जब किसी दुख भरी कहानी को पढ़ कर आप उस दुःख.. उस दर्द..उस वेदना को स्वयं महसूस करने लगें। पढ़ते वक्त चल रहे हालातों को ना बदल पाने की अपनी बेबसी पर कुंठित हो..कभी आप तिलमिला उठें छटपटाते रहें या कभी सिर्फ सोच कर ही आप सहम जाएँ और आपके रौंगटे खड़े होने लगें। कहानी को पूरा पढ़ने के बाद भी आप घंटों तक उसी कहानी..उसी माहौल और उन्हीं घटनाओं के बीच पात्रों की बेबसी और मायूसी के बारे में सोच कर कसमसाते हुए उन्हीं की जद्दोजहद में अपने अंतःकरण तक डूबे रहें। तो इसे एक लेखक की सफलता कहेंगे कि वो आपको उस वक्त..उस माहौल और उन परिस्थितियों से सफलतापूर्वक रूबरू करवाते हुए जोड़ पाया जिनसे वह खुद उस कहानी को लिखते वक्त कई कई मर्तबा जूझता रहा। । उस पर भी बात अगर किसी अनुवादित कहानी या उपन्यास की हो तो इस सफ़लता का श्रेय लेखक के साथ साथ उसके अनुवादक को भी जाता है कि वह लेखक की बात को सही ढंग से..सही अर्थों एवं सही संदर्भों में पाठकों तक कुशलतापूर्वक पहुँचा पाया।
किसी भी प्रांत, राज्य या देश के रहन सहन, भाषा, खानपान, संस्कृति और वहाँ के लोगों की स्थिति-परिस्थिति..दशा-दुर्दशा के बारे में जानने समझने का सबसे आसान तरीका है कि आप खुद को उस क्षेत्र विशेष के साहित्य से खुद को अप टू डेट रखें लेकिन उसके लिए भी उस जगह की स्थानीय भाषा एवं वहाँ की लिपि का हमें ज्ञान होना बेहद ज़रूरी हो जाता है। जो कि एक आम पाठक के लिए लंबा, दुरूह, थकाऊ एवं कभी- कभी नीरस प्रवृति का भी होता है।
ऐसे में मदद के लिए हमारे आगे अनुवादक का काम आता है जो बड़ी ही ज़िम्मेदारी से अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद कर उस साहित्य, उस दस्तावेज की पहुँच को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक सुगम एवं व्यापक बनाता है। एक अच्छा एवं सफल अनुवादक अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास करता है कि अनुवाद करते समय किसी भी साहित्य की भाषा, संस्कृति और आत्मा को हूबहू लेखक की ही भाषा में पन्नों पर इस प्रकार उतार दे कि वह अपने सही मंतव्य एवं मंशा से अन्य लोगों तक पहुँचे।
दोस्तों.. आज मैं बात कर रहा हूँ पिछले 40 वर्षों से पंजाबी भाषा के उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी में अनुवाद कर रहे प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाष नीरव जी और उनकी नयी अनुवादित कृति "काली धूप" की जिसमें उन्होंने पंजाबी के प्रसिद्ध रचनाकारों की छह लंबी कहानियाँ को सम्मिलित किया है। वे अब तक 600 से ज़्यादा पंजाबी कहानियों का हिंदी में सफलतापूर्वक अनुवाद कर चुके हैं और उनके द्वारा अनुवादित पुस्तकों की संख्या फिलहाल 50 है।
पंजाब का नाम ज़हन में आते ही हमारी आँखों के सामने से, लहलहाते हरे भरे खेत, हँसते मुस्कुराते..खाते पीते..भाँगड़ा डाल यहाँ वहाँ ऊधम मचाते वहाँ के अति उत्साहित बाशिंदें, गुज़र जाते हैं। मगर जैसा कि सब जानते हैं कि हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। ठीक वैसे ही पंजाब के इस चमकते दमकते चेहरे के पीछे की कालिमा ली हुई भयावह सच्चाई के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं।
पंजाब के इसी काले सच से रूबरू करवाने वाली इन कहानियों को सुभाष नीरव जी ने अपने इस संग्रह में संकलित किया है जो पहले ही हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छप कर एक अहम मुकाम पा चुकी हैं।
इस संकलन की पहली कहानी 'अंधी गली का मोड़' के रचियता 'गुरदयाल दलाल' हैं। इनमें बात है नशे की गिरफ्त में दिन प्रतिदिन घिरते पंजाब के युवाओं और उनकी बेअदबी भरी बेतरतीब ज़िन्दगी की। इसमें बात है विधवा माँ की बेबसी और नशे-सैक्स की यौवन मिश्रित आँधी में तमीज़ खो चुके जवान बेटे और बेटी की। इसमें बात है हालातों के इस हद तक बिगड़ जाने की कि एक मजबूर माँ अपने ही जवान बेटे का कत्ल तक कर उठती है।
अगली कहानी 'काली धूप' को लिखा है 'जिन्दर' ने। इसमें बात है धोखे..फरेब और जालसाज़ी के चपेट में आए मुंगेरीलाल माफ़िक हसीन सपनों की। इसमें बात है दलालों के ज़रिए, लाखों रुपए खर्च कर अवैध तरीके से, दूसरे देशों में बसने की तमन्ना रखने वाले पंजाब के लाखों युवाओं और नित उड़नछू होते उनके हवा हवाई सपनों की। इसमें बात है बीच रेगिस्तान के कष्टमयी सफ़र ना झेल पाने से लावारिस मरने वाले सैंकड़ों युवाओं और मजबूरीवश उन लाशों से पिंड छुड़ाते, बेदर्द बने उन्हीं के अपने हमसफ़र.. हमवतन साथियों की।
अगली कहानी 'जून', जिसका अर्थ है मनुष्य योनि, के रचियता 'मनिंदर सिंह कांग' हैं। इसमें बात है आतंक की चपेट से बाहर निकलने को प्रयासरत पंजाब और इसी कोशिश में जुटे, नशे में धुत, बर्बर पुलिस वालों और उनके अमानवीय टॉर्चर की। इसमें बात है मुखबिरों की मदद से शह मात का खेल खेलती पुलिस और उनसे लुकाछिपी खेलते खाड़कूओं(उग्रवादियों) की। इसमें बात है अमानवीय यातनाओं से त्रस्त आमजन के घुन माफ़िक आटे में पिसने.. पिसते रहने और अंततः थक हार कर दम तोड़ देने की।
अगली कहानी "अगर मैं अपनी व्यथा कहूँ" के लेखक 'बलजिंदर सिंह नसराली' हैं। इसमें बात है कर्ज़ में डूबे आम भारतीय गरीब किसान और उसकी कष्टपूर्ण राह में नित नयी खड़ी होती छोटी बड़ी कठिनाइयों की। इसमें बात है पारिवारिक झगड़ों में उल्लेखनीय दखल रखती बहुओं के बढ़ते वर्चस्व एवं नित नए बढ़ते चाहे/अनचाहे योगदान की। इसमें मार्मिक व्यथा है आढ़तियों और रेहड़ी वालों के बीच, नयी राह खोजते, असमंजस में डूबे आम छोटे व मझोले किसान की।
अगली कहानी "कूकर" के रचियता 'बलराज सिद्धू' हैं। इसमें बात है यौवन की आग में सही गलत का फ़ैसला ना कर पाने वाले आम युवाओं की मनोस्थिति की। इसमें बात है प्रेम-कामुकता और भोग-लिप्सा के मद में अँधी हवस के हावी होने और उस पर समय रहते अपने अंतर्मन के ज़रिए संयम पा लेने की।
अंतिम कहानी "लंगड़ा कुक्कड़" को लिखा है बलविंदर सिंह बराड़ ने। इसमें बात है विधुर हो चुके, अँधी हवस के पुजारी, अधेड़ बाप और उसके, उस जवान बेटे की। जो अपने प्यार से शादी करने के लिए महज़ इसलिए हामी नहीं भरता कि कहीं उसके लंपट बाप की गंदी नज़र, उसकी अपनी बहू पर ही ना पड़ जाए।
कुछ जगहों पर एक आध अक्षर छूटा हुआ या आधे अक्षर सही से नहीं छपे दिखाई दिए जैसे..गुरुद्वारा, गुरुद् वारा लिखा दिखाई दिया।
हालांकि यह किताब मुझे मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि अलग अलग विषयों और कलेवर से सुसज्जित कहानियों के इस 196 पृष्ठीय संग्रहणीय क्वालिटी के उम्दा पेपरबैक संस्करण को छापा है शुभदा बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 360/- रुपए जो कि मुझे आम हिंदी पाठक के नज़रिए से ज़्यादा लगा। बतौर पाठक मेरा मानना है कि पहले दाम ज़्यादा और बाद में डिस्काउंट देने से अच्छा है कि प्रकाशक अपनी किताबों की क्वालिटी और दाम..
*औसत
*बढ़िया और
*हार्ड बाउंड
के हिसाब से पढ़ने वालों की जेब के अनुसार रखे। इससे उसे ज़्यादा पाठक/ग्राहक मिलेंगे और मुनाफ़ा कमाने का उसका मंतव्य भी आसानी से पूरा हो जाएगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।