--उपन्यास
भाग—तेरह
अन्गयारी आँधी—१३
--आर. एन. सुनगरया,
प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति, प्रवृति, मानसिक सोच, दृष्टिकोण, परिवेश पर निर्भर करता है कि उसे कौन सी आदतें कहॉं से किस रूप में ग्रहण हुईं हैं। कुछ आदतें स्थाई होती हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों के अनुसार आती हैं। कुछ व्यक्ति आदतों के आधीन हो जाते हैं। कुछ अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से आदतों को बदल भी डालते हैं। त्याग भी देते हैं।
शक्ति अपनी प्रकृति अनुसार, लोभ-भोग की आदतों के भ्रमजाल में फंसा हुआ रहता है। शक्ति अस्थिर सा लग रहा है। कभी अन्दर जाता है, कभी इधर-उधर डोलने लगता है। मन एकाग्र नहीं हो पा रहा है। किसी स्थान पर रूक नहीं पा रहा है। शायद कुछ ढूँढ़ रहा है। अथिति रूम की चौखट पर रूक गया, चेहरे पर संतोष की छाया है। कुछ क्षण खड़ा रहने के बाद उसकी नज़र स्वरूपा पर पड़ी, प्रसन्न हुआ, चेहरे पर खुशी झलक आई। बोला, ‘’स्वरूपा तैयारी में लगी हो।‘’ शक्ति उसके नजदीक आ खड़ा हुआ।
‘’हॉं, सारे आवश्यक पेपर्स क्रमबद्ध कर रही हूँ। जब जैसी जरूरत होगी तत्काल उपयोग कर लूँगी।........आसानी होगी।‘’
‘’हॉं यह ठीक है।‘’ शक्ति ने अपनत्व दिखाया। बातों का सिलसिला जारी रखना चाहता है, ‘’शुरू-शुरू में कुछ कठिनाईयॉं आयेंगी बाद में सभी कार्य सामान्य रोजमर्रा की आदत में आ जायेगा।‘’
स्वरूपा खामोशी से अपने काम में पुन: तल्लीन हो गई। शक्ति को महसूस हुआ स्वरूपा उसे अनदेखा कर रही है। बात करने का मन नहीं है। या फिर कोई विषय ही नहीं है वार्ता का। शक्ति कुछ समझ नहीं पा रहा था क्या करे, जाये या रूके। बातें आगे बढ़ नहीं रही है। खिन्नता सी खीज हो रही है। फिर भी कुछ फिजूल, संदर्भ रहित विषय पर कुछ-कुछ बोल कर बोलने की मंशा से सम्वाद जारी रखना चाह रहा है। कोशिश नाकाम हुई, स्वरूपा ने तनिक भी उसे तबज्जों नहीं दी। शक्ति को वहॉं से हट जाना ही उचित लगा। अपनी इज्जत अपने हाथ, शक्ति अपने रूम की तरफ लौट गया। अपना सा मुँह लेकर। ग्लानि मुखमंडल पर उभर आई। शक्ति अपने बेड पर पीठ के बल, दोनों हाथों का तकिया बनाकर लेट गया तथा छत पर घूमता पंखा ताकने लगा। उसे लगा जैसे वह पंखा उसके दिमाग में चल रहा है। दिमाग को गोल-गोल चक्कर की तरह घुमा रहा है। जिस कारण दिमाग ठीक से काम नहीं कर पा रहा है। सारे सोच-विचार दिमाग के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं। शायद इसी तरह की स्थिति को घन चक्कर कहते हैं।
‘’अनर्गल दिमाग दौड़ाकर, दोषारोपर्ण करना, स्वजीविपन एवं निजस्वार्थ का परिचायक है।‘’
‘’ये लम्बा भाषण कौन दे रहा है?’’ शक्ति खीजकर चिल्लाने लगा, ‘’कौन है......कौन।‘’
‘’मैं हूँ, तुम्हारा जमीर!’’
‘’जमीर!’’ शक्ति ने ऑंखें बन्द कर लीं, ‘’क्यों जले पर नमक छिड़कते हो।‘’ ..............कैसे तुम्हारी आत्मा गवारा कर रही है। कहॉं है तुम्हारा दीन-ईमान, स्वरूपा के सम्पूर्ण हालातों से अवगत हो, किस तरह जमी-जमाई घर-गृहस्थी बिखर गई है। उसे पुनर्निर्माण की भरसक चेष्टा में लगी है। परिवार के तीनों सदस्य त्रिकोण के तीन कोनों पर स्थित अकेले-अकेले जीवन संघर्ष में लगे हैं। शक्ति को तनिक भी सहानुभूति, सम्वेदना, सहृदयता नहीं है। मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, दु:ख बीमारी सब कुछ, जीवन-यापन के मूल तत्व संसाधन, हर स्तर पर हृास हो रहा है। सम्पूर्ण समस्याऍं अपने दामन में समेट कर, उनके समाधान, निदान, छुटकारे के प्रयास में निकल पड़ी है। टुकडे-टुकड़े हो चुकी गृहस्थी को जोड़ने, बनाने पुन: खड़ी करने हेतु संघर्षरत है। पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प के सहारे, चल पड़ी है यथार्थ के पथरीले मार्ग पर, अकेली ही कूद पड़ी है, जीवन संग्राम में अपने-आप के बल-बूते पर।
शक्ति को पश्च्चाताप के अदृश्य धागों ने जकड़ लिया। सपना ने जिस तरह दरियादिली दिखाई है, उसे सकारात्मक सहयोग एवं संरक्षण देने का आश्वासन ही नहीं, बल्कि वादा किया है। शक्ति ने निश्चय कर लिया संकल्प पूर्वक, कि सपना के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर स्वरूपा को उभरने, उवरने में हर सम्भव सहायता तथा सहयोग का प्रयास करेगा।
नास्ते के समय सपना स्वरूपा और शक्ति सामान्य स्वभाविक वार्ता-लाप के साथ-साथ व्यंजन की भूरि-भूरि प्रसन्नसा भी कर देते थे। पूर्णत: खुश-मिजाजी में समय बीतता गया।
सपना भलि भॉंति जानती थी कि स्वरूपा स्वाभिमानी-आत्मसम्मानी है, जल्दी कभी किसी को आप-बीति बताती नहीं। दबाव बढ़ने पर ही सांझा करती है, अपनी मुशकिल। स्वयं आने की योजना को क्रियाम्वन करने के लिये चिन्तित तो होगी। आशा-विश्वास-आत्मविश्वास के बीच डोल तो रही होगी, स्वरूपा, मगर संकोचवश खुलकर बोलेगी नहीं कि जल्द-से-जल्द अपनी समस्याओं को निबटा कर या हल करके निश्चिंत हो जाना चाहती है।
यह दायित्व सपना ने ही अपने कंधों पर उठाया। तीनों ने बैठकर खूब विस्तार से विचार-विमर्श किया। आन्तरिक-बाहरी पहेलुओं पर सुविधानुसार गौर किया। अन्त में किसी परियोजना की भॉंति सारे कार्यकलाप बिन्दुबार, प्राथमिकता के अनुसार तय किये गये कार्यरूप। ताकि परेशानी एवं समय की बर्बादी से बचा जा सके एवं निर्धारित समय पर प्रत्येक कार्य सम्पन्न हो जाये। सारी औपचारिकताऍं, सर्वप्रथम कॉलेज में ज्वाईनिंग की जाये, इसके पश्च्चात कामकाजी महिलाओं के लिये छात्रावास में एडमीशन की व्यवस्था की जाये, अन्त में बेटे के लिये आवासिय स्कूल में भर्ती करने के सारे इन्तजाम किये जाये। तब जाकर शुकुन-चेन पूर्वक सफलता का एहसास होगा। निश्चिंत होकर।
तीनों ने खुशी जाहिर की एवं पूर्ण समर्थन दिया, कार्य योजना को। हर काम निर्धारित ऐजेन्डा के मुताबिक क्रमबद्ध कार्य के लिये अपनी कमर कस ली। अपनी-अपनी सुविधानुसार संलग्न हो गये, तैयारियों में। मुस्तेदी के साथ। अपनी-अपनी जिम्मेदारियॉं निवाहने के लिये चल पड़े, एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते हुये। मिटिंग खत्म, एक्शन शुरू!
सपना ने अध्यक्षीय आदेश मौखिक ही जारी किया, ‘’तो तय हुआ, कल सुबह स्वरूपा और शक्ति इस महत्वपूर्ण मिशन पर रवाना होंगे।‘’
‘’क्यों, तुम भी चलो।‘’ शक्ति ने टोका, ‘’अच्छा रहेगा, बन्टी-बबली से भी मिल लेना।‘’
‘’पिछले दिनों ही तो मिलकर आई हूँ।‘’ सपना ने आगे कहा, ‘’तुम से मिलना चाहते हैं, बच्चे, तुम्हारा पूछ भी रहे थे।‘’ सपना ने और खास कारण बताये, ‘’सारे काम आफिस लेवल के ही हैं। जो शक्ति से बेहतर कौन कर सकता है।‘’ शक्ति को गर्व महसूस हुआ, एक क्षण। शक्ति चाहता भी यही था कि स्वरूपा के साथ अकेला ही जाये, सपना ना ही जाये तो अच्छा हेागा। कबाब में हड्डी साबित होगी, आर्डर पर आर्डर झाड़ती रहेगी। उससे तनाव रहेगा सदैव।
स्वरूपा का साथ रहेगा, तो दु:ख-सुख, कुछ उसकी-कुछ अपनी सुन-सुना पायेंगे खुलकर, रहस्यों पर पड़े पर्दे उठा सकेंगे। अनुकूल समय, परिस्थिति आने पर। अधूरे सम्वाद पूरे कर सकेंगे। मन का गुबार निकाल सकेंगे। प्रत्येक्ष-अप्रत्येक्ष आदान-प्रदान का निर्बाधित अवसर का सदुपयोग हो जायेगा। स्वान्ताय-सुखाय का सुखद सुख का अनुभव स्वानुभूति को महसूस कर लेंगे। स्वरूपा के साथ बिताया यादगार समय हृदयगत सुरक्षित मूल दस्तावेज के समान होगा, सदा।
स्वरूपा अपने बिस्तर पर तकिये के सहारे अधलेटी निश्चिंत विश्राम मुद्रा में विचारों के पुष्प विमान पर सवार होकर खुले आसमान में स्वच्छन्द विचरण कर रही है। उसकी अधिकांश चिन्ताऍं एवं समस्याऍं, कपूर की भॉंति वायु में विलीन हो गईं स्वत: ही। बची खुचीं, के निवारण के भी पुख्ता इन्तजाम हो चुके हैं। स्वाभाविक तात्कालिक कठिनाईयॉं तो अस्थाई क्षणिक होती हैं; आती-जाती रहती हैं, उनसे क्या घबराना! रोजमर्रा की तकलीफों की मानिंद होती है। चुटकी बजाते ही हल भी हो जाती हैं।
जीजा शक्ति साथ रहेगा। सहयोगी और संरक्षक के रूप में। मगर वह बन्द–बन्द या कुन्द-कुन्द सा रहता है। संकोच, शर्म या फिर भयग्रस्त प्रतीत होता है। पूर्णरूप से खुला-खुला प्रस्तुत नहीं कर पाता अपने-आपको, घबराया सा बन्दिशों में जकड़ा हुआ पिंजरें में कैद हिरण की मानिन्द है। खुले मैदान में कूदता उछलता, छलांगें लगाता, लुभाता, लचखता, प्रणयामन्त्रण देता सहभागी नहीं लगता। इस क्षेत्र के हालातों का मारा लगता है। जैसे उसे अनुकूल अवसर नहीं मिला अपने सम्पूर्ण शरीर सौष्ठव को समर्पित करने का। प्रकृति प्रत्येक प्राणी को समान शारीरिक सम्पदा प्रदान करती है परिस्थिति के अनुकूल समय पर उसका यथासम्भव यथेष्ठ उपयोग का अधिकार भी देती है। उस अद्वितिय दुर्लभ सौन्दर्य सुरभी का रसास्वादन समय पर्यन्त करने में ही जीवन को सार्थकता प्रदान करना है।
अनगिनत मनुष्य इस परम शारीरिक सुख की पराकाष्ठा को कौशलाभाव में सदैव-सदैव के लिये खो देते हैं। एवं अतृप्ति का आधा-अधूरा आनन्द पाकर पश्च्चाताप की आग में जलता रहता है। जीवन पर्यन्त। मुख्य रहस्य नहीं जान पाते। वास्तविक कारणों के अलावा, अनेक दोष ढूंढ़ने में लगे रहते हैं और अपने आपको अधूरा मान लेते हैं। जबकि प्रत्येक प्राणी परिपूर्ण होता है। आवश्यकता सिर्फ, इतनी है कि तकनीकी का प्रयोग करके एैच्छिक परिणाम पा सकते हैं।
हीरा पत्थर के रूप में बेडौल जमीन से अथवा खदान से प्राप्त होता है, खोज परक प्रयासों के द्वारा परिश्रम करके। उस समय उसका मूल्यांकन सम्भव नहीं है। मगर वही बेडौल पत्थर की शक्ल में हीरा जब पारखी प्रवीण, तराशने के कला कौशल प्राप्त शिल्पी के हुनर के कारण हीरा अपने सही स्वरूप में सामने आता है। तो उसकी कीमत लाखों-करोड़ों में ऑंकी जाती है। कमाल हीरा ढूँढ़ने वाले का नहीं, असल कारीगरी तो हीरा तराशने वाले की है कि उसने पारखी नजरों से देखा और पहचाना, तराशकर उसे उसकी असली कीमत के लायक बना दिया। अपने वास्तविक मूल्य के काविल बना, इसी प्रकार इन्सान भी प्रकृति के अनमोल खजाने का हीरा होता है, जो वास्तविक नैशर्गिक संतुष्टी पाने में प्रवीण होने की कुशलता में माहिर होना चाहिए तभी उसका मूल रूप-मूल स्वरूप हासिल किया जा सकता है। अन्यथा दो धारी तलवार की भॉंति परिणाम भुगतने हेतु विवश हो जाते हैं। कटते रहिए दोनों धारों से, अनजाने में।........
न्न्न्न्न्न्न्
--क्रमश: --१४
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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