उपन्यास-
एक और दमयन्ती 12
रामगोपाल भावुक
रचना काल-1968 ई0
संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा
भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0
पिन. 475110
मोबा. 09425715707
एक और दमयन्ती ही क्यों?
राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।
इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-
आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ
कहें कहानी।
हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की
एक कहानी।
सुनो महालक्ष्मी रानी ।।
इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।
पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।
रामगोपाल भावुक
बारह
सुनीता तीर्थयात्रा पर जा रही थी। आज भगवती को पहली बार कुछ खल रहा था। वह मन ही मन पश्चाताप कर रहा था। क्यों उसने माताजी से सुनीता के जाने की स्वीकृति दे दी। शायद भगवान द्वारिकाधीश क ृपा कर दें।
इसी उत्साह से वह तैयारी कराता रहाँ भगवती जब रसोईघर में पहुँचा। सुनीता भोजन तैयार कर चुकी थी। सुनीता ने दो थालियों में खाना परोसा। भगवती समझ गया। जाने में देर न हो जाए। दोनों खाना खाने बैठ गए।
पूरे समय दोनों कुछ सोचते रहे। सुनीता से खाना नहीं खाया जा रहा था। हर ग्रास मुँह में कई चक्कर लगाता। अन्दर ले जाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता। स्थिति को भगवती भी समझ रहा था। वह जान रहा था। यात्रा पर जाते समय ऐसा ही होता है। यह सब समझाते हुए वह बोला-‘अभी से खाना छोड़ दोगी तो यात्रा कैसे करोगी ?’
विशय को सुनीता ने भगवती से रोटी और लेने की बात पूछने के बहाने टाल दिया। जब दोनों खाना खा-पीकर निवृत हुए तो भागवती माताजी की बहू सुशीला सन्देश लेकर आई, बोली-‘बहनजी माताजी ने कहा है कि रात दस बजे जी. टी. एक्सप्रेस दिल्ली के लिए जाती है। स्टेशन पर नौ बजे ही पहुँच जाना चाहिए।’
यह कहकर वह तो चली गई। भगवती सुनीता का ले जाने वाला सामान चैक करने लगा, कहीं कोई सामान छूट तो नहीं गया।
साढ़े आठ बजे सुनीता ने घर छोड़ दिया। भगवती उसके साथ था। माताजी आ गईं। एक टैक्सी पकड़ी। सभी उसमें बैठ गए। टैक्सी चल दी। रास्ते भर सुनीता सोचती रही-
‘इस राज का पता चला तो सम्भव है भगवती सम्बन्ध विच्छेद न कर ले। मैं तब कहाँ जाऊंगी? भगवती के अलावा और मेरा है कौन इस दुनिया में ? मैं क्यों भगवती से इन सब बातों को छिपाती रही। भगवती से उसने शुरु से ही कुछ न छिपाया होता तो इतना बड़ा कुकृत्य तो न होता। इस अभिशाप से तो होटल की वह जिन्दगी ही अच्छी थी। मैं भी कैसी हूँ। जिसके जाल में फसकर जीवन काटती रही, इस की हत्या तो पहले ही करनी थी किन्तु उसकी हत्या अब कर पाई।
भगवती ़़ ़भगवती ने ही मुझे इस कगार पर पहुँचाया है। अब महेन्द्रनाथ की बीबी-बच्चों का क्या होगा ? उसने मुझे अनाथ बनाया था मैंने उसके बच्चों को अनाथ बना दिया। अब मेरे मिशन में, समाज में, क्या इज्जत रह जाएगी। लोग मुझे कितनी अच्छी समझते हैं। आज यह पता चलते ही कि मैंने किसी की हत्या कर दी है, उसे पखाने के गटर में डालकर तीर्थ करने भाग गई हूँ। मेरी सारी अच्छाईयाँ बुराइयों में बदल जाएंगी।’
टैक्सी ड्राइवर ने एक कुत्ते को बचाने के लिए एकदम ब्रेक लगाए। विचारों का प्रवाह बन्द हो गया। स्टेशन आ चुका था। सभी टैक्सी से उतर पड़े। भागवती माताजी सुनीता से बोलीं-‘अरी कैसी गुमसुम बैठी है? भगवती का इतना ही सोच है तो उसे भी साथ लिये चल ना।’
‘नहीं माता जी यह बात नहीं है। अभी बात भी क्या है जो इनसे करती ?’ भगवती टिकिट लेने चला गया।
भगवती को टिकिट लेकर लौटने में काफी देर हो गई। गाड़ी आने का समय हो गया। सभी प्लेटफार्म पर पहुँच गए। स्टेशन पर बहुत भीड़ थी। भीड़ तो इस गाड़ी में हमेशा रहती है। मध्यप्रदेश की राजधानी जो ठहरी। हजारों मुसाफिर इधर-उधर आते-जाते रहते हैं।
गाड़ी आने की घण्टी बज गई। सभी गाड़ी के इन्तजार में खड़े हो गए। पांच मिनट बाद गाड़ी स्टेशन पर थी। थोड़े-से संघर्ष के बाद भगवती ने सुनीता और माताजी को एक डिब्बे में बिठा दिया। अब भगवती माता जी को और सुनीता को जल्दी-जल्दी यात्रा के बारे में निर्देश देने लगा। सुनीता अभी भी गुमसुम ही बैठी रही। उसने किसी भी प्रकार की बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
गाड़ी चल दी। भगवती खिड़की से अलग हो गया। भगवती ने हाथ हिलाया। सुनीता मूक बनी देखती रही। कुछ कहने को उसके होंठ हिले। गाड़ी आगे निकल गई। स्टेशन से ही भगवती को सुनीता की अनुपस्थिति खलने लगी।
माताजी के कोई रिश्तेदार होशंगाबाद से उसी डिब्बे में बैठे थे। वे भी गंगा दशहरे पर हरिद्वार जा रहे थे। भागवती को उन्होंने पहचान लिया। उन्होेंने इन्हें अपने पास बुला लिया। सुनीता को भी पास में बुलाया। सुनीता ने वहाँ जाने से मना कर दिया, बोली-‘मैं यहीं ठीक हूँ।’
सुनीता चुपचाप बैठी रही। डिब्बा यात्रियों से खचाखच भरा था पर सुनीता अकेली थी। सुनीता ने अकेलेपन का लाभ उठाया। विचारों का प्रवाह बह निकला। माताजी अन्य यात्रियों से जोर-जोर से गप्पे लगाने में लग गई थीं। सुनीता को कुछ भी नहीं सुन पड़ रहा था। उसे सुन पड़ रही थी तो पिस्तौल की आवाज। उसके सोचने में आ रहा था-मैं क्यों वे ही बातें सोचती चली जा रही हूँ, क्यों नहीं मैं तीर्थों के बारे में सोच पा रही हूँ। इस समय मेरा सोचना चल रहा है, उन्हीं सब बातों के बारे में, जिनके बारे में सोचना छोड़ने से ही जीवन में चैन मिल पाएँगा। लोग कहते हैं गंगा-स्नान से पाप छूट जाते हैं।
मेरा तो इस दन्त कथा पर से विश्वास उठ रहा है। आज मैं इतना जरुर कह सकती हूँ कि गंगा स्नान के बाद लोगों का चिन्तन जैसा का तैसा ही रहता होगा। जब तक लोगों का दृष्टिकोण नहीं बदलेगा और चिन्तन नहीं बदलेगा। फिर गंगा स्नान करने से क्या लाभ? मेरी समझ में नहीं अता। पाप तो प्रायश्चित से ही छूट सकते हैं।
गंगा-स्नान से पाप छूटने लगें तो विश्व के सारे पानी गंगा स्नान को दौड़ पड़ेंगे। धरा पापियों से मुक्त हो जाएगी। धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी। नर्क नामक कल्पना का अन्त हो जाएगा। स्वर्ग-नर्क मनुश्य के दुःख - सुख से सम्बन्धित कल्पनाएं हैं। यदि स्वर्ग-नर्क कहीं हैं, तो यहीं है। मेरी दृष्टि में पापों का प्रायश्चित ही इस समस्या का मात्र हल है।’
खून के धब्बे उसकी आंखों के सामने से नहीं हट रहे थे। तड़पते हुए महेन्द्रनाथ का चित्र आंखों के सामने से नहीं हट रहा था।
ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी। सुनीता का मन उमड़ते हुए सागर की तरह हिलोरें ले रहा था। अन्तर्मन में उमड़ता हुआ ज्वर, हल ढूंढने के लिए आतुर था। जीवन के सारे चित्र एक-एक कर आंखों के सामने से गुजर गए। उमड़ते हुए तूफान का वेग कम न हुआ। माताजी अपने रिश्तेदारों के साथ व्यवस्थित हो गईं। क्रम में मथुरा स्टेशन आ गया। सुनीता ने यहीं उतरना चाहाँ वह माताजी के पास जाकर बोली-‘माताजी यहीं उतर लें, पहले द्वारिकाधीश के दर्शन करते चलें।’
माताजी बोली-‘अरे हट री, इधर से उतरा नहीं जाता। लौटते में उनके दर्शन किए जाते हैं।’
‘ये व्यर्थ की मान्यताएं हैं। मेरी इच्छा हो रही है कि पहले यहीं उतर लें।’
‘अरी लौटते में यहाँ रुकेंगे।’
‘लेकिन मैं तो यहीं उतर रही हूँ, आप चाहे तो चली जाएं।’
‘मैं तो जा रही हूँ लेकिन तेरी यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी।’
‘माताजी, आपको साथ तो मिल ही गया है, मेरी आगे जाने की इच्छा नहीं है।’
‘अरे कोई क्या कहेगा ? कि रास्ते में से ही लौट आई।’
‘कोई कहे। कहने से क्यों चूके। लोगों को कहना ही चाहिए, मैं इसकी चिन्ता नहीं करती।’
यह कहते हुए वह अपना सामान लेकन ट्रेन से उतर पड़ी। ट्रेन चली गई। सुनीता ने चैन की सांस ली। उसने द्वारिकाधीश के मन्दिर के लिए रिक्शा पकड़ा। आधा घण्टे में उसने मन्दिर के पास उतारा।
प्रसाद लेने के बहाने एक दुकान पर अपना सामान रखा। यमुनाजी के निर्मल जल में स्नान किया। मन्दिर पहुँची। उसे लग रहा था कोई उसे बुला रहा है। भगवान की मूर्ति के सामने पहुँच गई। हाथ जुड़ गए। मन ही मन जाने क्या-क्या मांगती रही। प्रार्थना करती रही। परिक्रमा करने निकली। उसे लगने लगा, उसे वापिस चलना चाहिए। भगवान कृष्ण ने भी तो जेल की कोठरी में जन्म लिया था। मेरा सच्चा तीर्थ तो जेल की कोठरी है। मुझे लौटकर अपना अपराध स्वीकार कर लेना चाहिए। यह बात मन में आकर कुछ देर के लिए ठहर गईतो बात ने दृढ़ता ग्रहण की। दृढ़ निश्चय लक्ष्य में बदल गया। परिणाम चाहे जो हो उसे जेल की कोठरी में ही पहुँचना चाहिए। धारणा द्रण होने पर वह वापस लौट पड़ी। वह जान गई कि उसकी आत्मा को शान्ति जेल की कोठरी के अलावा और कहीं भी नहीं मिल सकेगी।
भगवती सुनीता को जब से स्टेशन छोड़कर घर आया था, घर में उसका मन नहीं लग रहा था। रात नींद नहीं आई। बुरे-बुरे स्वप्न आते रहे। दूसरे दिन वह दैनिक कार्य से निवृत होकर अपनी ड्यूटी पर चला गया।
सारे दिन निराशा के भाव आते रहे। काम में मन नहीं लगा तो साहब से छुट्टी लेकर घर चला आया। एक होटल पर बैठकर मन बदलाता रहाँ घर आते-आते शाम के छह बज गए। होटल से खाना खा-पीकर ही आया था। बिस्तर पर लेट गया।
इधर उधर की बातें सोचता रहाँ देर रात नींद नहीं आई। सुबह उठते-उठते नींद लग गई। सुबह देर से उठा तो घर को पुलिस घेरे खड़ी थी। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे थे। सब में काना-फूसी हो रही थी।
सुनीता के हथकड़़ी लगी थी। एक लाश उसके गटर से निकालकर बाहर रखी जा रही थी। पुलिस निरीक्षण में लगी हुई थी। मौके का नक्शा बना लिया गया। पुलिस ने पिस्तौल भगवती के रुम से कब्जे में कर ली। इस सारी कार्यवाही से भगवती सब कुछ समझ गया। वह सुनीता के पास जाकर बोला-‘सुनीता यह सब क्या ..........?’
बात सुनकर सुनीता ने डबडबाई आंखों से भगवती की ओर देखा और दृष्टि झुका लीं।वह पुनः बोला-‘सुनीता यह सब क्या हो गया तुमने ..........?’ उसने फिर आंखें उठाकर झुका लीं।
वह फिर बोला-‘तुम तो तीर्थयात्रा पर गई थीं। कहाँ से लौट आई।’
‘द्वारिकाधीश के दर्शन करके..........।’ इतना कहकर वह फिर मौन हो गई।
पुलिस अभी तक अपनी कार्यवाही पूरी कर चुकी थी। सुनीता को पुलिस के पहरे में गाड़ी में बिठा लिया गया। गाड़ी चली गई। भगवती देखता रहाँ वह सोचता रहा-‘यह क्या हो गया ? कैसे हो गया ? सुनीता बीच से क्यों और कैसे लौट पड़ी ? महेन्द्रनाथ यहाँ कैसे आ गया ? इसने इसे मार डाला ? सारा राज स्वयं आकर बता दिया। मारकर गटर में लाश ठिकाने लगा दी। सुनीता कितनी बहादुर है?
शायद इसीलिए वह मुझे लेकर इतनी दूर भाग आई थी। यदि सुनीता न कहती तो इस बात को कौन जान पाता ? अब वह क्या करे ? क्या न करे ? कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा हे। एकदम यह सब क्या हो गया ? सुनीता ने कुछ किया होता तो मुझे जरुर बता देती। नहीं-नहीं, सुनीता ने ही यह सब किया है। नहीं तो वापिस क्यों चली आई।
उसने मुझे नहीं फंसने दिया। ऐसी कोई बात होती, सुनीता मुझसे कहती, तो यह हत्या मुझे करनी पड़ती। कितनी बहादुर है वह ! हत्या करके लाश ठिकाने लगाना। तीर्थयात्रा पर जाना फिर यात्रा से लौट आना। पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देना। अपना अपराध स्वीकार कर लेना। अब सुनीता को फांसी की सजा से बचाया नहीं जा सकता।’
सुनीता की मदद न कर पाने की स्थिति में वह मन ही मन विवश होकर छटपटाने लगा।