उपन्यास-
एक और दमयन्ती 15
रामगोपाल भावुक
रचना काल-1968 ई0
संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा
भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0
पिन. 475110
मोबा. 09425715707
एक और दमयन्ती ही क्यों?
राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।
इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-
आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ
कहें कहानी।
हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की
एक कहानी।
सुनो महालक्ष्मी रानी ।।
इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।
पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।
रामगोपाल भावुक
पन्द्रह
आदमी अपने जीवन में कभी न कभी, कहीं न कहीं भ्रमित हो जाता है। जो भ्रमित नहीं हुआ वह आदमी नहीं देवता है। ऐसे आदमी कम ही मिलते हैं। जिन्होंने बचपन से ही देवता बनने का प्रयास किया हो। जिसके जीवन में पग-पग पर भटकाव आया हो। वह देवता बनने का प्रयास करे। सम्भव नहीं है।’
यही सोचते हुए भगवती बिस्तर अपर निश्चेश्ट सा पड़ा रहाँ किन्तु पेट में चूहे कसरत कर रहे थे।
वह उठा। रसोईघर में पहुँच गया। सारे डिब्बे खाली पड़े थे। एक डिब्बे में पोहे पड़े थे। उसने स्टोव चेताया। पोहे बनाए और खा-पीकर जल्दी से अपने सोने के कमरे में ही लौट आया। सोचने लगा-‘सुनीता शायद बचाई नहीं जा सकेगी। वह अब इस घर में नहीं आएगी। उसके बिना मैं इस घर छोड़ दूँगा। घर छोड़ने का विचार तो बाद का है अभी यह सोचना मूर्खता है। पहले तो उसे कैसे भी बचाया जाए। यदि सुनीता न बच सकी तो मैं क्या करुंगा।
हाय ! दमयन्ती को मैं अपमानित करके चला आया। आज उसके बिना जीना मुश्किल हो रहा है। वह मेरे रग रग में समा गई है। कितने कश्टों को झेलकर उसने अपना समय व्यतीत किया। बार-बार किस्मत उसी की परीक्षा लेती रही है।
आह ! काश ! मेरे घर के लोगों ने या मैंने विवके से काम लिया होता तो यह मौका ही न आता। उसके पिता की सारी जायदाद भी बाद में किसकी थी। उस दिन सभी की बुद्धि पथरा गई।
काश ! समय के रहते किसी भी बहाने भटकाव से बच जाता। सारे बरातियों में भी क्या कोई समझदार व्यक्ति न था। जो समय के रहते बात संभाल लेता।
धन्य है वे भोज प्रिय बराती जो बिन वधू के दूल्हे को लौटा लाते हैं। कमाल है उन लालची मां-बाप का जो दूसरों का घर उजाड़ देते हैं और अपने मन में दूसरी वधू लाने की कल्पना संजो लेते हैं। वे मनुश्य नहीं हैं जो नारी को मात्र काम वासना की वस्तु मानते हैं।
हाय ! दहेज की कमी हमारी इज्जत बन गई।
वही इज्जत आज वे इज्जत हो रही है। आज उसे कैसे बचाया जा सकता है? झूठी शान-शौकत ने सब कुछ मिटा दिया।
मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं दमयन्ती का चेहरा नहीं देखूंगा। कहाँ गई मेरी भीश्म प्रतिज्ञा। प्रकृति ने एक ऐसे ठौर पर मिलाया कि उस बात की मन में कल्पना भी नहीं आई। नाम बदल गया। जब उसने मुझे पहचान लिया तो मुझ जैसे नीच आदमी से घृणा करनी चाहिए थी। वह प्यार दे बैठी। नारी की अग्नि परिक्रमा का महत्व मैं आज समझ पा रहा हूँ।
मैं उससे बीच-बीच में शादी की बात करता तो वह कह देती-विवाह मन से होता है। शादी में ऐसे रीति-रिवाज अपनाए जाते हैं जिससे मन बंध जाए। पति-पत्नी के रुप में अपने को स्वीकार करने में संकोच नहीं होता है। गौरव का अनुभव होता है।
वह डरती रही। कहीं मुझे कोई ऐसी बात पता न चल जाए जिससे मैं उसे फिर से न ठुकरा दूँ। वाह री आस्था ! पति-सेवा जो निर्विकल्प भाव से करती रही। महेन्द्रनाथ और मैनेजर प्रकाश मिले रहे। उसे ठकते रहे। वह कष्ट सहती रही। वे उससे लाभ उठाते रहे। ब्लैकमेल करते रहे। मेरी आंखों के सामने मेरी पत्नी को लूटते रहे। मुझे क्या पता था कि ये सभी अत्याचार मेरे साथ ही किए जा रहे हैं।
मेरेे फैक्ट्री चले जाने के बाद उस दिन महेन्द्रनाथ का मेरे घर आना। सुनीता द्वारा मारा जाना। अकेले लाश ठिकाने लगाना। सफाई करना। मेरा आना। सुनीता का गम्भीर दिखना। मेरा समझ न पाना। तीर्थयात्रा पर जाते समय मौन रहना। मैं तो निरा मूर्ख हूँ। सुनीता को समझ भी नहीं पाया।
गंगा-स्नान की जगह समर्पण को महत्व देने वाली सुनीता। संसार के सामने वीरता की एक मिशाल छोड़ने वाली सुनीता। जब कभी कोई पुरुष किसी नारी से इस प्रकार व्यवहार करेगा और उसे सुनीता की कहानी याद आ गई तो वह इस कहानी से कुछ सीख सकेगा।
कितना अटूट साहस है नारी में, मैं आज तक समझ नहीं सका था। ऐसी वीर नारी की तुलना में पुरुष का क्या अस्तित्व। वह कश्टों को झेलते हुए आगे बढ़ती रही है। हम लोग नारी के अन्तः को छू भी नहीं पाएँ हैं। वह बड़े-बड़े राजों को छिपाएँ रखती है।
पुलिस ने मामला तो संगीन बनाया है। सुनीता के बच पाने की सम्भावना ही नहीं है। पुलिस का अपना स्वभाव ही ऐसा है जो सच को सच नहीं रहने देती।
बहुत रात हो गई। सुसरी नींद ही नहीं आ रही है। यह सोचकर वह नींद लेने का प्रयास करने लगा। उसकी नींद तो सुनीता ने चुरा ली थी। हर बार चिन्तन के किसी-न-किसी रुप में सामने आ जाती।
क्रम में उसकी निगाह खिड़की के नीचे गई। जहाँ से उसने नोटों का बण्डल उठाया था। देखकर चौक गया। एक पत्र पड़ा था। जल्दी से उठाया। पढ़ने लगा-
‘मिस्टर भगवती मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ। जब तक तुम्हारी निगाह पत्र पर पडे़गी। दरवाजे पर ही बैठा सोचता रहूँगा।’
पत्र पढ़क रवह उठा। उसने दरवाजा खोला।
एक आमदी बाहर बरामदे में था। दरवाजा खुला देखकर वह अन्दर आने के लिए उठ खड़ा हुआ। पहचानने में अंधेरा बाधक हो रहा था। वह आदमी बोला-‘बड़ी गहरी नींद में सोते हो। मैंने रात में दरवाजा खटखटाना उचित नहीं समझा।’
भगवती उन्हें पहचानते हुए बोला-‘पापा जी आप ?’
‘हाँ, मैं। तुम पहले यह बताओ कि सुनीता से सच्चे दिल से प्यार करते हो ना ............?’
‘पापा जी, मैं कोई हनुमान तो हूँ नहीं, जो सीना चीरकर दिखा सकता।’
‘देख भगवती अब तुम दमयन्ती को पहचान गए हो, उसकी कहीं कोई गलती नहीं है।’
‘पापा जी सारी गलतियां मेरी हैं। वह निर्दोश है। मैं उसके अस्तित्व से बहुत देर में परिचित हो पाया।’
‘क्यों जी, यदि मैंने उसे बचा लिया और तुमने उसे फिर ठुकरा दिया तो।’
‘पापा जी यदि आप उसे बचा सकते हैं तो मेरी खातिर उसे बचा लें।’
‘विश्वास कर लूं ?’
‘मैं विश्वास दिलाता हूँ उसे इतना प्यार दूँगा कि उसका जीवन प्यार ही प्यार से भर दूँगा।’
‘ठीक है। ठीक है। मैं यकीन कर लेता हूँ अब एक बात और पूंछना चाहता हूँ ?’
‘पूछिए ?’
‘तुम्हारे पास अब कितने पैसे बचे हैं ?’
‘तीन-चार सौ रुपये।’
‘ठीक है अब इन्हें बर्बाद करने की जरुरत नहीं है।’
‘ पापा जी इच्छा हो रही है आपके चरण चूम लूं। मेरा निवेदन है कि आप यहीं रुक जाइए। आप भी तो मुझ पर विश्वास कीजिए।’
‘बेटे तुमसे अधिक विश्वास और किसी पर नहीं है।’
वापस जाने के लिए सामने खड़ा था एक अस्तिपंजर जो किसी तरह अपने जीवन को ढो रहा था।
भगवती ने उन्हें रोकने के लिए आगे बढ़कर उनके चरण पकड़ना चाहे। वे बोले-‘अरे रे यह क्या करते हो ?’
यह सुनकर भगवती रुक गया। हिन्दू संस्कृति के उत्तर क्षेत्र में दामाद श्वसुर के पैर नहीं छूता। यह सोचकर बोला-‘अब मैं आपको कहीं न जाने दूँगा।’
यह सुनकर वे बैठ गए। भगवती ने झट से सुनीता वाला बिस्तरा लगा दिया और बोला-‘आप इस पर आराम कर लीजिए।’
भगवती ने बाहर का दरवाजा बन्द किया और वह भी लेटते हुए बोला-‘आप उसे कैसे बचा पाएँंगे ?’
‘कैसे बचा पाऊंगा, यह मुझे मालूम है, तुम्हें इसकी चिन्ता नहीं करनी है। हाँ, मेरे बारे में तू किसी को कुछ न बताना। समझे ?’
भगवती ने कहा-‘जी, बहुत अच्छा।’
‘अच्छा, अब सो जाओ।’
‘नींद नहीं आ रही है, ये सब क्या हो रहा है?’
‘बेटे इसे ही किस्मत का खेल कहते हैं।’
‘आप कभी उससे मिले नहीं।’
‘नहीं बेटे, कभी नहीं मिला, पर हर समय इर्द-गिर्द मंडराता रहा हूँ।’
‘आपने हमें भागते हुए देखा था।’
‘हाँ बेटे, मैंने एरोड्रम से पता लगा लिया था कि तुम कहाँ भागे हो। फिर यहाँ आकर यहाँ का चप्पा-चप्पा खोज मारा। एक दिन दमयन्ती गायत्री मिशन के कार्यकमों में दिख गई। उसी दिन से ............।’
‘आप उससे मिल लेते तो ठीक रहता। सम्भव है यह मौका न आता।’
‘यह मौका आ गया तो क्या हुआ ? यह तो बहुत अच्छा रहा स्साला ............।’
‘लेकिन ............?’
‘हाँ, अब ज्यादा बहस मत करो। बेटा मेरा अन्तिम समय निकट आ गया है कुछ दिनों का मेहमान हूँ। मुझे आज इस घर में जितना सुख मिल रहा है उतना पता नहीं कितने वर्शों से कहीं नहीं मिला है।’
‘मिलेगा क्यों नहीं, आखिर यह आपका घर है।’
‘अब तो आराम कर लूं। मैं बहुत थका हूँ।’ शायद एकाध घण्टे नींद लग पाएँ।’ भगवती यह सुनकर चुप हो गया।
दोनों चुपचाप लेटे रहे। ऐसे में नींद किसे आती।
सोलह
महेन्द्रनाथ हत्याकाण्ड के नाम से आजकल सभी अखबारों में कुछ न कुछ अवश्य छप रहा था। आज भी अखबारों में यह समाचार देखने को मिला। अखबार देखने के बाद भगवती ने दमयन्ती के पिताजी को जगाया-‘पिताजी उठिए दिन निकल आया। कोर्ट जाना है। आप हाथ-मुँह धो कर आयें। मैं अभी चाय बनाकर लाता हूँ।’
यह कहते हुए वह रसोईघर में चला गया। वे अलसाते हुए उठे और हाथ-मुँह धोने चले गए। जब वे लौटे भगवती चाय और नास्ता ले आया। दोनों साथ बैठकर नास्ता करने लगे।
भगवती बोला-‘आप आराम करें, मैं कोर्ट जा रहा हूँ।’
‘कोर्ट तो मुझे भी चलना है लेकिन मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूंगा। मुझे अपना काम करना है।’
‘जैसा आप उचित समझें, मुझे क्या ? आप जैसा कहें मैं वैसा करने को तैयार हूँ।’
‘ठीक है, हम दोनों साथ-साथ घर से निकलते हैं। तुम सीधे कोर्ट पहुँचो। मैं तुम्हारे पीछे पीछे आता हूँ।’
दोनों नास्ता करके निवृत हो गए। दोनों घर से बाहर निकले। घर में ताला लगाया। दोनों आगे-पीछे सड़क पर आ गए। एक टैक्सी रुकी। भगवती उसमें बैठ गया। टैक्सी चल दी। टैक्सी ने न्यायालय के बाहर उतारा। कुछ क्षणों तक हतप्रभ सा खड़ा रहाँ उसी समय एक टैक्सी आकर वहाँ और रुकी। उसमें से मैनेजर प्रकाश उतरा, बोला-‘आज तो आप फैसला सुनने जा रहे हैं।’
‘दुखी मन से भगवती ने कहा-‘हाँ मैनेजर साहब, अपने भाग्य का फैसला सुनने जा रहा हूँ।’
‘यार दुःख मत करो, भगवान पर भरोसा रखो, होनी को कौन टाल सका है। मैं भी फैसला सुनने ग्वालियर से आया हूँ।’
यह कहते हुए वह न्यायालय की ओर बढ़ गया। भगवती भी उसके ही साथ साथ चल दिया। दोनों चुपचाप चलते गए। न्यायालय का दरवाजा आ गया।
फैसला सुनने को उत्सुक भीड़ से हाल खचाखच भरा था। दोनों भीड़ को चीरते हुए अगली पंक्ति में आ गए। न्यायालय का कार्य प्रारम्भ हो चुका था। इसी समय सुनीता को लाया गया। सन्नाटा छा गया।
प्रकृति के नियम अटल हैं। किन्तु आदमी को हर स्थिति में प्रयत्न करने से नहीं चूकना चाहिए।
न्यायमूर्ति जी ने फैसला सुनाना प्रारम्भ किया-‘सुनीता के बयानों तथा पिस्तौल पर अंगुलियों के निशान के आधार पर यह निर्णय लिया जाता है कि सुनीता दोशी है लेकिन ............।
ठहरो ............ठहरो ............ अभी फैसला रोक दो, मुझे इस सम्बन्ध में मुझे कुछ कहना है। जब यह न्यायाधीश महोदय ने सुना तो वे रुक गए। भगवती सब कुछ समझ रहा था। पिताजी उसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
न्यायाधीश महोदय बोले-‘कहें, क्या बात है?’
‘मुझे श्रीमान इस केस के सम्बन्ध में कुछ कहना है, कहने की इजाजत दी जाए।’
‘ठीक है जो कुछ कहना चाहते हो कटघरे में आकर कहो।’
यह सुनकर वह बुढ्ढा आदमी सुनीता के सामने वाले कटघरे में आकर खड़ा होे गया। बोला-‘ये वो स्थान है जहाँ दूध का दूध और पानी का पानी किया जाता है। गुनहगार को सजा दी जाती है, बेगुनाह बाइज्जत रिहा कर दिए जाते हैं।
सिनेमा के काल्पनिक दृश्यों की तरह दृश्य सत्य न होते हुए भी सत्य प्रतीत होते हैं। लोग उन्हें सच मानकर देखते हैं। प्रेरणा लेते हैं। उससे गुण अवगुण ग्रहण करते हैं। जबकि आप सभी जानते हैं सिनेमा में सत्य कुछ भी नहीं होता । मात्र सत्य का आभास होता है। ऐसा ही आभास इस केस में आप लोगों को हो रहा है।
दमयन्ती पूर्ण निर्दोश है। उसने सुपथ पर चलने के लिए कड़ा संघर्ष किया है। वह स्वयं स्वीकार कर चुकी है कि हत्या उसने ही की है। हकीकत कुछ और है। दोशी कोई और है। यहाँ तो एक निर्दोश को दोशी मानकर उसे सजा दी जा रही है। न्यायालय का इसमें क्या कसूर जब कोई अपना जुर्म स्वीकार करेगा तो न्यायालय उसे दण्ड देगा ही। हमदर्दी दिखाकर कुछ सजा कम कर देगा।’
सरकार के बड़े लम्बे-चैड़े हाथ पैर हैं। पर यह सब जानने में सरकार असमर्थ रही है। कहानी सुनीता सुना चुकी है। उसी कहानी को दोहराकर न्यायालय का मैं समय बर्बाद नहीं करना चाहता। पर एक छोटी-सी कहानी सुनाने की इजाजत चाहता हूँ।’
न्यायमूर्ति जी ने आदेश दिया-‘इजाजत है।’
इस पर उसने बोलना शुरु कर दिया-‘मैं दमयन्ती उर्फ सुनीता का पिता हूँ। मेरा नाम हरिशंकर है। यह अपराध सुनीता ने नहीं, मैंने किया है। मैंने कैसे और क्यों किया है आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूँ।’
यह सुनकर सुनीता चीखी-‘पिताजी ......और वह बेहोश हो गई। न्यायालय का कार्य कुछ देर के लिए रुक गया। डॉक्टर आ गया। सुनीता की चिकित्सा की गई। उसे होश आ गया। डॉक्टर बोला कोई बात नहीं है सुनीता प्रगनेन्ट है। गाँव
सुनीता चुपचाप खड़ी हो गई। और बोली -‘पिताजी आप झूठ बोल रहे हैं। मुझे बचाने के लिए अपने आपको फाँसी पर चढ़ा रहे हैं।’
यह सुनकर न्यायमूर्ति जी बोले-‘सुनीता तुम चुप रहो, उन्हें कहने दो।’
यह सुनकर हरिशंकर ने कहना प्रारम्भ किया-‘हाँ, तो मैंने यह क्यों किया ? वही बात सामने रख रहा हूँ। दहेज न दे सकने के कारण बारात दमयन्ती को छोड़कर चली गई।
उसी समय से मैं भगवती के खून का प्यासा बन गया था। मेरा जो अपमान हुआ था। उसे मैं सहन नहीं कर पा रहा था। मैं क्या ऐसी स्थिति में कोई भी बाप सहन नहीं कर सकता है। बदले की भावना वाले काले नाग की तरह मुझे डसती रही।
महेन्द्रनाथ दमयन्ती के सम्पर्क में आ गया था। महेन्द्रनाथ दमयन्ती को फुसलाकर तलाक के बहाने ग्वालियर ले गया। मैं समझ गया। यह महेन्द्रनाथ ने फिर विश्वासघात किया है। जब महेन्द्रनाथ गाँव लौटा,मैंने पूछा-‘दमयन्ती कहाँ है?’
वह बोला-‘तुम उसकी चिन्ता न करो, तुम्हारी सेवा के लिए मैं हूँ और हाँ तुमने गड़बड़ की तो में दमयन्ती का पता भी नहीं लगने दूँगा।’
वह दमयन्ती के नाम पर मुझे ब्लैकमेल करने लगा। उसने मेरी सारी जायदाद की बसीयत लिखवा ली। मैं फिर भी चुप बना रहाँ इतने पर भी उसने दमयन्ती का पता नहीं बतलाया। मैं अन्दर ही अन्दर भयभीत बना रहाँ एक दिन मुझे प्रकाश मैनेजर से यह बात पता चल गई कि दमयन्ती उसके यहाँ नौकर है।
प्रकाश के पिताजी मेरे सहपाठी रहे थे। मैंने उसे सारी स्थिति से अवगत कराया। उसने धोखा न देने की कसम खाई तो मैं चुप रह गया। प्रकाश ने मुझे बतलाया कि ‘वह महेन्द्रनाथ से प्यार करती है।’ यह सुनकर मैं चुप रह गया।
मैंने हर क्षण दमयन्ती पर नजर रखी है। दिन-रात उसी की चिन्ता में भागदौड़ करने लगा।
मैनेजर प्रकाश दमयन्ती का ध्यान रखता था। इस बात को लेकर महेन्द्रनाथ और मैनेजर प्रकाश में अनबन रहने लगी थी।
मैनेजर प्रकाश ने दमयन्ती के पैसे महेन्द्रनाथ को नहीं दिए, इसलिए प्रकाश विश्वास का पात्र बना रहाँ इसीलिए मैंने दमयन्ती को वहीं रहने दिया। गाँव में उसकी अधिक बदनामी हो चुकी थी। वह गाँव में जी भी न पाती। गाँव
एक दिन महेन्द्रनाथ ने मुझे खूब मारा और घर से निकाल दिया। घर का मालिक महेन्द्रनाथ बन गया। उन्हीं दिनों भगवती भी उसी होटल में नौकरी करने पहुँच गया था। मैंने भी वहीं एक छोटे होटल में नौकरी करके अपना जीवन काटना शुरु कर दिया। एक-दो बार आमना-सामना होते-होते बचा।
मैंने किसी तरह अपने आपको छिपाएँ रखा। भगवती और दमयन्ती में मेल-मिलाप बढ़ने लगा। यह खबर जब मुझे लगी तो मैं मन ही मन दमयन्ती पर नाराज हुआ। किन्तु चुप रह गया यह सोचकर कि वह उसकी विवाहिता है। महेन्द्रनाथ से सम्भव है ठीक रहे, दोनों नजदीक आ गए।
होटल के कर्मचारी उनके प्यार के गीत गाने लगे। मैंने सोचा महेन्द्रनाथ इन सब बातों को सहन नहीं कर पाएँगा। यदि महेन्द्रनाथ ने दमयन्ती के मामले में दखल दिया तो मैं उसे गोली मार दूँगा। यह सोचकर मैंने एक पिस्तौल खरीदी।
इन्हीं दिनों दमयन्ती और भगवती ग्वालियर से भागे। मैंने उनका पीछा किया। हवाई अड्डे से मुझे पता चला कि वे कहाँ गए हैं। मैं उसी दिन अगली ट्रेन से भोपाल के लिए रवाना हो गया। तभी से मैं यही हूँ। दमयन्ती को कुछ दिनो के परिश्रम के बाद भोपाल में खोज निकाला।
एक दिन महेन्द्रनाथ वी. एच. ई. एल. की तरफ जाते दिखा। मैंने उसका पीछा किया। उस दिन दमयन्ती के यहाँ भीड़भाड़ थी। उस दिन भी यह महेन्द्रनाथ मेरे हाथ से बच गया।
मैं भगवती पर खुश था। दोनों बडे़ प्रेम से रह रहे थे। यदि दमयन्ती को भगवती इन दिनों किसी भी कारण से छोड़ देता तो मैं भगवती को न छोड़ता। दमयन्ती के कार्यकलापों से मुझे सन्तोश मिलता था।
भोपाल में मैंने एक होटल में नौकरी कर ली थी। उसी के सहारे जीवन काट रहा था। वह होटल ऐसी जगह पर है जहाँ से वी. एच. ई. एल. को रास्ता जाता है। मैं इधर आती-जाती हर टैक्सी पर नजर रखता था।
एक दिन महेन्द्रनाथ टैक्सी में दिखा। टैक्सी वी. एच. ई. एल. की ओर जा रही थी। मेरा माथा ठनका। मैंने अपनी पिस्तौल उठाई और उसका पीछा किया। दोपहरी का समय था। महेन्द्रनाथ दमयन्ती के घर में घुस गया। मैंने जानना चाहा कि दमयन्ती और महेन्द्रनाथ में क्या क्या बातें होती हैं।
इसलिए मैंने खिड़की का सहारा लिया। मैं ऐसी जगह पर खड़ा हो गया। जहाँ से अन्दर की सारी बातें सुन सकूं। दमयन्ती अपनी पिस्तौल निकाल चुकी थी। महेन्द्रनाथ ने तो अपनी पिस्तौल रख ली। दमयन्ती ने अपनी पिस्तौल नहीं रखी, महेन्द्रनाथ दमयन्ती पर झपटा। छीना-झपटी होने लगी।
छीना-झपटी में उनकी पिस्तोल चली। इसी समय मैंने निशाना साधकर दमयन्ती को बचाते हुए अपनी पिस्तौल खिड़की के दरांच में से चला दी। दमयन्ती दमयन्ती के पिस्तौल की गोली दीवार से जा टकराई। जिसके निशान कमरे में खिड़की के ऊपर अभी भी देखे जा सकते हैं।
मेरी गोली महेन्द्रनाथ के सीने में लगी। वह वहीं ढेर हो गया। दमयन्ती ने साहस नहीं छोड़ा। वह लाश को ठिकाने लगाने में लग गई। उसने लाश ठिकाने लगा दी। मैंने उस सारे दृश्य को आंखों से देखा है। दमयन्ती रात्री में तीर्थयात्रा पर चली गई। मैंने सोचा-‘सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। यह अच्छा ही हुआ। तीसरे दिन पता चला कि दमयन्ती बीच तीर्थयात्रा से लौट आई है। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है। यह मुझे आशा भी न थी। मैं घबड़ा गया। पर क्या करता? महोदय, वह दमयन्ती उर्फ सुनीता की गोली से नहीं, मेरी गोली से मरा है।’
यह कहते हुए उसने वह पिस्तौल अपनी जेब से निकाली और न्यायाधीश की ओर बढ़ा दी और बोला-‘यह रही वह खूनी पिस्तौल जिससे महेन्द्रनाथ का खून किया है।’ पिस्तौल कोर्ट के कर्मचारी ने ले ली। हरिशंकर ने बोलने का क्रम जारी रखा-‘अब तो एक बात और स्पष्ट करने की रह गई है कि यदि न्याय को किसी प्रकार का सन्देह हो तो दमयन्ती के घर जाकर उस कमरे की तलाशी ली जा सकती है। गोली के निशान को स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है। दुःख तो यह है कि पुलिस ने सारी तपसीस की है पर इस बात की ओर पुलिस का ध्यान ही नहीं गया।
मैंने अपने जीवन से सम्बन्धित भी कुछ बातें कहीं हैं। मैंने मैनेजर प्रकाश को यहाँ बुला लिया है। वह यहाँ मौजूद है। उससे भी इन बातों की पुश्टी की जा सकती है।’
अब हरिशंकर कुछ देर के लिए रुका। सभी आश्चर्य चकित होकर दृश्य परिवर्तन की कथा को देख रहे थे। इसी समय हरिशंकर ने अपने दोनों हाथों से अपना सीना दबाना शुरु किया और बोला-‘बस ..........बस, मुझे अब..........कुछ नहीं ..........कहना..........अब जो सजा हो मुझे..........दी जाए।.......... मुझे..........दी जाए ............।’ कहते हुए कटघरे में गिर पड़ा।
दमयन्ती चीखी-‘नहींऽऽ, पिताजी नहींऽऽ।’
यह कहते हुए उनके कटघरे की ओर भागी।
भगवती भी वहाँ आ गया। भगवती कह रहा था। सारा दोष तो मेरा है। दहेज के कारण यह सब हुआ है। मैं एक नारी के अस्तित्व को पहचान नहीं पाया।
डॉक्टर को बुलाया गया। हरिशंकर का परीक्षण करने में डॉक्टर व्यस्त हो गया। परीक्षण के बाद डॉक्टर ने घोषित कर दिया-‘वह मर चुका है।’ न्यायमूर्ति जी अपनी कुर्सी से यह सोचते हुए उठ खड़े थे-‘यह सब किसके न्याय से हो रहा है। यहाँ का न्यायाधीश तो मैं हूँ। मेरे आदेश से ही यहाँ के सभी कार्य चलते हैं। एक आदमी सारी जिन्दगी परेशानियों से जूझता रहाँ आज न्याय की देहरी पर आकर चला गया।
अब मैं किसे न्याय दूँ ?’
यह सोचते हुए वे न्यायकक्ष से बाहर चले गए।