ek aur damayanti - 11 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एक और दमयन्ती - 11

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एक और दमयन्ती - 11

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 11

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

ग्यारह

गर्मियों के दिन तो थे ही। सूर्य सिर पर सवार था। चटाके की धूप पड़ रही थी। पत्थर भी आग उगल रहे थे। छाया में बैठा आदमी धूप में निगाह उठाकर देखता तो चकाचोंध लगती। आंखें तिलमिला जातीं। बाहर गर्म झुलसा देने वाली लू चल रही थी।

मकान के अन्दर बैठा आदमी गर्मी के मारे तिलमिला रहा था। रास्ता बन्द हो गया था। सन्नाटे को चीरती हुई एकाध टैक्सी निकल जाती थी और फिर वही सन्नाटा छा जाता था। चिड़ियां भी दोपहरी में विराम लेने पेड़ों की छाया में चहचहा रही थीं।

सुनीता के घर के चारों तरफ कोई पेड़ न था। सुनीता अपने कमरे में बैठी अपने घर के पिछले दरवाजे को देख रही थी। जो खुला रह गया था। धूप के कारण इतना साहस नहीं हो रहा था कि जाकर दरवाजा बन्द कर आती। सुनीता के घर से सटा हुआ कोई क्वार्टर भी न था।

दोनों तरफ के क्वार्टरों के बीच फासला था। पड़ोस के मकानों की चहल-पहल सुन पड़ना बन्द हो गई थी। पुरुष वर्ग काम पर चले गए थे। महिलाएं अपने बच्चों को लेकर लू से बचाने के लिए कमरों में बन्द थीं। बिजली के पंखे तेज गति से सभी के घरों में गर्माने वाली हवा उगल रहे थे। ऐसी स्थिति में किसी को क्या पड़ी कि बाहर झांके। बाहर झांककर लू से मरना है क्या ?

सुनीता के घर का अगला दरवाजा बन्द था। उसने सामने की खिड़की भी बन्द कर दी। कमरे का पिछला दरवाजा लू से बचने के लिए बन्द कर दिया। कमरे में अंधेरा सा हो गया। बिस्तरे पर लेट गई और नींद लेने का प्रयास करने लगी। उसके कूलर की आवाज तेज थी तो उसके कानों को फाड़े डाल रही थी। कुछ सोचते-सोचते सुनीता की नींद लग गई।

महेन्द्रनाथ एक टैक्सी से उतरा। टैक्सी आगे चली गई। वह सुनीता के घर की ओर बढ़ा। बरामदे में आकर खड़ा हो गया। अन्दर की आवाज सुनने का प्रयास करने लगा। कोई आवाज नहीं सुन पड़ी। उसे विश्वास हो गया कि भगवती तो निश्चय ही काम पर गया होगा। दरवाजा खटखटाया।

सुनीता भड़भड़ाकर उठी। आंखें मलते हुए बोली-‘कौन ?’

बाहर से कोई उत्तर नहीं मिला।उसने सोचा-आज मैं बेहोश सो गई। शायद भगवती आ गए हैं। मैं अभी सो रही हूँ। वे क्या कहेंगे ?

यह सोचकर वह झट से दरवाजा खोलने पहुँच गई। दरवाजा खोला।

सामने महेन्द्रनाथ को असमय आया हुआ देखकर उसके होश उड़ गए। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसने अपने आपको संभाला। वह सोचने लगी-मैं सो रही हूँ या जाग रही हूँ। -‘

तभी उसके कानों में शब्द सुन पड़े-‘क्यों मुझे देखकर घबड़ा गईं ?’

वह कमरे के अन्दर आ गया। उसने अगला किवाड़ स्वयम् ही बन्द कर दिया। अब कमरे में धुंधला प्रकाश खिड़की की दरांच से अन्दर आ रहा था। बोला-‘सोचा सुनीता जी आज दोपहरी में अकेली होंगी। चलूं मिल ही आऊं। वहाँ बैठा-बैठा बोर हो रहा था।’

बात सुनकर सुनीता बोली-‘वहाँ बोर हो रहे थे। यहाँ दूसरे की औरत के साथ आनन्द मनाने चले आये।’

यह कहते हुए सुनीता ने खिड़की की चटकनी खोल दी। खिड़की का किवाड़ थोड़ा सा खुल गया। जिससे बाहर का तेज प्रकाश अन्दर प्रवेश कर गया। महेन्द्रनाथ ने बढ़कर खिड़की को बन्द करना चाहा पर ढंग से बन्द नहीं हुई। दरांच में से प्रकाश अन्दर आता रहाँ सुनीता सिमिटकर खड़ी हो गई। वह पलंग पर बैठते हुए बोला-

‘तुम भी यहीं आकर बैठो न सुनीता।’

सुनीता बोली-

‘तुमसे कितनी बार कह दिया कि तुम यहाँ न आया करो, पर तुम नहीं माने।’

‘प्रश्न मन का है, सुनीता यह मन ही नहीं मानता।’

यह कहते हुए उसने सुनीता का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचना चाहाँ

सुनीता ने उसका हाथ झटक दिया। उसने पुनः उसका हाथ बलपूर्वक पकड़ लिया। उसने जान की बाजी लगाकर छूटने की कोशिश की। वह महेन्द्रनाथ के हाथ से फिसल गई। दीवाल से टकराते-टकराते बची।

सुनीता जोर से चीखी-‘तुझे शर्म नहीं आती। तूने मुझे बर्बाद कर दिया। मैंने तुझसे दया की भीख मांगी, मुझे छोड़ दे पर तू इतना नीच है कि एक असहाय को जीवन की भीख भी न दे सका।’

यह बात कहकर महेन्द्रनाथ फीकी हंसी हंसते हुए बोला-‘बस अबकी बार चला आया, अब कभी न आऊंगा।’

सुनीता फिर चीखी-‘मैं सब जानती हूँ तेरी बातें। मैं भगवती को धोखा नहीं दे सकती। तूने मेरे बाप की सारी जायदाद हड़प ली। उनका पता नहीं कहाँ चले गए। एक इज्जतदार आदमी को तूने कहीं का नहीं छोड़ा। बुरी तरह बर्बाद कर दिया। बस अब तो तू मेरे सामने से हट जा और कहीं तूने अपनी जबान खोली तो समझ लेना।’

महेन्द्रनाथ ने सोचा-‘पिस्तौल दिखाकर रुतवा बुलन्द कर लूं। शायद इसकी वजह से कुछ डर इसके मन में समा जाए।’

यह सोचकर महेन्द्रनाथ ने अपनी कमर में छिपी पिस्तौल निकाली।

यह देखकर सुनीता ने भगवती की पिस्तौल तकिये के नीचे से उठाकर तान ली। सुनीता का साहस देखकर वह डर गया। उसने अपनी पिस्तौल यथास्थान रख ली। उसने सोचा-‘मैं पिस्तौल रख लूंगा तो सुनीता भी अपनी पिस्तौल रख लेगी। लड़ाई बढ़ाने में फायदा नहीं है।’

सुनीता ने ऐसा नहीं किया। उसने सोचा-‘महेन्द्रनाथ डर गया है। यह अच्छा अवसर हाथ लगा है।’

सुनीता ने पिस्तौल ताने रखी। महेन्द्रनाथ को सुनीता का इरादा साफ हो गया। वह सुनीता की पिस्तौल पर झपटा। दोनों में पिस्तौल के लिए गुथमगुथ होने लगी। सुनीता ने पिस्तौल नहीं छोड़ी। इसी क्रम में सुनीता के हाथ से ट्रिगर दब गया। पिस्तौल ने गोली उगली ‘भड़ाम‘ कमरे में झांईं बोल गई मानो दो फायर हुए हों। महेन्द्रनाथ के सीने में गोली लगी।

महेन्द्रनाथ यह कहते हुए वहीं ढेर हो गया।

‘सुनीता............तुमने मुझे मार डाला। लेकिन सुनीता ............अब भी तुम ............चैन से नहीं ............रह पाओगी।’

यह कहते हुए वह मर गया।

सुनीता का मस्तिश्क जल्दी-जल्दी काम करने लगा। वह रणचण्डी की तरह दिख रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी अब वह क्या करे ? क्या न करे ? कहाँ जाए ? यह सब कैसे हो गया ?

‘मैं इसे मारना नहीं चाहती थी। मैं तो इतनी दूर भागकर आई थी। वह यहीं पर मरने चला आया। अब क्या करुं ? खबर फैली कि पुलिस आई। हथकड़ी............मुकदमा ............फांसी............।’

सोचकर कांप गई। बड़ी देर तक स्थिति का अध्ययन करती रही। उसने खिड़की से बाहर झांका। रास्ता अभी बन्द था। भयंकर लू चल रही थी। सामने के दरवाजे को अच्छी तरह बन्द किया। खिड़की बन्द की।

अब उसने चौक की ओर का दरवाजा खोलकर देखा। पीछे आंगन का दरवाजा खुला पड़ा ही था। वह बाहर चली गई। पीछे के दरवाजे की देहरी पर खड़े होकर उसने बाहर देखा। कहीं कोई नहीं दिखा। पास ही दिख रहा था उसके पखाने का गटर।

मारकर गटर में डालने के किस्से उसने ग्वालियर में खूब सुन रखे थे। वह गटर के पास पहुँच गई। उसमें जाने कहाँ से इतनी ताकत आ गई। उसने ताकत लगाकर गटर का ढक्कन खोल डाला। वह तुरन्त अन्दर दाखिल हुई। महेन्द्रनाथ की टांग को पकड़कर खींचने लगी। चौक में ले आई। पूरी ताकत लगाकर बाहर ले आई। उसे गटर में डाल दिया। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। कोई देख तो नहीं रहा है। अब उसने गटर के ढक्कन को बन्द किया।

जल्दी से जाकर पानी से भरी बाल्टी और झाड़ू उठा लाई। बाहर के खून के धब्बों को मिटाने लगी। दरवाजे तक अ बवह पूरी तरह सफाई कर चुकी थी।

उसने निश्चिन्त हो पीछे का दरवाजा आहिस्ते से बन्द किया। चटकनी लगाई और अन्दर कमरे और चौक के खून को धोने लगी। एक घण्टे भर के परिश्रम के बाद वह कमरे और चौक को साफ कर पाई। अब उसने आवश्यक कपड़े बाथरुम में डाल दिए। सभी कपड़े ध्यान से साफ किए। कहीं किसी पर कोई खून का धब्बा न रह जाए।

सारे काम से निवृत होकर उसने पुनः एक बार सारे घर का निरीक्षण किया। कहीं कोई अवशेष तो नहीं रह गया है। अपनी पिस्तौल साफ करके यथास्थान रख दी। अ बवह निश्चिन्त होकर अपने बिस्तर पर आ बैठी। सोचने लगी-

‘पता नहीं जीवन में क्या लिखाकर लाई हूँ। सारी जिन्दगी जलती रही। अब जाने क्या होगा ? इसे मारना ही होता तो इस तरह कभी का मार डालती और फांसी पर झूल गई होती। अब किसे पता है? मैं कहूँगी तब ..........। याद आया मुसलमान लोग मुर्दे को दफनाते समय नमक डाल देते हैं जिससे ............।’

यह सोचकर वह उठी। घर में जितना नमक था। सब का सब एक बाल्टी में डाला और पानी में घोलने लगी। उसे पखाने में डाल आई। कुछ टुकड़े जो बिना घुले थे ऊपर पोट में रह गए तो वह घबड़ा गई। भगवती आता होगा। वह अब बाथरुम से और पानी ले आई और पखाने में डाल दिया। टंकी का सारा पानी उड़ेल दिया तब वे नमक के डेले बरतन से अन्दर जा पाएँ।

वह नुपः अपने सोने के कमरे में आ गई। सोचने लगी-‘मेरे पिताजी के कोई लड़का नहीं था जो बाप का बदला चुकता। मैं ही उनकी लड़का हूँ। अपने पिता पर हुए अत्याचारों का बदला ले लिया। मैंने क्या बदला लिया है वह तो यहाँ स्वयं मरने चला आया।’

कुछ क्षणों के लिए सोचना रुका फिर सोचने का क्रम चल पड़ा-‘मैं अभी खून के धब्बों को धो रही थी। खून के इन धब्बों को कोई भी धो पाया है या मैं ही धो रही थी। हे भगवान ये क्या हो रहा है?

एक ओर तीर्थों की तैयारी, दूसरी ओर यह पाप। हत्या। एक नारी द्वारा एक पुरुष की निर्मम हत्या। मारकर गटर में फेंक दिया। खून के धब्बे धो डाले। अब चैन की श्वास ले रही हूँ। अनुभव कर रही हूँ चैन से रहूँगी। खून करके कोई भी चैन से रहा है जो मैं रहूँगी।’

उसका सोचना बन्द हो गया। वह याद करने लगी कैसी गोली चली ? किस तरह उसके तड़पते जिस्म से खून के फुव्वारे फूट रहे थे। कैसे तड़प रहा था वह। उसने भी तो मुझे सारी जिन्दगी इसी तरह तड़पाया है। अब किसी केा हवा भी नहीं लगेगी कहाँ गया वह। पर कोई देखने वाला तो है जो संसार को चलाता है। मुझे इस पाप का दण्ड यहाँ चाहे न मिले, पर कहीं तो जरुर मिलेगा। दूसरे मन में कहा-अरे हट री कहीं कोई नहीं है। एक यही कांटा था जिन्दगी भर से चुभ रहा था। वह अपने आप निकल गया। मेरे हाथ से ही उसका क्रियाकर्म लिखा होगा। सुसरे का पाप उसे ही खा गया।

शाम के साढ़े पांच बज गए। अच्छा हुआ आज वो देर से आएंगे। तब तक मुझे साहस बटोरने का मौका मिल गया। तीर्थ से लौटने के बाद भगवती को साफ-साफ बता दूँगी। अभी उससे कुछ भी कहना ठीक नहीं है।’ किसी ने ठीक ही कहा है-

‘नारी फूल से भी अधिक कोमल और वज्र से भी अधिक कठोर होती है।’

दरवाजे आहट हुई। सुनीता ने दरवाजा खोला। मुस्कराते हुए भगवती ने अन्दर प्रवेश किया। कमरा धुला हुआ था। इधर-उधर नजर दौड़ाई चौक भी धोया गया था। चौक सूख चुका था। कमरे में धुलने के अवशेष मौजूद थे। बोला-‘देखा भारतीय नारी की विशेषता, घर से तीर्थयात्रा पर जा रही है पर घर की इतनी चिन्ता। घर साफ-सुथरा करके, हर काम से निवृत होकर।’

उसकी निगाह अब सूखते हुए वस्त्रों पर थी। यह देखकर वह बोला-‘आज क्या सोई नहीं हो ? सारी दोपहरी यह क्या करती रहीं ?’

सुनीता कुछ नहीं बोली। चाय बनाने रसोईघर में चली गई। चाय ले आई। चय पीते हुए भगवती बोला-‘तुम्हारे हाथ की चाय अब जाने कितने दिनों बाद नसीब होगी।’

सुनीता ने इस बात का उत्तर मुस्कराकर देना चाहा पर बड़ी मुश्किल से थोड़ा सा मुस्कराने का अभिनय कर पाई। वह फिर गम्भीर हो गई।