उपन्यास-
एक और दमयन्ती 8
रामगोपाल भावुक
रचना काल-1968 ई0
संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा
भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0
पिन. 475110
मोबा. 09425715707
एक और दमयन्ती ही क्यों?
राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।
इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-
आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ
कहें कहानी।
हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की
एक कहानी।
सुनो महालक्ष्मी रानी ।।
इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।
पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।
रामगोपाल भावुक
आठ
सुनीता का घर धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यों के लिए केन्द्र बन गया था। परिवार के एक कार्यकर्ता मथुरा से आए हुए थे। उनके प्रवचनों का कार्यक्रम था।
रात्रि के आठ बजे कार्यक्रम शुरु हो गया। गायत्री परिवार के सभी परिजनों ने कार्यक्रम में भाग लिया। भीड़ बहुत थी। सुनीता कार्य का संचालन कर रही थी। महेन्द्रनाथ भी एक मित्र के साथ कार्यक्रम में आया हुआ था। जैसे ही उसने सुनीता को देखा तो पहचानने में देर न हुई । पास बैठे अपने मित्र से उसने पूछा-‘यह कौन है?’
उसने उत्तर दिया-‘ये हमारे कार्यक्रमों की संचालिका हैं। भई मिशन की पक्की सदस्या है। बड़े ही सात्वकी विचारों की है।’
‘क्या नाम है इनका ?’
‘इन्हें सुनीता जी कहते हैं ?’
‘सुनीता जी कहते हैं । अरे वाह ! कहाँ से कहाँ पहुँच गई। इसा रुप् में देखकर मैं तो धेखा ही खा गया। इन्हें तो बोलना नहीं आता था। इसीलिए तो मुझे पहचानने में सन्देह हो गया।’ महेन्द्रनाथ यह बात मन में ही सोचकर रह गया।
रात्रिके दस बज गए। रात का सन्नाटा बढ़ने लगा। चांद अपनी चांदनी बिखेर रहा था। रात मौन रहने के लिए इशारा कर रही थी। महेन्द्रनाथ उठा। पास बैठे मित्र ने रोकना चाहा-‘कहाँ चले ?’
महेन्द्रनाथ बोला-‘जरा बाथरुम जा रहा हूँ।’
यह कहते हुए वह चला गया। वह सुनीता से मिलना चाहता था। उसने कमरे के अन्दर झांका। दो-तीन व्यक्ति अन्दर कार्यक्रम के बारे में चर्चा कर रहे थे। अब वह ऐसे स्थान पर खड़ा हो गया। जहाँ सुनीता से मुलाकात हो सके। वह सुनीता की प्रतीक्षा करने लगा। सुनीता निकलकर आई।
महेन्द्रनाथ की आवाज उसके कानों में सुन पड़ी-‘सुनीता।’
यह आवाज सुनकर वह कांप गई। कदम लड़खड़ा गए। महेन्द्रनाथ बोला-
‘मुझसे इतनी दूर भागकर आई हो। कहो चैन से तो हो ना।’
‘यह चैन आप जैसे लोग रहने देंगे तब ?’
‘तुमने यहाँ अपना खूब सिक्का जमाया है। छा गई हो। अब तो धर्म की आड़ में आकर खड़ी हो गई हो। एकाध पत्र ही डाल दिया होता। वो तो कार्यकम में दिख गईं अन्यथा पता भी न चलता। मैं जिनके यहाँ आकर ठहरता हूँ। वे यहाँ आ रहे थे। वे जबरदस्ती मुझे यहाँ ले आए। मुझे क्या पता था तुम यहाँ हो।’
‘मैं तुम्हारी वजह से ही वहाँ से भागी हूँ। आप भगवती को जानते हैं। तुमने मुझे बर्बाद कर रखा था, अब क्या चाहते हो ?’
‘मैं चाहता हूँ सुनीताऽऽऽ कुछ कड़की चल रही है। मैं तुम्हारा जीवन उजाड़ना नहीं चाहता। लेकिन तुम्हें भी हमारा ध्यान रखना चाहिए।’
यह सुनकर सुनीता को गुस्सा आ गया, पर धीमी आवाज में ही बोली-‘तुम्हें शर्म नहीं आती महेन्द्रनाथ। अभी भी मेरा खून पीना चाहते हो। अच्छा यही है तुम यहाँ से चले जाओ।’
‘मैं कब पी रहा हूँ तुम्हारा खून। मैं तो चन्द कागज के टुकड़ों की याचना करने चला आया। उधार मांग रहा हूँ।’
सुनीता ने उसे टालना चाहाँ बोली-‘मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।’
‘आपके भगवती पर होंगे उनसे मांगकर देखूं।’
यह सुनकर वह घबरा गई, उसे टालने की दृष्टि से बोली-‘मैं देखती हूँ, कुछ होंगे तो ............।’
कहकर अन्दर चली गई। कुछ ही क्षणों में सुनीता ने एक सौ का नोट महेन्द्रनाथ के हाथ पर रख दिया।
महेन्द्रनाथ को वह सौ का नोट लेने में भी संकोच न लगा, तब सुनीता को उससे कहना पड़ा-
‘मैं तुमसे भीख मांगती हूँ। अब तुम यहाँ कभी न आना।’
सुनीता की याचना भरी बातें सुनते हुए महेन्द्रनाथ बाहर निकल गया।
कार्यक्रम समाप्त हो गया। लोग चले गए। सुनीता सोचने लगी-
‘क्यों न मैं अपनी सारी बात भगवती को बतला दूँ। नहीं-नहीं, ये पुरुष हैं सभी ऐसे ही होते हैं। इनके लिए कितना ही मिटें। ये सब एक से होते हैं। जब अपनी पर आते हैं किसी का बिलकुल नहीं सोचते। यदि इन्हें यह पता चल गया कि ये वही है जिसे शादी के बाद छोड़कर चले आए थे। मेरे कहने पर, क्या निर्णय ले बैठें। ये सब बातें बतलाकर क्यों झंझट में पड़ूं।’
यह सोचकर कुछ न कह सकी।
सोने से पहले सुनीता ने अपने कमरे की तलाशी लेना शुरु कर दी।
भगवती पूंछ बैठा-‘क्या ढूंढ रही हो सुनीता ?’
वह झट से बोली- ‘मेरे पास जो सौ का नोट था ना। जाने कहाँ चला गया। कहीं कार्यक्रम में किसी ने पर्स से तो नहीं मार दिया। मैं तो सभी जगह ढूंढ चुकी।’
‘तुम तो भावुकता में इतनी बह जाती हो, फिर अपनी भी चिन्ता नहीं करती हो। जाने किसने निकाल लिये होंगे। लोग तो धर्म की ओट में भी चोट कर जाते हैं।’
यह सुनकर सुनीता चुपचाप अपने बिस्तरे पर आकर लेट गई थी।
भगवती जल्दी ही सो गया। सुनीता की नींद गायब थी। जब से सुनीता भोपाल आई थी। तब से किसी प्रकार की कोई चिन्ता न थी। एक लम्बे समय बाद यह अवसर पुनः आ खड़ा था। वह सोचने लगी- इस संकट से तो‘आत्महत्या कर लूं तभी इन झंझटों से मुक्ति मिल सकेगी। या फिर इस महेन्द्रनाथ की हत्या ही मुझे करना पड़ेगी। यही भी हो सकता है मैं और भगवत यहाँ से कहीं दूर चले जाए। सम्भव है जमा-जमाया काम छोड़कर भगवती छोड़ने को तैयार न हो।
इसका मतलब तो यह हुआ कि इसका यहीं से मुकाबला करना चाहिए। अब तो जो होगा, यही देखूंगी। अधिक से अधिक भगवती छोड़ ही तो देगा। अब मैं इस महेन्द्रनाथ को छोड़ने वाली नहीं हूँ।’
सोचते-सोचते जाने कब नींद लग गई।
सुबह उठने में देर हो गई। भगवती काम पर जाने की तैयारी करने लगा। सुनीता निवृत होकर जल्दी-जल्दी खाना बनाने में लग गई थी।
इस घटना के बाद सुनीता हर क्षण संक के आ टपकने की आशंका में रहने लगी। संकट का सामना करने के लिए मनोबल एकत्रित करती रहती। वह सोचती-‘जब वह आएगा राज खोल देगा। मैं सफाई प्रस्तुत कर दूँगी। अकेले में आया तो दो-दो बातें करुंगी। वह अपने को क्या समझता है? उस दिन तो भीड़-भाड़ थी। मैं उलझना नहीं चाहती थी।’
जिस दिन से सौ रुपये का नोट चोरी वाली घटना हुई थी। भगवती अनुभव करता, सुनीता खोई-खोई रहती है। एक दिन यही सोचकर भगवती ने पूछा-‘सुनीता तुम डरी-डरी सी रहती हो। अरे मेरी ये पिस्तौल किस काम की है साले डर को उड़ा देना।’
‘आपके रहते डर।’ कहकर चुप रह गई थी।
‘पिस्तौल की बात सुनकर सुनीता का मनोबल बढ़ गया। अब वह संकट से जूझने की म नही मन पूरी तैयारी में रहने लगी।