लेखक नामक प्रजाति के सदस्य अक्सर अकादमियों और मंत्रालय के अधिकारियों को कोसते रहते हैं। ये उनकी स्पष्ट राय है कि ये अधिकारी लेखकों को उनके जीते-जी सम्मान नहीं देते हैं। ये अधिकारी इंतजार करते रहते हैं कि लेखक कब परलोक गमन कर इज्जत पाने लायक बने कि वो उनके सम्मान में कोई बड़ा कार्यक्रम कर सकें जो उनकी धन की छोटी-छोटी आवश्यकताओं को पुरा कराने हुते अवसर प्रदान कर सके! वो क्या है कि अधिकारी भी लेखक का सम्मान करते हुए परम्पराओं पुरा निर्वहन करना चाहते हैं। हालाँकि और भी कई कारण हैं जिन्हें या लेखक समझ सकता है या फिर वो अधिकारी। ये कहीं से भी सामान्य व्यक्ति का विषय नहीं है। इसलिए मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए इतना जान लेना ही काफी है। इतनी सूचना ही लेखक के सम्मान व उसके मरने के बीच के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या के लिए काफी है!
वैसे मैंने अक्सर देखा और समझा है कि इस मामले में गलती तो इन भद्र लोगों की ही होती है। परन्तु ये शब्दों के खिलाडी हैं इसलिए दूसरों पर दोषारोपण करते रहते हैं। और दूसरी ओर ये बेचारे सचिव इत्यादि अधिकारियों की चमडी बहुत मोटी होती है और उन्हें ऊँचा सूनने की आदत होती है। इसलिए उन पर कोई अच्छा या बुरा असर पडता ही नहीं है। और जब अधिकारी चैन की बंसी बजा रहा तो कैसे कोई मुझ जैसा सामान्य जन (आम आदमी नहीं कह सकता) को कोई बेचैनी हो सकती है? और इस तरह इस महाभारत का इति श्री रेवा खण्डे समाप्तः हो जाता है।
वैसे इस महाभारत का दूसरा टीका भी है। होता यूँ है कि अधिकारीगण इन्तजार करते रहते हैं कि कब लेखक कवि महोदय आएँ; आकर सलाम करें। कुछ चिकनी चुपडी कविता कहानी उनके प्रशंसा में लिखें। पर अधिकतर लेखक जाते ही नहीं (जो जाते हैं उनके घर सम्मान रखने जगह ही नहीं रह जाती!) और वो इन्तज़ार करते रह जाते हैं कि लेखक महोदय अब आएंगे कि तब आएंगे। कई बार तो खबर भी भिजवाते हैं। उलाहना भी देते हैं। पर भाई लेखक तो ठहरा लेखक। धुन का पक्का। नहीं जाएंगे तो नहीं जाएंगे और अधिकारी भी जिद्दी। बस इसी रस्साकशी में लेखक महोदय कभी बिना खाए तो कभी खुब खाकर दुसरे लोक में स्थानान्तरण करा लेते हैं। इस बात की सूचना जब बेचारे अधिकारी तक पहुँचती है तो वो बहुत ही बड़े स्तर पर दुखी होता है। सोचता है कि बेवजह ही लेखक महोदय के साथ फोटो खींचवाने का मौका से निकल गया! और यही सोचकर लेखक महोदय की इज्जत अफजाई कि सोचता है और बड़े भव्य समारोह का आयोजन करता है। शायद ऐसा करने से उसके मन की व्यथा मलहम लगने से कुछ कम हो जाता है। और लेखक महोदय का दर्द भी कुछ कम सा होने लगता है!
इधर अधिकारी अपने मन की व्यथा के इलाज के लिए जैसे ही समारोह के आयोजन की घोषणा करता है तो उधर दूसरे लोक में बैठे हुए लेखक महोदय की आत्मा जो कभी पुरस्कार के पीछे नहीं भागे पुरस्कार पाने के लिए बेचैन हो ऊठती है और उनकी भूत योनि प्राप्त हो भटकने लगती है। फिर वो लेखकीय भूत रोज सपनों में तो कभी रास्ते पर तो कभी गाड़ी में अधिकारी महोदय को डराने लगता है। और बेचार आतंकित अधिकारी हारकर लेखक महोदय की प्रतिमा पर फूल चढाकर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने के लिए मजबूर हो जाता है।
अधिकारी अधिकारी है तो उसे चापलूसी करने की आदत होती ही है। इसलिए वो कुछ लेखकों को ढ़ूँढ़ता है जो लेखक महोदय इतनी बड़ाई करे कि भूत अधिकारी को छोड़कर बढ़ाई करने वाले लेखक पर सवार हो जाए और इस तरह लेखक महोदय की आत्मा तृप्त हो जाए एवं वो ये इहलोक छोड़ कर परम धाम को चले जाएँ। इस तरह बेचारे अधिकारी को कुछ दिनों के लिए शान्ति मिलती है। फिर कुछ दिनों के बाद एक दूसरे के प्रताड़ना यही क्रम चलने लगता है। शायद इसीलिए इसे जीवनचक्र कहते हैं!