The warriors of that palace - 3 in Hindi Fiction Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | उस महल की सरगोशियाँ - 3

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उस महल की सरगोशियाँ - 3

एपीसोड - 3

उन महाराज ने अपने सपनों का नगर कुछ इस तरह बसाया कि आज तक उनकी रोपीं अच्छाइयां इस शहर में झलकतीं हैं। कभी ये राज्य ७००० गरीब हिन्दुओं को, ३००० मुसलमानों को प्रतिदिन भोजन करवाता था। वही परंपरा इन्होंने आरम्भ करवाई। शहर के बग़ीचे में सुबह उसके केंद्र में बने बेंड स्टैंड पर शहनाई वादन के साथ होती थी जिससे सारा अलसाया शहर जागे तो उसे मधुर संगीत से सारे दिन काम करने की ऊर्जा मिले। उन्होंने एक खूबसूरत पैलेसनुमा इमारत `कलाभवन `बनवाई जिसमें संगीत की, नाटक व सांस्कृतिक महफ़िलें सजतीं रहें। जिस अब इंजीनियरिंग कॉलेज में बदल दिया गया है।

महाराजा सयाजीराव जी ने किसानों का बहुत ध्यान रक्खा था। किसानों को उनकी आय के हिसाब से कर देना होता था। कुछ मंत्री नन्हे राजा पर हावी होने की कोशिश करते लेकिन उन्हें पता नहीं था कि एक अँग्रेज़ शिक्षक ने इन्हें बुद्धि के चरम प्रयोग व घड़ी की सुइयों के अनुशासन से बांध दिया है. कुछ वर्षों में उनकी सारी चलाकियाँ रक्खी की रक्खी रह गईं जब देखते दूर दूर के राजा अपने राजकुमारों को इनसे प्रशासन सीखने भेजने लगे थे ।

***

उसने सोचा न था कि वह हिंदी कलम हाथ में थामे इस शहर को पहचानने निकलेगी तो कुछ बरस बाद ही एक दिन राजमहल में जा पहुंचेगी, जिसे कभी हसरत से पैलेस रोड पर आते जाते अपनी आँखों को दूरबीन बनाती देखती रही है -- उसने कब सोचा था कभी किताबों की फ़ोटो वाले राजा रानी देखेगी। एक दिन शहर के बीच के विशालकाय महल के विशाल नक्काशीदार दीवारों व मेहराबों वाले दरबार हॉल में सुसंस्कृत श्रोताओं के साथ कालीन पर बैठकर, बड़े झिलमिलाते पीच व सफ़ेद रंग के शेंडलेयर्स के नीचे वह सामने मंच पर अपने साज़िन्दों के साथ बैठी गिरिजा देवी की गाई ठुमरी के आरोह अवरोह में डूब उतर रही होगी . भारतनाट्यम नृत्य की एक नृत्यांगना प्रवीणा दी की मेहमान बनकर वह उस कार्यक्रम में गई थी। मध्यांतर में अधिकतर लोग चाय की स्टॉल की तरफ़ चले गए थे। वह आतुरता से अपने पति के साथ दोनों नन्हे बेटों की उंगली थामे प्रवीणा दी को भीड़ में ढूंढ़ रही थी। प्रवीणा दी ने ही पीछे से उसके कंधे पर थपकी दी थी, "किसे खोज रही हो ? "

"आपको ही खोज रही थी। "

" महारानी से मिलना है ?"

" ज़रूर. "वह महल के विशाल दालान में लोगों से घिरी महारानी की तरफ़ ले गईं थीं व परिचय करवाया था।

वह उन्हें ठगी सी देखती रह गई थी कि सोने के तार से बनी रानी कैसी होती हैं । वह शिफॉन की साड़ी में सिर ढके बोलती सी आँखों की बेहद ख़ूबसूरत महिला थीं। उनकी शादी को कुछ बरस ही गुज़रे थे इसलिए मखमली गोरे रंग के नाज़ुक शरीर पर वह साड़ी सच ही ऐसी लग रही थी कि सोने के ख़ूबसूरत लचीले तार को हौले से उसमें लपेट दिया हो। उसकी नमस्ते के उत्तर में उन्होंने बड़ी नज़ाक़त से बजती हुई घंटियों के स्वर में कहा था, "नमस्ते। कहिये गिरिजा देवी की गाई ठुमरी कैसी लगी ?"

"ऐसा लग रहा था जैसे कोई संगीत लहरी आत्मा में उतर रही हो। "

प्रवीणा जी बोल उठीं थीं, "शास्त्रीय संगीत के ये गुरु हमारी आत्मा को अपनी संगीत शक्ति से छू लेते हैं। "

बड़ी उत्सुकता थी कि राजा साहब कैसे होंगे क्योंकि श्रोताओं में पीछे बैठे हुए सिर्फ़ उनके घुंघराले काले बाल, उनकी पीठ व गहरे हरे के रंग का सिल्क का कुर्ता ही देख पाई थी। प्रवीणा दी फिर उन सबको ग्रीन रूम में उनसे मिलवाने ले गई थीं, " चलिए, आपको महाराजा से मिलवाऊँ। "

गिरिजा देवी एक कुर्सी पर बैठी पानी पी रही थीं व वह एक दीवान के मसनद पर अधलेटे बैठे थे। दी ने जैसे ही मिलवाया, उन्होंने राजसी अदा से कुछ इस तरह सिर हिलाया था जैसे हम उनके दरबार में कोर्निश करने गए थे। वह कुछ मायूस सी ग्रीन रूम से निकल आई थी। तब वह सोच नहीं पाई थी कि उसे बार बार किसी न किसी इस शहर के आस पास के राजा या रानी से टकराना पड़ेगा. उसने कहाँ सोचा था किसी की तीखी नाक पर बैठे दर्प का, क्रोध का, हाथ की आकाश की तरफ़ उठी पन्ना जड़ी मोटी अंगूठी पहने हष्ट पुष्ट उंगली का राजसी क्रोध के वारों का बरसों तक शिकार समझे जाने के कारण तड़पते हुये बार बार प्रतिउत्तर देना होगा , किसी औरत को हासिल करने की ज़िद का "हम -----हार नहीं मानते। ".

जब कार्यक्रम समाप्त हुआ तो लोग उठकर जाने लगे। क्रीम कलर के सिल्क कुर्ते व सफ़ेद चूड़ीदार में माथे पर बाल बिखराये उसके नन्हे राजकुमार कालीन पर लेटे सो चुके थे। पति पत्नी नेउन्हें जगाया तो बड़े ने जागकर आँखें मलीं, इधर उधर देखा और फिर कालीन पर लेटकर पेट पर हाथ रक्खे सो गया। छोटा भी उठकर कुनमुनाया और मसनद को ममा का पेट समझ उस पर सिर टिकाकर हाथ रखकर फिर सो गया । हॉल से निकलती भीड़ मुस्कराकर इस तमाशे को देख रही थी। वह बुरी तरह झेंपी जा रही थी ।

इस शहर का ही प्रभाव था कि बरसों बाद उसे यहां बस गईं रानियों के जीवन का सर्वे करने की सूझी थी। एक तो शहर का प्रभाव उस पर उसके बचपन में दूर के मामा बताया करते थे, "तुम्हारी नानी के पिता जी थे तो जेलर लेकिन फ़्रीडम से पहले कोटा के प्रिंस को पढ़ाने जाते थे। सारा राज्य परिवार उनकी इज़्ज़त करता था। जब वो मरे थे तो राजा स्वयं उन्हें शमशान तक पहुंचाने आये थे। "

उसकी नन्ही आँखें फ़ैल जातीं थीं किसी आम जन की बेटी जैसी, "हाय राम !कोटा के राजा स्वयं आये थे ?"

"हाँ, सच्ची कह रहा हूँ। "उसे क्या पता था कि बड़े होकर शान ओ शौकत से रहती रानियों के विषय में उसके भ्रम टूटेंगे।

दूसरे शायद पादरा कॉलेज की प्रिंसीपल सरोज सिन्हा जी ने उससे शिकायत की थी, "बड़ौदा इतना एक्टिव सिटी है.इंटरनेशनल लेवल पर यहाँ काम हो रहा है फिर भी हिन्दी मैगज़ीन में इसका कहीं कोई ज़िक़्र नहीं दिखाई देता। "

उसे यहां आये दो तीन वर्ष ही हुये थे, उसने बहुत ठसक से अपनी गर्दन में अकड़ भरकर कहा था, "अब मैं यहाँ आ गईं हूँ। मैं लिखूँगी इस शहर के बारे में। "तब उसे भी नहीं पता था कि उसे कोई बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ेगी ये शहर ही कुछ न कुछ अपना पहलू दिखाकर उससे लिखवाता जायेगा।

आरम्भ उसने सोने की तार वाली महारानी के इंटर्व्यू से किया था . मुख्य पैलेस के सामने बने छोटे महल में राजपरिवार के ऑफ़िस में उनके इंटर्व्यू लेने के लिये एक प्रार्थना पत्र देना ज़रूरी थी। उनके पी ए के नियत किये समय पर वह उनके ऑफ़िस में गई थी। उसका दिल धड़क रहा था, वह पहली बार किसी महारानी से अकेले में मिलने जा रही थी

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नीलम कुलश्रेष्ठ

kneeli@rediffmail.com