण सफारी सूट पहने हैं। उनके चश्मे का फ्रेम भी पुराना है। किंतु प्रियदर्शी उनके चेहरे पर एक उज्जवलता है, एक गरिमा है। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं, उनका अनुशासन स्वगृहीत एवं स्वतः पूर्ण है। तभी वह दूसरों से भी उसकी अपेक्षा रखते हैं।

“लेकिन सभी ठगे गए। दो बार ठगे गए। पहली बार जब उस दुष्ट के विहार को हम आंखें मूंदकर प्रेम समझ बैठे और हमारी आंखें तब खुली जब हमने उसके विवाह के फोटो समाचार-पत्रों में छपे देखे। और दूसरी बार जब आशा के डिप्रेशन के उपचार के अंतर्गत उसके डॉक्टर ने हमें इस बेगाने शहर में उसकी स्पोर्ट्स कॉलेज वाली नौकरी नहीं छुड़वाने दी, यह तर्क देकर कि आशा को यह नौकरी व्यस्त रखेगी और रही उस दुष्ट की बात तो वह अपने ससुर के भय से स्वयं ही आशा से दूरी बनाए रखेगा। और जब तक हमने जाना दुष्ट ने आशा पर अपने पूर्वाधिकार का लाभ उठाकर उसे पुनः वशीभूत कर लिया है, मूर्खा औचित्य-अनुचित की सीमा लांघ चुकी थी…”

“और आपने उन्हें अपने स्नेह से वंचित कर दिया? नवाब टोला के उनके पड़ोसी बता रहे थे वह उन्हें हमेशा अकेली ही दिखाई दिया करती थीं। बुर्के वाली उस टहलिन के अतिरिक्त उनके मकान में किसी का भी आवागमन न रहा…”

“हम उससे रूठे रहे, अड़े रहे कि हमें मनाना चाहती है तो उस दुष्ट को छोड़ आओ। फिर उसकी रखवाली के लिए बौरजो तो रखा ही रहा…”

“उनके पड़ोसी बता रहे थे वह कुत्ता कम और भेड़िया ज्यादा मालूम देता था…”

“असली नस्ल का बौरजो था। मेरी सास उसकी तीनों पीढ़ी के सायर और डैम ब्रीडरर्स को जानती रहीं। संयोगवश यह बौरजो तब पैदा हुआ था जिन दिनों आशा अपने डिप्रेशन के उपचार हेतु हमारे पास कस्बापुर में थी और घर पर ही रहती थी। ऐसे में नन्हें बौरजो की देखभाल उसी के जिम्मे ज्यादा रही और बौरजो भी उसी के संकेत पर सर्वाधिक फुर्ती और उछाल ग्रहण करता था। फिर जब आशा इधर अपनी ड्यूटी पर लौटी तो हमने वह रखवाल दूत उसके संग इधर भेज दिया। और भेद की एक बात बताऊं?”

“जरूर बताइए क्योंकि मेरे पास भी आपको बताने के लिए भेद की एक बात है” मैं कहता हूं।

“तो तुम ही पहले बताओ…”

बेटी की मृत्यु से उनका ध्यान हटाने की खातिर मैं उनकी बात मान लेता हूं, “मेरे पिता आज जीवित नहीं किंतु आपको देखकर आज उनकी याद जरूर ताजा हो गई। आज यदि वह जीवित होते तो लगभग आप ही की आयु के होते और आप ही जैसे दिखाई देते…”

मेरे भेद में सच घुला है।

“तुम्हारे पिता नहीं हैं?” वे मेरी ओर स्नेह से देख रहे हैं।

“नहीं है नौ वर्ष पहले मैंने उन्हें एक सड़क दुर्घटना में खो दिया था…”

ऐसा लगता है वे मेरी आंखों में अपनी आंखें गड़ा देते हैं, “मेरे परिवार में यदि एक पुत्र ने जन्म लिया होता तो वह जरूर तुम्हारे जैसा होता…”

उनकी आंखों की ज्वाला मेरी आंखों में उतरना चाहती है। किंतु मेरे मन में एक अनजाना सागर उमड़ने लगा है। मैं नहीं जानता, इसे मेरे पिता की स्मृतियां मेरे समीप लाई है या फिर चंद्रमोहन क्वात्रा कि ये अपेक्षाएं-आशाएं जो बॉस के यहां पहुंचने पर अभी धराशायी होने जा रही हैं। बाहर बज रहा मोटरगाड़ी का सायरन उनके आगमन की सूचना है। मुझे उनका बाहर जाकर स्वागत करना होगा। अपनी कुर्सी से मैं उठ खड़ा हुआ हूं।

अपनी गाड़ी से बॉस एक राजा की भांति उतरते हैं।

अपने फुल फॉर्म में अपनी वर्दी में रिवाल्वर से लैस, पूर्ण सज्जित एवं प्रसाधन-युक्त। उनसे पहले उनका तीखा ‘आफ्टशेव’ मेरी दिशा में आ लपकता है

“ कैसे हो निझावन?” वे मुझे मेरे ‘सरनेम’ ही से पुकारते हैं। बिना मेरा पहला नाम अशोक उसमें जोड़ें। अपनी सत्ता की विज्ञप्ति निमित्त भी और उस संयोग के निमित्त भी, जिसके अंतर्गत उनके ‘सरनेम’ कुलश्रेष्ठ, से पहले अशोक ही लगता है।

“सर” मैं अपनी आज्ञाहीनता दर्ज करता हूं।

अपने फॉलोअर्स और गनर को बॉस वहीं रुके रहने का संकेत देते हैं और मेरे साथ आगे बढ़ लेते हैं।

“बुढ़ऊ अभी भी अंदर है क्या?” वह आवेशित हैं।

“यस, सर…”

“आई टेल यू, निझावन, यू गिव एन इंच टू दीज़ मिडल क्लास पीपल एंड वे विल टेक अ होव माइल। मैं बता रहा हूं, निझावन, इन मध्यवर्गीय लोगों को आप एक इंच भी देते हैं तो वे एक पूरा मील जीत ले जाना चाहते हैं…”

“यस, सर…”

“कहिए” बॉस मेरे कमरे में दाखिल होते हैं

अपने धूप के चश्मे को आंखों पर चढ़ाएं-चढ़ाएं।

उन्हें सामने पाकर चंद्रमोहन क्वात्रा अचरज से मेरा मुंह ताकते हैं, “तुमने इसे यहां बुलाया है?”

“आप भूल रहे हैं इस जिले का मैं कप्तान हूं और मेरा कोई भी सी.ओ. मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्यों निझावन?”

“सर!” मैं अपना सिर झुकाता हूं। प्रोटोकॉल के अधीन।

चंद्रमोहन क्वात्रा अपनी कुर्सी पर ज्यों के त्यों बैठे रहते हैं। बॉस के सम्मान में खड़े होने की चेष्टा तक नहीं करते।

बॉस के लिए शायद यह नई बात नहीं है। वे इसे सहज स्वीकार कर रहे हैं, मानो चंद्रमोहन क्वात्रा की आदत रही हो और बॉस उनकी इस आदत के अभ्यस्त हों।

“आप सीधे मेरे पास क्यों नहीं आए?” सुबह प्रेरक मुद्रा में बॉस मेरी कुर्सी पर जा बैठे हैं।

उनकी तरफ से अपने बैठने का कोई संकेत न पाकर मैं उनकी बगल में खड़ा रहता हूं।

“तुम्हारे पास आता तो क्या तुम बौरजो मुझे सौंप देते? या फिर स्वीकार कर लेते, उसे भी तुमने आशा की तरह खत्म कर डाला है?” चंद्रमोहन क्वात्रा तन लिए हैं।

“यू आर इन अ टिज्जी। आपका चित्र अव्यवस्थित है…”

“चित्त तो तुम्हारा भी व्यवस्थित नहीं रह पाएगा जब नवाब टोला के रहने वालों के सामने तुम्हें बुर्का पहना कर चलने पर मजबूर किया जाएगा और वे कहेंगे- हां, हां। यह ठेलमठेल और यह डील-डौल पहचान रहे हैं। यही वह बुर्के वाली है जिसने आशा क्वात्रा के कुत्ते को अगवा किया है…”

“क्लेम अप। चुप रहो।”

“मैं चुप नहीं रह सकता। चुप नहीं रहूंगा…”

“आप शायद जानते नहीं नवाब टोला में आधी से ज्यादा स्त्रियां बुर्का पहनती हैं और…”

“आप नहीं जानते, यहां के सिविल अस्पताल में मेरे एक विद्यार्थी की बहन डॉक्टर है जो मुझे आप लोगों की पूरी खबर भेजा करती थी। उसे मालूम है आशा को तुमसे गर्भ ठहर गया था और वह भ्रूण की डी.एन.ए. रिपोर्ट भी तैयार करवाएगी..."

"डू अ डबल -टेक। दोबारा विचार कीजिए। आशा नाबालिग नहीं थी। बेपढ़ नहीं थी। उसका गर्भ उसके यौनसुख का फल था, किसी बलात्कार का नतीजा नहीं। आइ टेल यू शी हेड ए बैड क्रश ऑन मी। मैं आपको बता रहा हूं वह मुझ पर बुरी तरह रीझी रही…”

“और बदले में तुमने उसे जला डाला?” चंद्रमोहन क्वात्रा के चेहरे की सभी मांसपेशियां और हड्डियां हरकत में आ रही हैं। उनकी भौंहें उनके माथे की त्यौरियां छूने लगी हैं। फूले हुए उनके नथुने उनके गालों पर मुड़क लिए हैं। दांत एक-दूसरे पर मसमसा रहे हैं और जबड़ा ऊपर-नीचे उतर रहा है। उनकी ठुड्डी और गर्दन की झुर्रियां और लकीरों को उभारता हुआ।

“आई हैव हैड बैलीफुल ऑव योर बैलीएकिंग। शिकायत करने की आपकी आदत से मैं आ गया हूं” बॉस के स्वर में अहंकार भरी खीज है, सच आप मुझसे सुनिए। नवाब टोला वाले गवाह हैं इधर कुछ दिनों से उसके घर से उसके कुत्ते की भौंक के साथ कुछ न कुछ जलने की बदबू उन्हें बराबर आया करती थी। कभी कपड़ा, कभी चमड़ा, कभी प्लास्टिक, कभी पॉलीथिन। उनके पूछने पर अव्वल तो पहले वह दरवाजा खोलते ही नहीं और जब खोलती तो कभी बोलती, मैं फल और सब्जियों के छिलके जला रही हूं, कभी बोलती मैं अपने पुराने कपड़े जला रही हूं, कभी बोलती मैं अपने पुराने जूते जला रही हूं। उसी झक में परसों उसने अपने आप को जला डाला है। यह सीधा-सादा एक आत्महत्या का केस है।”

बिना कोई चेतावनी दिए चंद्रमोहन क्वात्रा गोली की गति से अपनी कुर्सी से उठते हैं और मेष की दूसरी तरफ बैठे बॉस पर झपट लेते हैं।

अप्रत्याशित इस आक्रमण की प्रतिवर्ती क्रिया में बॉस गिर रहे अपने धूप के चश्मे को संभालने की बजाय अपने हाथ अपने रिवाल्वर की दिशा में बढ़ा रहे हैं।

उन्हें रोकने के लिए मैं मेज पर रखी अपनी घंटी टनटनाता आता हूं। पूरे जोर के साथ।

चंद्रमोहन क्वात्रा छिटककर बॉस से अलग हो लेते हैं।

“हुजूर! हुजूर! हुजूर!”

थाने में जमा सभी पुलिस-बूट मेरे कमरे में पहुंच रहे हैं। सलामी देकर ‘सावधान’ की मुद्रा में बॉस से अपने आदेश लेने हेतु।

लेकिन बॉस उन्हें कोई आदेश नहीं दे रहे। वे चुप हैं। चतुर हैं जो अपनी सार्वजनिक छवि जोखिम में नहीं डाल रहे।

मैं उनके समीप पहुंचता हूं और जमीन पर गिरा उनका धूप का चश्मा उठाकर मेज पर टिका देता हूं। तत्काल वे उसे मेज से उठाकर अपनी आंखों पर चढ़ा लेते हैं और वापस मेरी कुर्सी पर बैठ जाते हैं।

चंद्रमोहन क्वात्रा अब सुरक्षित है।

“आइए” मैं उनकी पीठ घेर लेता हूं, “मैं आपके साथ बाहर चलता हूं…”

“मुझे रास्ता मालूम है।” वह मेरा हाथ पछाड़ देते हैं, “मुझे सभी रास्ते मालूम हैं और मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगा। और मुझे खुशी है तुम मेरे पुत्र नहीं हो…”

बढ़ रहे पुलिस गुटों के बीच में अपना रास्ता बनाते हैं और हमारी आंखों से ओझल हो लेते हैं।

“व्हाट एन इंफ्रा डिग टू कम्युनिकेट विद एन एक्स डबल-माइनस! ऐसी नीच और दोहरी मंनफी से कुछ कहना-सुनना प्रतिष्ठा के एकदम विरुद्ध है!”

“यस सर” मेरे कमरे में जमा सभी अधीनस्थ कर्मचारी समवेत स्वर में अपनी जी-हुजूरियां प्रदर्शित करते हैं।

मेरे अतिरिक्त।

मुझे काठ मार गया है।

*****