Baingan - 39 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बैंगन - 39

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बैंगन - 39

इस समय मैं सब भूला हुआ था। सुबह उठते ही मैंने न ब्रश किया था, न मुंह धोया था, न ठीक से लेट्रीन ही जा पाया था। और एक कप ठंडी सी चाय गटकने के अलावा मैंने कुछ खाया भी न था। शायद यही कुछ परवेज़ के साथ गुज़रा हो। ये तो सुबह देर तक सोने वाला नई उम्र का बच्चा था।
दोनों को ही उम्मीद थी कि चलो, किसी तरह फार्म हाउस पहुंच जाएं फ़िर आराम से मोटर पंप के नहर से बहते हुए पानी में नहाएंगे और कुछ ताज़ा नाश्ता खाने को मिलेगा।
लेकिन जैसे ही मोड़ से गुज़र कर सिंगल रोड पर आए दूर से ही सामने का दृश्य देख कर सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। फार्म हाउस की ऊंची सी बाउंड्री वॉल के पार से वहां खड़ी पुलिस की दो गाड़ियां दिखाई पड़ीं। गाड़ियों के आसपास तीन- चार पुलिस वालों की आवाजाही दिख रही थी और भीतर के लोगों में भी एक बदहवासी सी फैली हुई थी।
गनीमत थी कि ऊबड़खाबड़ सड़क होने के चलते बाउंड्री के उस पार से किसी का ध्यान तेज़ी से आती बाइक की ओर नहीं गया, वरना एक नई मुसीबत खड़ी हो जाती।
अब परवेज़ के कौशल और मेरी निर्णय क्षमता की परीक्षा थी। बिना किसी शक -शुबहा के परवेज़ ने धीरे से बाइक को वापस पीछे की ओर मोड़ा और इस तरह दौड़ा दिया कि किसी आते -जाते को संदेह न हो। वैसे भी शहर से बाहर का इलाका होने और सुबह जल्दी का समय होने के कारण सड़क पर लोगों का आना- जाना न के बराबर ही था, कोई इक्का -दुक्का ग्रामीण या फिर कोई ट्रेक्टर कहीं- कहीं नज़र आ जाता था।
पर इस वीराने में काफ़ी दूरी से आता -जाता वाहन भी साफ दिखाई दे जाता था।
हम जैसे आए थे वैसे ही उल्टे पांव लौट लिए।
लेकिन ऐसे में वापस लौट कर शहर जाना भी सुरक्षित नहीं था। यदि रास्ता बदल कर इधर -उधर कहीं जाएं भी तो आख़िर कहां जाते?
परवेज़ को एक तंग सी सड़क का पता था जो आगे चलकर हाई वे से मिलती थी। इससे जाने पर हम लोग सीधे अपने शहर की ओर निकल सकते थे।
लगभग सौ किलोमीटर का फासला था।
मैं ऐसे में घर नहीं जाना चाहता था लेकिन इस समय सबसे बड़ा संबल ये था कि परवेज़ मेरे साथ था जिसका खुद का घर भी मेरे ही घर के पास उसी शहर में था। मानो मैं किसी खतरे के चलते अपने घर न भी जाना चाहूं तो कम से कम परवेज़ के साथ अपने दोस्त इम्तियाज़ के पास ही जा सकता था। इम्तियाज़ मेरा बचपन का ही जिगरी दोस्त था, वह हर तरह से मेरी मदद करता ही। जबकि ख़ुद उसका बेटा परवेज़ भी मेरे साथ ही था।
मुझे यही ठीक लगा कि हम दोनों अब अपने घर की ओर ही चलें।
मुसीबत में फंसे इंसान को वैसे भी घर ही अपना सबसे बड़ा संबल दिखाई देता है।
कुछ दूर जाने पर ही हमें एक पेट्रोल पंप भी मिल गया। वहां से पेट्रोल लेते समय मैंने एक बार परवेज़ से कहा कि अगर उसे भूख लगी हो तो हम लोग कहीं जल्दी से कुछ खा सकते हैं। पर लगता था कि उसे मुझसे ज़्यादा शिद्दत से अपना घर याद आ रहा था। हम झटपट निकल लिए।
लगभग आधे घंटे बाद एक जंगल के से सुनसान रास्ते में छोटा सा पानी का पोखर देख कर हम वहां रुके और हमने सुबह का वो नित्यकर्म निपटाया जो सुबह हड़बड़ी में पूरा नहीं हो सका था। इसी कारण कुछ खाने का भी मन नहीं कर रहा था।
पर परवेज़ को भी थोड़ा आराम देना था। पोखर के किनारे निपट कर हमने हाथ धोए और फिर कुछ इत्मीनान से चलते हुए रास्ते में कोई खाने का ढाबा या चाय की गुमटी तलाशते हुए बढ़ने लगे।
हम उस शहर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर आ चुके थे पर आज के समय में किसी ख़तरे से चालीस किलोमीटर दूर होना कोई निरापद स्थिति नहीं थी। पुलिस एक फ़ोन या वायरलैस संदेश से हमारे पीछे नया खतरा छोड़ सकती थी जिसका पूरा भय था।
मुझे तीन स्थानों पर कम से कम पुलिस की गाड़ी से जुड़े किसी ख़तरे का आभास तो हो ही चुका था।
मैंने इस बीच भाई को भी कोई फ़ोन नहीं किया था और अब तो मुझे ये भी पता नहीं था कि भाई इस समय कहां होगा और क्या कर रहा होगा।
बदहवासी में भागते हुए परवेज़ पर भी मुझे दया आ रही थी जो मेरे कारण इस मुसीबत में फंस गया था।
एक जगह दो गरम रोटी दही और ज़रा सी दाल के साथ जैसे तैसे खाकर हम लोग आगे बढ़े।
ये भी ध्यान रखना था कि ज्यादा हड़बड़ी और घबराहट रास्ता चलते लोगों के बीच हमारे प्रति कोई संदेह पैदा न कर दे।
तेज हवा के चलते गर्मी और पसीने से तो बचाव हो रहा था लेकिन तीखी धूप ने हालात खराब कर रखी थी।
कुछ देर बाद अपने शहर की इमारतों और सड़कों ने दिखना शुरू किया।
लो, आसमान से गिरे और खजूर में अटके!
मेरे घर के सामने खड़ी हुई सिल्वर कलर की वही कार मुझे दूर से ही दिख गई।
क्या... भाई यहां? मुसीबत!