एपीसोड - 1
उस छोटी क्यूट सी सफ़ेद फ़िएट कार का दरवाज़ा खोलते हुये मीना देवी की बगल में बैठते हुये उसे रोमांच हो आया था। ये किसी राजपूती रजवाड़े की भूतपूर्व राजकुमारी एक लोकल चैनल की पी आर ओ थी। देल्ही दूरदर्शन कम था जो शहर में ये दूसरा चैनल खुल गया था। उसने बहुत उत्सुकता से पूछा था, ", "आप टी वी चैनल में एज़ अ पी आर ओ क्या काम करतीं हैं ?"
"मुर्गे फँसाने का। "कहकर वह खिलखिला पड़ी थी।
वह हैरान थी, "मुर्गे फँसाने का ? ये क्या बात हुई ?"
"मेरा मतलब है कि मैं लोगों से विशेषकर बिज़नेसमैन, कलाकारों से संपर्क करतीं हूँ। उनके सामने चैनल के प्रभाव का ऐसा ख़ाका खींचतीं हूँ कि बिज़नेसमैन हमें अपने विज्ञापन बनाने के लिए पैसा दे देतें हैं। कलाकारों को अपना प्रचार चाहिये। जेनुइन कलाकार तो नहीं लेकिन कुछ उभरते कलाकार चैनल पर अपने इंटर्व्यू के लिए पैसा दे देतें हैं। उन्हें इंटर्व्यू लेने वाला व्यक्ति विश्वास दिला देता है कि आप कोई महान प्रतिभा हैं। एक दिन पूरी दुनियां में आपकी कला की धूम मच जाएगी। कुछ स्कूल्स अपने प्रचार के लिये अपने बच्चों के कार्यक्रम रखवाते हैं। उनसे पैसा मिलता है। एक प्राइवेट होटल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट चैनल पर अपने व्यंजनों के बनाने के कार्यक्रम करता है। फिर उन कार्यक्रम की सी डी भी ख़रीद लेता है अपने छात्रों के लिये। "
""वाह !क्या बिज़नेस है। आप लोग राजपूत हैं तो आप लोग कैसे यहां आ बसे ?"
"चार सौ, पाँच सौ वर्ष पहले राजस्थान के कुछ राज्य व रजवाड़े अकबर के विस्तारवाद से घबराकर राजस्थान से आकर गुजरात में बस गये थे। बस तब से हम गुजरात के होकर रह गये हैं। "
"आप लोगों का खाना पीना भी बदल गया होगा?"
" हाँ, बदला तो है लेकिन राजस्थानी व गुजराती संस्कृति का मिला जुला रूप है। यू नो मैडम ! मैं भी जर्नलिस्ट बनना चाहती थी. आपने बाटली वाला कोचिंग क्लास का नाम सुना है ?"
"नहीं। "
"यहाँ के सर साठ हज़ार रुपये में मुझे इज़रायल के अख़बार में ट्रेनिंग के लिए भेजने वाले थे ."
उसका माथा फोड़ लेने को मन करता है. हथियारों से लड़ने वाले .हथियार बेचने वाले इज़रायल का माना कला या शिक्षा में ऊँचा नाम है. वहाँ ऎसा कौन सा तीस मार खां अख़बार है जो यहाँ नहीं होगा उसने ऊपर से कहा था, "यहाँ भी तो यूनिवर्सिटी में जर्नलिज़्म डिपार्टमेंट है."
"वो ये बात है मैडम ! फ़ॉरेन तो फ़ॉरेन ही होता है न."
अब फ़ॉरेन की पट्टी दिमाग़ पर बाँधे इस लड़की से क्या कहे वो ?
--------- कैसे होते होंगे कहानी की किताबों वाले राजा रानी ? उनके राज्य, रजवाड़े ?बड़े बड़े महलों में बड़े बड़े लैम्पों की रोशनी में जगमगाते, उनकी सुनहरी पगड़ी के सच्चे मोतियों के फुंदने में लगे हवा में झूमते हीरे पन्ने। दरबार हॉल के झरोखे में बैठीं रानियों के सोने चांदी के तार से कड़े लहंगे, चूनर, उनके गले में जगमगाते नौलखा हार ? एक बड़ा पंखा झलती दासी ? हॉल के बीच में नाचती सुंदर नर्तकी। महल में एक कमरा तो ऐसा होगा ही जो खजाने से भरा हो। वाह ! क्या रौबदार होंगे वे --शहर के जिस रास्ते से गुज़रें लोगों के सिर सम्मान से झुक जाते होंगे। --उस सारे राजसी ठाठ की कल्पना करना भी मुश्किल है।
बड़ौदा की पैलेस रोड से गुज़रो तो राजमहल की दीवार सड़क के समानांतर चलती जाती है दूर तक --- दीवार के अंदर का परिसर में ढेरों पेड़ है और जैसे शहर में जगह जगह बढ़ के वृक्ष हैं, वैसे ही अंदर बहुत से बढ़ के वृक्ष हैं --तभी इसका एक और नाम आदिकाल से चला आ रहा है -वड़ोदरा यानि बढ़ के वृक्षों का नगर. बढ़ के वृक्षों की जटायें नीचे झूलती खूबसूसरत लगतीं हैं या ये पेड़ सन्देश देता है कि हमेशा सृजन करते चलो लेकिन हमेशा `डाऊन तो अर्थ रहो। `------लम्बी दीवार के समानान्तर सड़क पर जाते हुए बीच में आता है आलीशान पैलेस का आलीशान दरवाज़ा राजसी शान-ओ -शौकत लिये। वह इस शहर में पैलेस रोड से गुज़रती है लगता है -- वे राजा रानी वाली किताब के पृष्ठ आस पास फड़फड़ा रहे हैं।
जब वह यहाँ नई आई थी तो इस सड़क से निकलते ही कितना रोमांच महसूस होता था हाय राम --जिन राजा महाराजाओं के बारे में किताबों में पढ़ा है --वे किताबों से निकलकर इस आलीशान राजमहल के गेट के पीछे दिखाई देते आलीशान लक्ष्मी विलास पैलेस में रहते हैं ?--कैसे होते होंगे वे सब ? यों तो वह कौन से कमतर शहर की थी ? उसके शहर में भी तो मुग़लकालीन ऐतहासिक इमारतें बिखरी हुईं थीं लेकिन वे तो पर्यटन स्थल बन गईं थीं। सचमुच के चलते फिरते राजा कैसे होते होंगे ? सयाजीबाग़, सयाजी अस्पताल यहाँ तक कि महाराजा सयाजीराव विश्वविद्द्यालय ---कैसे होंगे महाराजा सयाजीराव जिनकी सूझ बूझ के कारण----ये छोटा सा शहर कलाकारों का मक्का बन गया है ---संस्कार नगरी बन गया है। वे अपनी पहली पत्नी से इतना प्यार करते थे कि इस महल का नाम उन्होंने उनके ही नाम पर लक्ष्मी विलास पैलेस ही रख दिया था.
बड़ौदा में एक ख़ूब चहल पहल वाला बाज़ार है जिसका नाम है -`टॉवर `. मांडवी से टॉवर की तरफ़ जाओ तो बांयी तरफ़ एक बड़े ऊँचे टॉवर पर घड़ी लगी है। बहुत रोचक किस्सा है इस घड़ी का। इस शहर के महाराजा सयाजीराव तृतीय अक्सर शहर में एक आमजन की तरह घूमा करते थे। उन्होंने देखा कि एक गरीब आदमी पास से जा रहे दूसरे व्यक्ति से समय पूछ रहा है। महाराजा को ये बात चुभ गई। राजमहल जाते ही उन्होंने ये योजना बनाई कि बाज़ार में बाज़ार में एक ऊँचा टॉवर बनवाया जाये जिस पर एक बड़ी घड़ी लगी होनी चहिये जिससे किसी को किसी से समय पूछकर अपनी गरीबी पर शर्मिन्दा न होना पड़े। ----हाय राम !ऐसे थे वो महाराजा। अक्सर वह टॉवर से गुज़रती तो उस घड़ी की तरफ़ नज़र उठ ही जाती थी या उसे इस शहर के ऐसे संवेदनशील महाराजा याद आ ही जाते थे, जिसमें वह आ बसी थी।
टॉवर व दांडिया बाज़ार के बीच के रास्ते पर ही है- गुजरात पुस्तकालय मंडल सहायक सहकारी मंडल।उसे इस सड़क से गुज़रते हुये कैसा रोमाँच हो आता है। इस मंडल की इमारत से निकलता होगा पुस्तकों से भरी बैलगाड़ियों का काफ़िला ------ जिनके बैलों की घंटियां रुन झुन झूमती ज्ञान का सन्देश देने चल पड़ती होंगी ---सुदूर तीन हज़ार गाँवों की डेढ़ हज़ार लाइब्रेरीज़ में .आजकल जो वैन में, बस में मोबाइल लाइब्रेरीज़ की अवधारणा है उसी का आदिम रूप !महाराजा का अपनी जनता को शिक्षित कराने का अद्भुत प्रयास। उसने इतिहास की खोजबीन की तो पता लगा जब महाराजा ने स्कूल के प्रधानाचार्य मोतीलाल अमीन को इन्हें सम्भालने को बोला तो उन्होंने सन १९२४ में पुस्तकालय सहायक सहकारी मंडल की स्थापना कर दी। उन्होंने भी कहाँ सोचा था कि विश्व का ये सबसे बड़ा लाइब्रेरीज़ का नेटवर्क सहकारी मंडल बनेगा। इसकी इमारत व इसमें शामिल गाँवों व शहरों की सँख्या बढ़ती ही जायेगी। ये गुजराती साहित्य की गतिविधियों का बड़ा केंद्र बन जायेगा।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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