Baingan - 33 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बैंगन - 33

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बैंगन - 33

मुझे दोपहर को सोने की आदत बिल्कुल नहीं थी। इस कारण दोपहर बहुत देर तक ताश खेलने के बाद जब भाभी ने उबासियां लेना शुरू किया तो मैंने बच्चों को भी थोड़ी देर पढ़ने के लिए कह कर उनके कमरे में भेज दिया।
मैं भी टीवी चला कर बैठ गया। चैनल बदलते ही बदलते मेरी नज़र एक समाचार पर पड़ी जिसमें सप्ताह भर के कुछ अजीबो- गरीब समाचार दिखाए जा रहे थे। एक बड़े शहर के भूतपूर्व राजघराने की अरबों रूपए की संपत्ति का बंटवारा हाल ही में न्यायालय द्वारा अपने फ़ैसले से किया गया था।
कुछ साल पहले यहां की पूर्व राजमाता का देहावसान होने के कारण लंबे चौड़े परिवार के सदस्यों ने तरह तरह से अपने हक के लिए दावा दायर किया था। राजघराने की बेशुमार संपत्ति पांच सितारा होटलों, किलों, महलों, बाग़ बगीचों के रूप में बिखरी पड़ी थी। जबकि इस अकूत दौलत के छोटे- बड़े वारिस अलग अलग देशों में बस चुके थे। कोर्ट के फ़ैसले से होने वाली बंदर- बांट की दिलचस्प खबरें चैनल दिखा रहा था।
परिवार के एक सदस्य ने हाल ही में अपने महल से जुड़े अस्तबल में रहने वाले लगभग दो दर्जन घोड़ों की बिक्री की थी। ये घोड़े अब तक शौक़िया घुड़सवारी अथवा खेलों में काम आते रहे थे। कुछ घोड़े मुंबई के रेसकोर्स में भी दौड़ते रहे थे।
ये विडंबना ही थी कि जिन अश्वों ने अपनी जवानी के दिनों में रेसकोर्स में दौड़ कर राजघराने को बेशुमार दौलत जीत कर दी थी वो अब बूढ़े हो जाने पर भेड़ों के रेवड़ की शक्ल में तंग बाड़ों में गांव -गलियों के मरियल से जानवरों के साथ खड़े रहने पर मजबूर थे। छोटे शहरों के जिन तांगों को टैक्सी और ऑटो रिक्शा दर- बदर कर चुके थे वो भी बड़ी संख्या में थे। अक्सर यही हो रहा था कि घोड़ों को दाना - पानी देने के ख़र्च से बचने के लिए इन्हें कौड़ियों के मोल बेच दिया गया था।
बीच में एक ऐसा दौर भी आया था जब स्कूल- कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चों को भी अपने शिक्षण संस्थानों में घुड़सवारी सिखाने के लिए घोड़े रखे जाने लगे थे।
कहा जाता था कि युवाओं में साहस और हिम्मत भरने के लिए उन्हें इस तरह के करतब सिखाए जाते थे।
किंतु अब समय के साथ दृश्य बदल रहा था। अब युवाओं को हिम्मत और साहस की जगह धैर्य और संयम सिखाने की ज़रूरत समझी जाने लगी थी। ज़मीन की ज़रूरत और कीमत बेतहाशा बढ़ कर आसमान छूने लगी थी। ऐसे में घुड़सवारी जैसा शौक़ महज़ महलों में सफेद हाथी रखने जैसा सिद्ध हो रहा था। नई पीढ़ी की रुचि भी हॉर्स राइडिंग में नहीं रह गई थी।
मुझे ये सब देख कर बहुत आनंद आ रहा था।
पता ही नहीं चला कि कब तो बच्चे अपने स्टडी रूम से निकल कर आ गए और कब भाभी ने रसोई में घुस कर तरह- तरह की खुशबुओं का पिटारा खोल दिया। चाय का समय हो रहा था।
भाई वैसे तो आज ही रात तक वापस आने के लिए बोल गया था पर साथ में ये भी कह गया था कि काम न हो पाने पर उसे आज वहीं रुकना भी पड़ सकता है।
तन्मय इस बार मेरे साथ नहीं आया था किंतु मुझे शाम को एक बार उसके पिता जी से मिलने के लिए जाना था। मैं जब भी यहां आता था तो एक बार उनसे मिलने का समय निकाल ही लेता था। तन्मय की ओर से वैसे तो अब वो बिल्कुल निश्चिंत ही थे फ़िर भी उस बिना मां के बच्चे के लिए उनकी सहज चिंता रहती ही थी। वह तन्मय के यहां रहने पर उसके प्रति जितने लापरवाह रहते थे, वहां चले जाने के बाद से उसे उतना ही याद भी करते थे।
लेकिन शायद तन्मय को मिलने वाले रुपयों से वो पर्याप्त ख़ुश दिखाई देते थे और अक्सर ही अब उसका रिश्ता कहीं पक्का कर देने के लिए भी प्रयत्नशील रहते थे। उधर तन्मय तो काम में मस्त था, उसे अपने पुजारी पिता की फ़िक्र बिल्कुल भी नहीं रहती थी।
लेकिन पुजारी जी कभी- कभी ये देख कर गदगद हो जाते थे कि तन्मय अब ख़ुद कार चलाता हुआ उनसे मिलने चला आता है।
आज भी ऐसा ही हुआ।