Aadhar - 10 in Hindi Motivational Stories by Krishna Kant Srivastava books and stories PDF | आधार - 10 - संस्कार, जीवन की आधारशिला है।

Featured Books
Categories
Share

आधार - 10 - संस्कार, जीवन की आधारशिला है।

संस्कार,
जीवन की आधारशिला है।
एक बहुत पुरानी कहावत है कि पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं। इसका सीधा अभिप्राय यह है कि बालक के भीतर बचपन में जो संस्कार डाल दिए जाते हैं वे ही बड़े होकर उसके स्वभाव में परिवर्तित हो जाते हैं। बचपन के संस्कार व्यक्ति पूरी जिन्दगी भूल नहीं पाता है। यूँ कहें कि व्यक्ति पूरी जिन्दगी उन्हीं संस्कारों के आधार पर चलता रहता है तो अतिशयोक्ति ना होगी। एक मनोवैज्ञानिक के अनुसार, हिटलर बहुत ही पापी और खतरनाक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने अपने शासनकाल में हजारों निर्दोष व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया था। लेकिन जब वह मरा तो लड़ाई में बिल्लियों से डर के भागने के कारण मरा। बाद में उसके जीवन के विषय पर वैज्ञानिकों ने खोज की तो पता चला कि हिटलर यूं तो क्रूरतम् व्यक्ति था, परंतु वह बिल्लियों से बहुत डरता था। उसका कारण उसके बचपन की एक घटना थी, जब सोते समय एक बिल्ली उसकी छाती पर चढ़ गई थी। इस घटना से बालक हिटलर इतना अधिक भयभीत हो गया था कि वह अपने प्रौढ़ावस्था तक उस भय पर काबू नहीं प्राप्त कर सका। परिणाम स्वरुप हिटलर का यह भय उसके संस्कारों में परिणित होकर अंततः उसकी मृत्यु का कारण बना।
संस्कारों का उदय जन्म से ही होता है और बालक का घर, उस के संस्कारों की जन्मस्थलि है। बालक का प्रथम गुरु उसकी माता होती है, और संस्कारों का प्रवाह बड़ों से छोटों की ओर होता है। बच्चे उपदेश से नहीं, अनुसरण से सीखते हैं। अपने बालक में आदर, स्नेह एवं अनुशासन-जैसे गुणों का सिंचन उसकी माता अनायास ही कर देती है। परिवाररुपी पाठशाला में बच्चा अच्छे और बुरे का अन्तर समझने का प्रयास करता है। इस पाठशाला के अध्यापक, जैसे उसके माता-पिता, दादा-दादी, बड़े भाई-बहन आदि, जैसे संस्कारी होंगे, वैसे ही संस्कार बच्चों के भीतर भी प्रदर्शित होंगे।
आज के आधुनिक समाज में, माता-पिता दोनों के ही व्यस्त होने के कारण, बच्चों में धैर्यपूरक सुसंस्कारों के सिंचन जैसा महत्वपूर्ण कार्य उपेक्षित हो रहा है। आज अर्थ की प्रधानता बढ़ रही है। यही कारण है कि आज के माता-पिता अपने बच्चों को भौतिक सुख-साधन उपलब्ध करा कर सुखी और खुश रखने की परिकल्पना करने लगे हैं। समाज में एकल परिवार इसका एक मुख्य कारण है। बच्चों को अच्छी संस्काररुपी दौलत देने लिए उनके माता-पिता को स्वय़ं योग्य एवं सुसंस्कृत बनना होगा। उन्हें अपनी विवेकशील बुद्धि को जागृत कर आध्यात्म-पथ पर आरुढ़ होना होगा। परिवार और माँ के अतिरिक्त बच्चों के संस्कार का तीसरा स्रोत उसका वह प्राकृतिक तथा सामाजिक परिवेश है, जिसमें वह जन्म लेता है, पलता है और बड़ा होता है। प्राकृतिक परिवेश उसके आहार-व्यवहार का निर्धारण करता है, शरीर के रंग-रुप का निर्माण करता है, व आदतें बनाता है। सामाजिक परिवेश की श्रेणी में बच्चे के परिवार, मुहल्ला, गांव और विध्द्यालय के साथी, सहपाठी, मित्र, पड़ोसी तथा अध्यापकगण आते हैं। बच्चा समाज में जैसे आचरण और स्वभाव की संगति में रहता है, वैसे ही संस्कार उसके मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं। प्रत्येक समाज की एक जीवन-पध्दति होती है, जिसके पीछे उस समाज की परम्परा और इतिहास होता हैं। यह समाज रीति-रिवाज बनाता है, सांस्कृतिक प्रशिक्षण देता है, स्थायीभाव जगाता है, अन्तश्चेतना तथा पाप-पुण्य की अवधारणा की रचना करता है। उसी क्रम में भारतवर्ष में सोलह संस्कारों की परम्परा है जो मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और प्रकृति के बीच सम्बन्धसूत्र बुनते है। ये सूत्र सामाजिक आचरण का नियमन भी करते हैं।
आज आधुनिकता के दौर में व्यक्ति अपने संस्कारों को भूलता चला जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भीतरी अच्छाइयों और बुराइयों की ओर ध्यान न देकर केवल अपने ऊपरी हाव भाव, वस्त्रों और शरीर को अधिक महत्व देने में व्यस्त है। व्यक्ति को अपनी ऊपरी सुन्दरता के साथ-साथ अपनी अन्दरुनी अच्छाइयों एवं संस्कारों की ओर भी ध्यान देना चाहिए और उन्हें भी सुन्दर रूप प्रदान करना चाहिए। आंतरिक सुंदरता ही व्यक्ति को महानता की ओर ले जाती है। आप केवल आंतरिक सुंदरता के बल पर ही दूसरे व्यक्तियों के हृदय पर राज कर सकते हैं।
प्रत्येक मां-बाप और घर के बड़े-बुजुर्ग यही चाहते हैं कि उनका बच्चा संस्कारी बने। वे अपने बच्चों को संस्कार सिखाते भी हैं। लेकिन फिर भी कभी-कभी परिवार के सदस्य जाने-अनजाने कोई भूल कर घर का माहौल दूषित कर बैठते हैं। ऐसे दूषित माहौल में बच्चों का संस्कारी बन पाना कठिन हो जाता है। यदि परिवार में छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा होता है। परिवार के लोग नशे के आदी होते हैं। लड़के-लड़की में भेदभाव करते हैं। परिवार के बड़े सदस्य बच्चों से नफरत करते हैं। तब ऐसे माहौल में रहने वाला बच्चा संस्कार सिखाने के बाद भी अपने अन्दर की बुराइयों को छोड़ नहीं पाता है। दूषित माहौल के बच्चे में विकास के साथ बुराइयां भी बढ़ती चली जाती हैं। इन सब के परिणाम स्वरुप वह समाज में घटिया किस्म का इन्सान बनकर रह जाता है और उसके व्यवहार का भद्दापन स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है।
लेकिन संस्कारों के निर्माण की जिम्मेदारी केवल उसके माता-पिता या परिवार की ही नहीं बनती है। एक निश्चित समय के उपरांत व्यक्ति को स्वयं भी अपने संस्कारों के लिए जागरूक व प्रयासरत रहना चाहिए। इसके लिए उसे अच्छी पुस्तकों का अध्ययन व सुसंस्कारी व्यक्तियों के संपर्क में रहना परम आवश्यक हो जाता है।
संपर्कता के विज्ञान का यदि विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं कि सज्जन व संस्कारी व्यक्ति एक सकारात्मक विद्युत चुंबकीय तरंगों का उत्सर्जन करते हैं। और जो व्यक्ति ऐसी सज्जन व्यक्तियों के संपर्क में रहते हैं, वे चाहे अनचाहे इन सकरात्मक विद्युत चुंबकीय तरंगों का अवशोषण कर अपने नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचारों से प्रतिस्थापित करते रहते हैं। जिसके प्रभाव से दूषित व्यक्ति के चरित्र में आमूलचूल परिवर्तन होता हुआ देखा जा सकता है। यही कारण है कि माता पिता अपने बच्चों को ऐसे संस्कारी बच्चों के संपर्क में लाने का प्रयास करते हैं जो सुसंस्कृत व शिक्षित परिवारों से संबंध रखते हो।
यदि व्यक्ति के परिवार में सम्पन्नता और संस्कार हैं तो उसका परिवार देवों के घर से कम नहीं है। लक्ष्मी भी वहीं ठहरती है जहाँ घर में प्रेम, वात्सल्य और धर्म का माहौल होता है। अत: हम सभी के अंदर संस्कारों में देवत्वपना होना जरूरी है अन्यथा हम अपने जीवन में कोई भी आत्मिक खुशबू वाले फूल नहीं खिला पायेंगे। परमात्मा पवित्र गीतों से नहीं पवित्र आचरण से प्रसन्न होता है। ये सुसंस्कार ही है जो जीवन को आध्यात्मिकता की सर्वोच्च ऊंचाई तक ले जा सकते हैं अन्य कोई नहीं ले जा सकता है।
बिना सुसंस्कार मानव जीवन निसार्थक है सुसंस्कार के जरिए ही जीवन की सही आधारशिला रखी जा सकती है। सुसंस्कार रूपी शस्त्र के माध्यम से हम दुश्मन को भी दोस्त बना सकते हैं।
जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की संभावना लेकर आता है। हर घडी एक महान मोड़ का समय हो सकता है। मनुष्य यह निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता कि किस समय, किस क्षण और किस पल उसके भाग्योदय का समय हो जाय। अतः सदा प्रयासरत रहे कहीं ऐसा न हो कि किसी व्यक्ति का दूषित चरित्र आपके इस सौभाग्य की राह में रोड़ा उत्पन्न कर दें।
यदि हम चाहते हैं कि हमें समाज में अच्छा व्यक्ति बनकर जीना है तो उसकी कोई उम्र नहीं, बस हमें अपने मन में यह दृढ़ निश्चय करना जरूरी है कि हमें बदलना है। बस यह दृढ़ निश्चय और अच्छी सोच ही हमें अच्छे रास्ते पर लायेगी और हमारा साथ स्वतः ही सच्चे और ईमानदार लोगों से होगा। हमें वो नहीं बनना जिसने समाज की बुराइयों को सीखा हो, बल्कि हमें तो वो बनना है जिसने समाज की बुराइयों से चिढ़कर अच्छा बनने की प्रेरणा ली हो।
अंत में परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हमें विलक्षण प्रतिभा, सुसंस्कृत व्यक्तित्व, परम मर्यादित व देवतुल्य मनीषियों सा बनने की प्ररेक शक्ति प्रदान करें।

******************