सत्य मोहे न सोहते ( व्यंग्य )
बचपन से एक ही पाठ पढ़ा है ‘‘सत्य बोलो’’ क्योंकि ‘‘सत्यमेव जयते।’’ सत्य की विजय को लेकर अनेकों काल्पनिक कहानियाॅ बचपन से केवल इसलिए सु
नाई गई है कि हम सत्य बोलते रहे । अब तक हम में से कुछ लोग अपने आपको सत्यवादी साबित करने के प्रयास में अनेकों बार अपने काम बिगाड़ चुके है। अब हमारा सत्य इतना खोखला है कि हम मोबाइल पर अभी कहाॅ है यह भी सत्य नहीं बोल सकते । मोबाइल पर पत्नी के लिए बाज़ार में होना , आफिसर के लिए आफिस में होना और उधार वालों के लिए शहर के बाहर होना जैसे बहाने आज सत्य की पराकाष्ठा से लगते है ।
हम यदि ध्यान से सोचें और इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करें कि सत्य किसे अच्छा लगता है? आपने अपने और अपने करीबियों के कुछ भयानक सत्य केवल इसलिए छुपा कर रखे है क्योंकि वे उन्हें या किसी और को बुरे लग सकते है । यदि मैं आपका घनिष्ठ मित्र हुँ और आपके सामने ही आपके चरित्र और व्यक्तित्व के विषय में सत्य बोलने लगुं तो मुझे नहीं लगता कि मेरी और आपकी मित्रता अधिक समय तक चल पाएगी । हमारे सम्बन्ध ही झूठ और परस्पर प्रशंसा पर आधारित है । वास्तविकता यह है कि हम सत्य बोल कर किसी की प्रशंसा नही कर सकते और प्रशंसा के बिना सम्बन्धों को बनाए नहीं रखा जा सकता । इसका कारण यह है कि सत्य सुनना हमें पसंद ही नहीं है ।
हमारा समाज सत्य कहने की इजाजत भी देता है और प्रोत्साहित भी करता है , परन्तु सत्य बोलने के बाद परिणाम आप को ही भोगने होते है । अनेक लेखक सत्य लिखने में गोलमाल करते है । कार्टूनिष्ठ भी अनेक राजनेताओं और असामाजिक लोगों के कार्टून बनाने से इसलिए कतराते है क्योंकि न्यायालयों के चक्कर के साथ ही साथ, पुलिस और गुण्डों से सबको डर लगता है ।
आप समाज के किसी भी तबके के विषय में सत्य कह दें । आप का विरोध होना ही है । सब असत्य की सेवा में लगे है जिसका असत्य आप उजागर करने का प्रयास करते है वही विरोध में खड़ा हो जाता है । समाज में अनेकों कुरीतियां है; चाहे वो प्रेमियों की सम्मान के लिए हत्या हो , कन्या भ्रुण हत्या और चाहे बाल श्रम परन्तु कुछ लोग इन कुरीतियों का समर्थन करने वाले भी मिल जाएंगे , क्योंकि सत्य भी सबने अपने-अपने गढ़ लिए है । सत्य भी अब सर्वमान्य नहीं रह गया है । अब लोग सत्य की खोज में न्यायालयों के चक्कर लगाते है । देश में राजनीति ने सत्य न कहने का बीड़ा उठाया है देखिए न ... नेताओ के झोपड़े बंगलों में और फिर कोठियों में कैसे बदलते है । अनेकों नीतियाॅं ऐसी है जिन्हें जन हितकारी योजनाओं के नाम से चलाया जा रहा है, लेकिन ऐसी योजनाएॅं भी पक्षपात पूर्ण होती है यदि इन योजनाओं के विरुद्ध भी आप कुछ बोलते है तो या तो आप विरोधी दल के एजेन्ट हो या आप के पीछे कोई विदेशी ताकत काम कर रही है और नहीं तो आप दे
शद्रोही तो होे ही । क्योंकि यहाॅं सत्य उनके राजनैतिक उद्देश्यों के बीच बाधा बनता है ।
सत्य को रोज ही लोग सरेआम चैराहों पर हारते देखते है । कोई भी सत्य को बर्दाश्त करने की ताकत नहीं रखता । खोखले चरित्र के लोग चुन-चुन कर सत्यनिष्ठ लोगों का सफाया करने में लगे है जो कुछ सत्य के पैरोकार बचे भी है वे भी बहाव के साथ बहने को तैयार है। इन पूरी परिस्थितियों में उन बच्चों का क्या कुसूर है जिन्हें आज भी सत्य की शिक्षा दी जा रही है । उन बेचारों को सिद्धांत और व्यवहार के इस बड़े अंतर का सामना करने के लिए कौन तैयार करेगा ? कहीं ऐसा तो नही किताबों के किसी कोने में यह लिखा हो कि ‘‘ सत्य का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है ।’’
खैर ... सत्य बोलने को हम सब तैयार है परन्तु सत्य किसी विदेशी भाषा सा लगता है जिसे सुननेे को कोई तैयार नहीं है । भविष्य का सत्य शायद वही होगा जो न्यायालय में सत्य साबित होगा । सत्य से ऊपर कुछ हो ही नहीं सकता परन्तु व्यवहारिक रुप से इससे बचे रहना हितकर दिखाई देता है । हो सकता है आप एक सत्यवादी हों और आपको ये विचार अच्छे न लगे हो तो आप मुझे बुरा-भला कह सकते है । मुझे न्यायालय में भी खींच सकते है । इससे क्या साबित होगा ? इससे भी यही साबित होगा कि आप एक सत्यवादी है लेकिन आप में भी सत्य सुनने की क्षमता नहीं है । आप भी उन्ही लोगों
में आते है जो ‘‘सत्यमेव जयते’’ न कह कर ‘‘सत्य मोहे न सोहते’’ कहते है ।
आलोक मिश्रा "मनमौजी"