ek aur damayanti - 9 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एक और दमयन्ती - 9

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एक और दमयन्ती - 9

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 9

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

नौ

आज का युग वैज्ञानिक युग है। विज्ञान ने जितनी प्रगति की है उतनी ही मानवीय संवेदनाओं ने अवनति। जिस प्रकार शब्द और भाषाए व्याकरण विहीन हो गए हैं। उसी प्रकार सारे रिश्ते-नाते दिशाहीन हो गए हैं।

प्यार-दुलार, भ्रातृत्व सभी स्वार्थों की गन्ध आने लगी है। आदमी आदमी का जीवन शोषण इस तरह कर रहा है। जिस तरह बट वृक्ष अपने नीचे किसी भी पौधे को पनपने नहीं देता।

एक दिन भगवती अपने काम पर जाते समय कह गया-

‘सुनीता पड़ोस की माताजी बाजार जा रही हैं। तुम भी बाजार जाने की कह रही थी, उन्हीं के साथ चली जाना। मुझे आज काम है। फैक्ट्री से दरे से आ पाऊंगा।’

सुनीता पड़ोसिन चाची के साथ बाजार जाने के लिए तैयार हो गई। रास्ते में सुनीता चाची जी से बोली-

‘चाची जी उधर से लौटते समय तो साथ में सामान होगा। इधर से विरला मन्दिर के दर्शन करते हुए चलते तो ठीक रहता।’

चाची जी तैयार हो गई। दोनों लिंग रोड़ नम्बर 3 के बंगले के पास उतर पड़ीं। थोड़ा आगे बढ़ने के बाद सीढ़ियों पर चढ़ने लगीं। सीढ़ियों से ऊपर पहाड़ी पर पहुँचने में चाची जी हाफ गई थीं।

अब सामने दिख रहा था विश्णु मन्दिर, ‘लोग तो उसे विरला मन्दिर कहते हैं। सेठ विरला इन मन्दिरों को गरीबों के पैसे से ही बनवाते रहते हैं। गरीब लोग इन मन्दिरों में आकर पूंजीवाद के चरणों में श्रद्धा-भक्ति से शान्ति महसूस करते हैं।

विरला जी का नाम बढ़ रहा है। एक जमाना आएगा, जब विरजा जी भगवान माने जाएंगे। आखिर मन्दिर का नाम तो भगवान के ही नाम से होगा। यह तथ्य भगवान होने का प्रमाणी करण देगा।’

सुनीता कुछ विचारों में खोई हुई थी। चाची जी की कोई पुरानी पड़ोसिन मिल गई तो वे उनसे बातें करने लगी।

सुनीता ने सोचा-

‘चाची इनसे बातें कर रही है। तब तक मैं प्रसाद खरीद लूं।’

यह सोचकर वह आगे दुकानों की ओर चली गई। वह एक दुकान से प्रसाद ले रही थी। उसी समय एक आदमी उसके पास आकर खड़ा हो गया। बोला-

‘हलो सुनीता।’

सुनीता इस परिचित आवाज को सुनकर कांप गई-

‘यह मैनेजर प्रकाश कहाँ से आ टपका।’

मैनेजर प्रकाश बोला-

‘भई सुनीता, तुम्हारे महेन्द्रनाथ भी तो यहाँ आए हैं। मुझसे यहीं मिलने का वादा किया है।’

‘अच्छा !’ उसने साहस करके प्रश्न किया।’

‘हाँऽऽ भई, मैंने तो बहुत समझाया कि अब तुम्हें उन दोनों के बीच में नहीं जाना चाहिए पर वह ठीक आदमी नहीं लगा। आज हम तुम्हारे घर भी आने वाले थे। अच्छा हुआ तुम यहीं मिल गईं।’

‘अब वह वह क्या चाहता है?’

‘सुनीता यह मुझे मालूम नहीं है। मैं तो दोनों को शुभ कामना देने ............।’

सुनीता बोली-

‘आपकी तो मेहरबानी है।’

इतने में प्रकाश बोला-

‘मेरा इस आदमी पर विश्वास नहीं है, उसने तुम्हारा घर भी देख लिया है, यह अच्छा नहीं हुआ।’

यह सुनकर सुनीता सोचने लगी-

‘काश! ये घर आते तो पिस्तौल का डर दिखाकर इन्हें भगा देती।’ यही सोच पाई कि चाची जी आ गईं। बोली-

‘चलो सुनीता, मैं तुम्हें उधर देख रही थी। तुम यहॉं खडी हो। अभी अपने को एक रिश्तेदार के यहॉं भी चलना हैं। वे जो हमारी पुरानी पड़ोसिन हैं उनके बगल में ही रहते हैं। वे खड़ी हैं, साथ लेकर जाएंगी।’

‘चाची जी वहाँ तो फिर बड़ी देर लगेगी।’

‘बहुत दिन में मिलने जा रही हूँ देर-अवेर तो हो ही जाती है।’

‘तो फिर आप ही चली जाओ मैं भगवान के दर्शन करके वापस लौट जाती हूँ।

‘ठीक है, मैं चली जाती हूँ हमारी बहू से कह देना शायद आज न लौट पाऊं तो चिन्ता न करें।’

यह कहते हुए वे अपनी पुरानी पड़ोसिन के साथ मन्दिर में दर्शन करने चली गईं। सुनीता ने सोचा यह ठीक रहा, महेन्द्रनाथ से निपटने के लिए फुर्सत मिल गई। मैनेजर प्रकाश बोला-

‘कहो सुनीता कैसी कट रही है? आज हम लोगों को होटल की जमीन के बारे में मिनिस्टर साहब से मिलना था। उन्हीं का पता लगाने चले गए हैं। आते ही होंगे।’

यही कह पाया था कि एक टैक्सी आकर रुकी। उसमें से महेन्द्रनाथ उतरा और इन दोनों के सामने आ खड़ा हुआ। और सुनीता से बोला-

‘‘आज तुम्हारी बहुत याद आ रही थी। तुम यहीं मिल गईं। देखा हमारे प्यार में कितनी शक्ति है, जो तुम्हें यहाँ तक खींच लाया। बोलो क्या कहोगी इसे ?’

सुनीता इन फिजूल की बातों में उलझना नहीं चाहती थी। महेन्द्रनाथ समझ गया सुनीता उसकी बातों की अनसुनी कर रही है पर कुछ बोला नहीं। जब सुनीता भी कुछ नहीं बोली तो महेन्द्रनाथ ही बोला-

‘अरे तुम तो मेरी आत्मा की आवाज की अनसुनी कर रही हो। कुछ बोलोगी नहीं।’

सुनीता ने महेन्द्रनाथ की ‘आत्मा की आवाज’ को अपनी दाड़ों के बीच दबाकर चकनाचूर कर दिया। वह सोचने लगी-

‘इस बदमाश ने भगवती से कुछ भी कहा तो मैं इसकी जान ले लूंगी। आज अच्छा हुआ यह यहीं मिल गया।’

सुनीता को चुपचाप देखकर प्रकाश बोला-

‘चुप खड़े रहना खलने लगा है। चलो भगवान के दर्शन कर लिए जाएं।’

यह सुनकर तीनों दर्शन के लिए चल पड़े। मन्दिर में भीड़ अधिक थी। सुनीता चाहती तो गायब हो सकती थी पर उसने इन्हें यहीं से टालना चाहा तथा घर न आने की चेतावनी भी देना थी। यह सोचते हुए वह दर्शन करके मन्दिर के बाहर आ गई। महेन्द्रनाथ मन्दिर से बाहर निकलते हुए बोला-

‘सुनीता तुमने तो भगवान से सदा सौभाग्यवती रहने का वरदान मांगा होगा।’

सुनीता झट से बोली-

‘नहीं तो ..........।’

‘फिर तुमने भगवान से क्या मांगा ?’

‘तुम्हारी मौत।’

‘मेरी मौत ! पर क्या मिलेगा तुम्हें मुझे मारकर ?’

‘तुम ही कह दो कि क्या नहीं मिलेगा ?’

महेन्द्रनाथ व प्रकाश समझ गए कि सुनीता लड़ने को तैयार है। महेन्द्रनाथ उससे उलझना नहीं चाहता था। सुनीता के इस प्रश्न का महेन्द्रनाथ ने कोई जवाब नहीं दिया। अब तीनों गार्डन में आ गए थे। एक बैंच खाली पड़ी थी। तीनों उसी ओर बढ़ गए । सुनीता बैंच के एक तरफ बैठ गई। प्रकाश बैठ गया। महेन्द्रनाथ बीच में बैठ गया।

सुनीता गुस्से में बोली -

‘कहिए श्रीमान, मेरे घर आकर मेरे लिए क्या उपहार लाना चाहते थे ?’

महेन्द्रनाथ बोला -

‘बस यों ही मिलने।’

‘तो मैं यहीं मिल गई। कहिए आपकी क्या सेवा की जाए ?’

‘तुम्हारा इस तरह व्यंगात्मक बोलना मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है।ं’

‘तो आपको मेरी कौन-सी अदाएं पसन्द हैं ?’

महेन्द्रनाथ क्रोध जतलाते हुए बोला -

‘सुनीता जरा ढ़ंग से बात करो अन्यथा ............।’

‘अन्यथा क्या करेंगे। मार ड़ालेंगे, मार डालो।’

‘रानी तुम्हें मारकर हम कैसे जिएंगे ? मारना ही होगा तो तुम्हारे भगवती को ............।’

‘अरे छोड़ो इन बातों को महेन्द्रनाथ, भगवती का सामना करने का साहस तुममें नहीं है। भगवती से कुछ कहने की धोंस देता हो तो जा कह दे।’

‘नहीं सुनीता हमें इतना नीच न समझो। हम उनसे कभी कुछ नहीं कहेंगे। हाँ, कभी-कभार हमारा भी मन रख दिया करो।’

‘मैं अब तुम्हारी रखैल नहीं। भगवती की पत्नी हूँ। मैं उसे कभी धोखा नहीं दे सकती, समझे ?’

‘तुम्हें भी तो उसने धोखा दिया था। तुम उससे बदला लेना चाहो तो हम तुम्हारा साथ दे सकते हैं ?’

‘तुझे यह कहते शर्म नहीं आती। मैंने तो हर कदम पर धोखा ही धोखा खाया है। जिस पर पूरा विश्वास किया। उसने भी धोखा ही दिया है। तुम कौन कम धोखेबाज हो। अब तो मेरे लिए, भगवती के सिवाय कोई नहीं है।’

‘अब इतनी जान दिये दे रही हो उस पर ! ’

‘आखिर मेरे पति हैं। मैं उनकी भावनाओं को समझ गई हूँ। वे भी समझ गए हैं।’

‘बहुत खूब ! बहुत खूब ! सुनीता तुम वास्तव में बहुत चतुर हो।’

‘तुम क्या समझते हो, वह कुछ समझा नहीं है। मैं उसे अच्छी तरह जान गई हूँ।’

यह कहकर वह उठने को हुई। महेन्द्रनाथ बोला-

‘सुनीता यहाँ आए थे, यहाँ आकर खर्च अखिक हो गया। आज वापिस जाना है। किराये के लिए कुछ पड़े हों तो दे दो।’

‘हे भगवान ! इतनी सुनाने पर तो और सा होता तो अत्महत्या ही कर लेता। मैनेजर साहब, आप इनका टिकट कटा देना। प्लीज मेरी खातिर।’

सुनीता यह कहकर आगे बढ़ गई। वे भी बैंच से उठ गए। महेन्द्रनाथ बोला-

‘सुनीता इस तरह की बातें बहुत महंगी पड़़ेंगी।’

सुनीता यह सुनते हुए अब तक दूर निकल गई थी। उत्तर देना आवश्यक न रह गया था। कदम लड़खड़ा रहे थे। उन दोनों की निगाह बचाकर मन्दिर में भगवान के सामने जा खड़ी हुई।’

‘हे भगवान मुझे शक्ति दे जिससे मैं अपना पथ सुपथ कर सकूं। आदमी भटकाव में भटकने के बाद जब सुपथ से चलने लगता है। उसे एक नया आत्मविश्वास अनायास पैदा हो जाता है जो लक्ष्य तक पहुँचा के रहता है। मार्ग में कई पड़ाव आते हैं। पड़ाव से ज बवह अपने भूतकाल को देखता है तो उसे अपना जीवन बड़ा घिनोना दिखता है। वहाँ उसे अपने कृत्यों पर क्रोध भी आता है।

एक समय था जब मेरी दृष्टि ऐशोआराम से जीवन व्यतीत करने की थी। धर्म, कर्म, पाप और पुण्य कुछ भी नहीं मानती थी। जिस दिन से बारात लौटी थी ईश्वर से मेरा विश्वास ही उठ गया था।

महेन्द्रनाथ मेरे घर में आने लगा था। उसकी मीठी-मीठी बातों में फंस गई। यह उसी बात का फल मिल रहा है कि वह शोषण कर रहा है। मुझे अब भी बाजारु बना के रखना चाह रहा है। चाहे जो हो, मैं पीछे नहीं मुड़ूंगी। अरे कितनी देर हो गई। वो घर आ गए होंगे तो क्या कहेंगे ?’

यह सोचते हुए वह घर के लिए चल पड़ी। सड़क पर आ गई। सिटीबस का इन्तजार करने लगी।

थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद सिटीबस आ गई। वह उसमें चढ़ने लगी तो पैर फिसल गया होता। गिरते-गिरते बची। परिचालक ने न संभाला होता तो गिर ही जाती। वह अपने को बहुत कमजोर महसूस कर रही थी। उसने सीट के सामने वाले डण्डे पर अपना सिर टिका लिया। बस घूमने लगी। सारी दृष्टि चक्कर खाने लगी। उसने सामने वाले डण्डे को दोनों हाथों से भींच लिया। बड़ी देर में होश आया। पड़ोस में बैठी एक लड़की बोली-

‘बहन जी क्या तबियत ठीक नहीं है?’

‘हाँ, बहन।’

‘तब आप यहाँ आराम से बैठ जाइए। मैं सरक जाती हूँ।’

यह कहकर वह थोड़ा खिसक गई पर सुनीता के उतरने की जगह आ गई थी। वह बोली-

‘तुम बैठो, मुझे यहीं उतरना है।’

यह कहकर बस से उतरकर आई। संभल-संभलकर कदम रखते हुए घर पहुँची। यह अच्छा रहा, भगवती घर न आया था। वह उसके आने से पहले पूर्ण स्वस्थ होना चाहती थी। जिससे भगवती आकर उसके स्वास्थ्य के बारे में कुछ न पूछ बैठे।