एपीसोड – 11
बाद में महारानी छोटा उदेपुर से भी एक दिलचस्प कहानी सुनने को मिली थी, " महाराजा उदेपुर पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे व मुम्बई में व्यवसाय किया करते थे। मैं अकेले महल में रहकर नौकरों के षणयंत्र झेलती थीं। हमारे महल से कीमती पीतल का फूलदान या चौकी या चांदी के डिनर सेट की कटोरियाँ या कोई प्राचीन मूर्ति गायब होती रहती थी। ओहदेदारों को डांटती तो वे धमकी देते कि वे हमारे बच्चों को मार डालेंगे। "महारानी जी की आँखें सजल हो आईं थीं, "मैं राजमहल में अकेली होती थी इसलिए उनकी धमकी से बहुत डर जाती। मैं सारी सारी रात सोते हुए बच्चों के सिर पर हाथ रखकर बैठी रहती थी। "
कभी कोई उन्हें फ़ोन करके डरा देता कि महाराजा का मुम्बई में क़त्ल हो गया है, ट्रेन से उनका शव आ रहा है। वह बदहवास कार चलाती स्टेशन पहुंचतीं लेकिन ट्रेन रुकती और वे एक एक डिब्बा झांकती जाती। न उनमें शव होता, ना कोई राज्य का हरकारा। उन्हें राहत तो पहुँचती लेकिन वह क्रोधित होती महल लौट आतीं। इसीलिये वे स्वतंत्रता के बाद बेहद खुश थीं। उसके सर्वे से तो और भी खुश कि लोगों का भ्रम टूटे कि रानियां मज़े में एशोआराम में राज्य करती थीं।
जब उन दिनों रानियों पर ये सर्वे प्रकाशित हुआ तो उसने सोचा कि ये रानी विभावरी पास में रहतीं हैं तो क्यों न ये पत्रिका उन्हें दे ही आये।
उन्होंने बड़ी व्यग्रता से वह पत्रिका खोली लेकिन अपनी बताई कहानी प्रकाशित ना देखकर वो कुछ कड़वाहट से भर गईं, "आपने तो मेरी बैकग्राउंड के बारे में कुछ नहीं लिखा ?"
"जी ये सर्वे किसी के जीवन की बैकग्राउंड पर नहीं था सिर्फ़ एक रिसर्च थी रानियों के बदले जीवन पर। "बस उन्होंने उस आग उगलती आँखों से घूरते हुए पानी के लिए भी नहीं पूछा था। वह मन ही मन हँसते हुये चल दी थी। उनकी इस कहानी को इस सर्वे में लिखने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। उसके इस मेहनत से किये सर्वे ने अपना व औरों का भ्रम तोड़ा था . इनमें से किसी भी रानी को सोने के तार वाली पोशाकों, सोना, चांदी व हीरे, मोती में कोई दिलचस्पी नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद शासन की बंदिशें टूटते ही दुनियां में ये अपने हिसाब से अपना जीवन भरपूर जी सकीं थीं, खुलकर मुस्करा सकीं थीं।
हाँ, इस शहर के अपने दोमज़िले बंगले में छोटे उदेपुर की महारानी ने बहुत स्नेह से पत्रिका ली थी, " आपने बताया था कि आपकी इच्छा है कि छोटा उदेपुर आकर आदिवासियों का मेला देखें। हमारी तरफ़ से आमंत्रण है कि जब भी आपको नवरात्रि पर या होली पर समय मिले आप हमारे महल में पधारें। "
"अभी कुछ वर्ष निकलना सम्भव नहीं है, जैसे ही समय मिला, हम लोग अवश्य आएंगे। "
उसे इस उदेपुर राज्य के आदिवासी मेले को देखने का बहुत शौक था। वे आस पास के गाँवों से चलकर होली पर व नवरात्रि में रात भर राजघराने के देवी माँ के मंदिर के सामने नगाड़े की ताल पर एक बांस लिए या वैसे ही नृत्य करते रहते हैं। और हाँ, यदि रास्ते के गाँव में कोई उनका दुश्मन रहता है तो दुश्मनी निबटाने के लिए उसका क़त्ल करके आगे बढ़ जातें हैं। ये बर्बर प्रथा समय के साथ कम तो हुई है। ज़िंदगी भागती गई थी। तो तीन चार वर्ष बाद उसका परिवार महारानी उदेपुर का मेहमान बना था।सप्तमी के दिन एक गेस्ट हाउस में पहुँच गए थे.
छोटा उदेपुर के गैस्ट हाऊस में जैसे जैसे रात गहराने लगी कुछ अंतराल से बार बार बांसुरी की धुन सुनाई देने लगी मतलब मेले के लिए गांव वालों का आना शुरू हो गया था। सब उत्सुकता से खिड़की के पास कुर्सियाँ डालकर बैठ गए। इस छोटे से कस्बे के अधकच्ची सड़क पर बिजली के खम्बों पर पीले बल्ब टिमटिमा रहे थे। उस मरियल सी रोशनी में दिखाई देने लगता सुदूर गाँव से बांसुरी बजाता आता कोई आदिवासी दल. अलग अलग गाँव के आदिवासी आठ दस लोगों के झुण्ड में एक हाथ लम्बी बांसुरी बजाते राजघराने के देवी के मंदिर की तरफ़ बढ़े जा रहे थे। सांवली स्त्रियां घुटनों तक सस्ती धोती पहने हुईं थीं, जिनके जिनके चमकते तेल लगे बालों में लाल या गुलाबी रिबन बंधे हुए थे।सांवले आदमी धोती या पैंट के ऊपर रंगीन कमीज़ पहने हुए थे। किसी किसी ने पगड़ी भी बाँधी हुई थी।
उसने सुन रक्खा था कि इस लम्बी बांसुरी में वे देसी दारू भरकर लाते हैं। कभी बांसुरी बजाते हैं, थोड़ी देर बाद दारु पीते चलते हैं। इसी के नशे में स्त्री पुरुष सारी रात नगाड़े की ताल पर नाचते रहते हैं। ये लम्बी बांसुरी दूर दराज़ से आये ग्रामीणों के लिए मीलों चलने के लिए लाठी की तरह भी काम देती है। हल्के धुंधलके में आदिवासियों के आने के दृश्य को वह आँखों में भरे ले रही थी, ये दृश्य जीवन में दोबारा देखना नसीब नहीं होगा।
उन्होंने मंदिर के सामने ये नृत्य देखा था लेकिन सिर्फ़ नगाड़े की एक सी ताल, एक ही नृत्य शैली में वे गोलाकार घूमते नृत्य कर रहे थे. छोटे बेटे ने एक लड़के से बांसुरी बजाने के लिए माँगी तो वह उसे जलती आँखों से घूरता भीड़ में गायब हो गया।
दूसरे दिन गेस्ट हाउस में देर से जागकर अलसाये से रिसेप्शन के पास कुर्सियों पर बैठे वे लोग चाय पी रहे थे। बरामदे में एक नाटी काली आदिवासी लड़की झाड़ू लगाते हुए अपनी भाषा में एक मधुर गीत गा रही थी। वह रिसेप्शन पर बैठे लड़के से पूछ ही बैठी थी कि इस गीत का क्या अर्थ है ?उस लड़के ने झिझकते हुए बताया था, " यहां दस बारह साल की उम्र में ही लडके लड़कियों की दोस्तियां हो जातीं हैं। लड़कियों के मित्रों को अपने `गोठिया ` कहा जाता है। ये लड़की गा रही है कि मै सूरज की किरणों के सामने आइना लेकर खड़ी हो जाउंगी। उसकी चमक तुम्हारे गाँव तक पहुंचेगी और तुम प्रियतम उसकी किरणें पकड़ कर मेरे पास, मेरे गाँव आ जाना। "
" वाह ! क्या सुन्दर कल्पना है ?"
नवरात्रि की अष्ठमी की पूजा के लिए महल में कुछ राजपरिवार के संबंधी आये हुए थे। उसका परिवार भी लंच के लिए आमंत्रित था. जब उसका परिवार महल में पहुंचा तब तक अष्ठमी का हवन हो चुका था, बड़े दालान में बनाये हवन कुंड में हल्की अग्नि जल रही थी। राजपुरोहित व उनके सहायक अपनी दक्षिणा, मिठाई का डिब्बा व फल समेटने में लगे हुए थे। उसके परिवार ने चौकी पर प्रतिष्ठित देवी के सामने सिर झुकाया था व आरती की थाली में रूपये चढ़ा दिए थे। एक सेवक ने उन्हें सीधे ही डाइनिंग हॉल में चलने का आग्रह किया। डाइनिंग हॉल में पचास लोगों की खाने की मेज़ पर पंद्रह सोलह मेहमान बैठ चुके थे। महारानी कुर्सी पर बैठी अपने राजसी भारी भरकम गहनों में व बनारसी सिल्क साड़ी में शानदार लग रही थीं। उन्हें देखते ही उन्होंने कहा, "वेलकम टु ऑल। प्लीज़ हैव अ सीट। "
महाराजा छोटा उदेपुर ने भी उनका सिर हिलाकर अभिवादन किया। महाराज भी घर की पूजा के कारण पारम्परिक राजसी पोषक में थे। सिर पर कलंगी वाली पगड़ी थी व कमर में कटार। मेज़ पर डोंगों का अम्बार लगा हुआ था .
वह छोटा उदेपुर के राजमहल के डाइनिंग हॉल का जायज़ा लेने लगी। चारों दीवारों पर मृत शेर के, जंगली भैंसे के या चीते के सिर भूसे भरे संरक्षित किये टाँगे हुए थे। उसने सोचा ज़माना कितना बदल गया है -पहले दीवारों पर जानवरों के कटे सिर लगाना शान समझी जाती थी .आज की दुनियाँ इन्हीं के संरक्षण में लगी हुई है। यहाँ तक कि बहुत से विदशी चमड़े से बने पर्स, कोट, बैल्ट, जूते पहनना छोड़ते जा रहे हैं, और तो और मीट मटन छोड़कर शाकाहारी बने जा रहे हैं।
नीलम कुलश्रेष्ठ