Aadhar - 9 in Hindi Motivational Stories by Krishna Kant Srivastava books and stories PDF | आधार - 9 - अहिंसा, महानता का प्रथम चरण है।

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आधार - 9 - अहिंसा, महानता का प्रथम चरण है।

अहिंसा,
महानता का प्रथम चरण है।
अहिंसा का हमारे व्यक्तित्व निर्माण में सबसे प्रमुख स्थान है। सामान्यतः अहिंसा का अर्थ किसी निरपराध प्राणी को सताने अथवा शारीरिक कष्ट न पहुंचाने तक ही सीमित रखा जाता है। वास्तव में, यह अहिंसा का शाब्दिक अर्थ मात्र है। यदि बृहद दृष्टिकोण से विचार करें तो, किसी व्यक्ति के लिए कुविचार व्यक्त करना, मिथ्या भाषण करना, आपस में द्वेष करना, किसी का बुरा चाहना, प्रकृति में उपस्थित सर्व सुलभ वस्तुओं पर अनाधिकृत रूप से अतिक्रमण करना तथा उन पर स्वार्थवश कब्जा कर लेना भी हिंसा की श्रेणी में ही आता है। जो व्यक्ति इन हिंसक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करना सीख लेता है, वह अहिंसा के रास्ते अपने व्यक्तित्व निर्माण की राह में अग्रसर हो जाता है। ऐसे व्यक्ति अहिंसा के माध्यम से अपने व्यक्तित्व में आधारभूत परिवर्तन उत्पन्न कर लेते हैं।
जब अहिंसा की बात करते हैं तो सर्वप्रथम गौतम बुद्ध का नाम हमारे मानस पटल पर उभरकर आता है। गौतम बुद्ध भारतवर्ष में अहिंसा के पर्याय माने जाते हैं। यह गौतम बुद्ध के ज्ञान का प्रकाश ही था जिसके प्रभाव में पितृहंता अजातशत्रु ने शस्‍त्र त्‍याग कर अहिंसा का मार्ग अपनाया। अक्सर देखा गया है कि धर्म प्रवर्तक, उपदेश तो बहुत देते हैं, लेकिन वे स्वयं उन उपदेशों का अनुसरण नहीं करते। यह बात गौतम बुद्ध, महावीर व गांधी पर लागू नहीं होती। इन तीनों ही युग पुरुषों ने अहिंसा के महत्व को बखूबी समझा, उसकी राह पर चले और अपने अनुभवों के आधार पर दूसरों को भी इस राह पर चलने को प्रेरित किया। अहिंसा की पहचान उनके लिए सत्य के साक्षात्कार के समान थी। अपने युग में होने वाली हिंसा से महावीर के मन को गहरी चोट पहुंची, इसलिए उन्होंने अहिंसा का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसके प्रचार के लिए उन्होंने समर्पित व्यक्तियों का संघ तैयार किया, जिन्होंने मनुष्य जीवन में अहिंसा के महत्व को बताया। महात्‍मा बुद्ध की शिक्षा का असर सम्राट अशोक पर भी था, जिसके कारण सम्राट अशोक ने पूरे एशिया में बुद्ध के ज्ञान का प्रसार किया।
अहिंसा जगत को रास्ता दिखाने वाला दीपक है। यह सभी प्राणियों के लिए मंगलमय है। अहिंसा अमृत है। महावीर व गौतम बुद्ध के अहिंसा के सिद्धांतों को गांधी ने आगे बढ़ाया। गांधी ने कहा कि सिर्फ कर्म से ही नहीं, मन और वचन से भी हिंसा करने की कोशिश नहीं करना चाहिए। उन्होंने ऐसी हिंसा को रोकने के लिए ही अनेक बार सत्याग्रह व अनशन किए। विश्व बंधु राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंसा को शस्त्र बनाकर भारतवर्ष को विदेशियों के शासन से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभाई। अहिंसा का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्वयं महात्मा गांधी ने इसे, अवांछनीय तत्वों से, कड़ाई से सामना करने का अस्त्र बतलाया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का अस्त्र है। जो इसे कायरता मानते हैं, वे अहिंसा का वास्तविक अर्थ नहीं समझते।
अहिंसा व्यक्ति का आभूषण है। भारत का दर्शनशास्त्र तो कहता है कि ‘अहिंसा परमो धर्मा:’ अर्थात धर्म का सबसे बड़ा स्वरूप अहिंसा है। यदि हम धर्म को सच्चे अर्थों में अपनाना चाहते हैं, तो अहिंसा को अपनी विचारधारा में अवश्य शामिल करना होगा। अधिकांश स्वार्थी लोग हिंसा व अहिंसा का अर्थ अपनी सुविधानुसार बदलकर अपने मन को संतोष देने अथवा दूसरों को बहकावे में लेकर उनका अनर्थ करने का प्रयास करते हैं। ऐसी व्यक्तियों की दुर्भावना को पहचान कर उनसे सतर्क रहने की आवश्यकता है। अहिंसा वह शक्ति है जो ना केवल स्वयं को बल्कि अपने आसपास के पूरे समाज को, विपरीत परिस्थितियों का सामना करने की सामर्थ उत्पन्न कर देती है।
अहिंसा विज्ञान के क्रिया प्रतिक्रिया के नियम का अक्षरशः पालन करती है। अर्थात किसी प्राणी को मत मारो। किसी का छेदन न करो। किसी को कष्ट न पहुंचाओ। क्योंकि मारोगे तो मरना पड़ेगा। छेदोगे तो छिदना पड़ेगा, भेदोगे तो भिदना पड़ेगा। दुख पहुंचाओगे तो दुख सहना पड़ेगा। यह सृष्टि का एक अटल नियम है। आपके द्वारा वायुमंडल में नकारात्मक ऊर्जा की चुंबकीय तरंगों के उत्सर्जन से आकर्षित होकर नकारात्मकता से ओतप्रोत मनुष्य आपके चारों ओर एकत्रित हो जाएंगे जो आपको अपने जैसी नकारात्मक विचारधाराओं को धारण करने के लिए मजबूर करने का प्रयत्न करेंगे। यदि आपने उनके प्रभाव को स्वीकार कर लिया तो निश्चित मानिए कि आप अहिंसा से दूर होकर हिंसक प्रवृत्ति को अपना लेंगे और अपने व्यक्तित्व का नाश कर बैठेंगे।
हमारे वेदों में भी मनुष्य को अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति करके सदा सुखी रहने के अनेकों उपाय बताएं गए हैं, जिनमें अहिंसा सर्वोपरि है। मानवता के उत्थान व विस्तार का माध्यम अहिंसा है। अहिंसा विश्वशांति उत्पन्न करेगी। हिंसा के त्याग में सुख है। यही कारण है कि जैन धर्म में अहिंसा को ही धर्म व सदाचार की कसौटी माना गया है। अहिंसा, जैन संस्कृति की प्राण शक्ति है, जीवन का मूलमंत्र है, अहिंसा परमधर्म है व अहिंसा वीरता की सच्ची निशानी है।
मनुष्य में इतनी बुराइयां पाई जाती हैं कि उनकी गिनती करना भी आसान नहीं है परंतु हिंसा इनमें सबसे बड़ी बुराई है। जो मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व का नाश कर देने में सक्षम होती है। संसार के सभी प्राणी मुक्त जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, परंतु हिंसा ऐसा करने में व्यवधान उत्पन्न करती है। हिंसा के साथ मनुष्य ना तो स्वयं स्वच्छंद जीवन जी पाता है और ना ही दूसरों को शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने देता है। अहिंसा माता के समान सभी प्राणियों का संरक्षण करने वाली, पाप नाशक व जीवन दायिनी शक्ति है। अहिंसा को जीवन में धारण कर ही सुख समृद्धि और वैभव पूर्ण जिंदगी का भोग किया जा सकता है।
अहिंसा ही एकमात्र कर्म है जो हमें पशुओं से भिन्न करती है। हमारा व्यक्तित्व अहिंसा पर आधारित होना चाहिए जिससे समाज में हमारे संबंध परस्पर सामंजस्य व सद्भावपूर्ण बन सकें। नि:शस्त्र अहिंसा की शक्ति किसी भी परिस्थिति में सशस्त्र हिंसा की शक्ति से श्रेष्ठ होती है। अहिंसा की साधना से हमारे हृदय का बैर भाव निकल जाता है। बैर भाव के जाने से क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या जैसी वृत्तियों से छुटकारा मिल जाता है। ऐसी वृत्तियों के निषेध से शरीर निरोगी बनता है। मन में शांति और आनंद का अनुभव होता है। सभी को मित्रवत समझने की दृष्टि बढ़ती है। सही और गलत में भेद करने की ताकत आती है। हिंसा का विचार न लाने से चित्त में स्थिरता आती है और सकारात्मक उर्जा का जन्म होता है। सकारात्मक उर्जा से आपके आस-पास का महौल भी खुशनुमा होने लगता है। यह खुशनुमा माहौल जीवन में किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने देता। यही आपकी सफलता का आधार है। इसी से आपके रिश्ते-नाते कायम होते हैं। अहिंसा को स्वीकार करने से स्वयं की देह, मन और बुद्धि के सारे क्रिया-कलापों से उपजे दुखों से स्वतंत्रता मिलती है।
अंत में परम पिता परमेश्वर से यही निवेदन है कि वह हमारे भीतर इतनी बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, नीतिपरायणता, निष्कपटता, स्पष्टोक्ति और साधुता बढ़ा दे कि तीर-तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़ें, और हम अहिंसा के साधक के रूप में समाज में प्रतिष्ठित हो जाए।

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