ek aur damayanti - 7 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एक और दमयन्ती - 7

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एक और दमयन्ती - 7

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 7

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

सात

मानव समाज में एक कहावत प्रचलित है कि प्रकृति ने प्राणी को चोंच दी है तो चुन देगा ही। इस सिद्धान्त में मानव अपना श्रम और मिला दे तो सोने में सुगन्ध का काम करेगी। इसी विश्वास में सोचते हुए आठ-दस दिन लगातार चक्कर काटने के बाद भगवती को हेवी इलेक्ट्रीकल कारखाने में मजदूरी का काम मिल गया।

काम पर जाना शुरु हो गया। धीरे-धीरे प्रयास करके उसने कारखाने के परिक्षेत्र में एक क्वार्टर स्वीकृत करा लिया। वह उसी में रहने के लिए पहुँच गया। कुछ ही दिनों में रहने की ठीक व्यवस्था हो गई।

सुनीता घर के काम में व्यस्त रहने लगी। सुबह से ही खाना बनाने में लग जाती। खाने में देर हुई, वह खाना छोड़कर काम पर निकल जाएगा। आज भी भगवती रोज की तरह अपने दैनिक काम से निवृत होकर भोजन करने बैठ गया। सुनीता ने खाना परोस दिया। भगवती बोला-‘सुनीता यह अच्छा नहीं लगता, मैं अकेला भोजन करता हूँ। मैं चाहता हूँ हम शाम की तरह इस वक्त भी साथ-साथ भोजन करें।’

सुनीता बोली-‘आप बातों में समय बर्बाद न करें। भोजन कर लें अन्यथा देर हो गई तो आज की गैर-हाजिरी लग जाएगी।’ यह सुनकर वह भोजन करने लगा।

भगवती जब काम पर निकल जाता। सुनीता घर पर काम से निवृत होती। इसके बाद सारे दिन बिस्तरे पर पड़े-पड़े पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी। कुछ दिनों से उसने धार्मिक पुस्तकें पढ़ना शुरु कर दिया था।

कारखाने के परिक्षेत्र में अलग-अलग कॉलोनियां बनी हुई हैं। मजदूरों की कॉलोनी अलग बनी है। एक पंक्ति में सभी क्वार्टर बने हैं। सभी में सब सुविधाएं उपलब्ध हैं।

सारी व्यवस्था कारखाने की योजना के अन्तर्गत की गई है। प्रकाश की इतनी अच्छी व्यवस्था है कि रात्रि के समय सड़क पर मनोरम दृश्य उपस्थित हो जाता है।

सुनीता के नेक व्यवहार ने पड़ोसियों के दिल जीत लिये। मोहल्ले भर के बच्चों की आण्टी बन गई। सभी में सुनीता इज्जत की दृष्टि से देखी जाती थी। कोई घर ऐसा न था जिसमें सुनीता के सद्व्यवहार की चर्चा न होती हो।

भगवती ऐसी पत्नी को पाकर अपने को खुशनसीब समझ रहा था। अब सुनीता का झुकाव धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की ओर होने लगा। एक दिन वह भगवती से बोली-‘इस जन्म में जो किया होगा उसका फल इसी जीवन में भोगना पड़ रहा है।’

बात सुनकर भगवती बोला- मुझे भी तो इसी जन्म का, इस जन्म में ही सब कुछ देखने को मिल रहा है। मैं पहले किसी भगवान पर विश्वास नहीं करता था, पर महसूस कर रहा हूँ दुनिया में कोई शक्ति है जिसके इशारे पर सारा संसार अपना कार्य कर रहा है।’

इस विचार-विमर्श के बाद दोनों ने एक मिशन युगनिर्माण योजना, जो फैक्ट्री एरिया में तेजी से अपना प्रभाव फैलाता जा रहा था, में जाना प्रारम्भ कर दिया। सुनीता का स्वप्न साकार हो गया। वह एक दिन आदर्श गृहणी बन गई थी। धीरे-धीरे सुनीता पूरे क्षेत्र में लोकप्रिय होती जा रही थी।

नारी संसार की एक पवित्र ज्योति है। उसमें अटूट साहस होता है। त्याग करने की शक्ति होती है। तभी तो वह घोर पतन के बाद भी उन्नति की सीढ़ियों पर चढ़ती नजर आती है।

ये समाज किसी भी नारी को पथ विचलित कर देता है फिर भी नारी अपने त्याग और आत्मा के बल से अपना पथ सुपथ बना लेती है। इस कारखाने के क्षेत्र में वैसे तो कई मिशन अपनी सेवाएं अर्पित कर रहे थे पर युगनिर्माण योजना एवं गायत्री परिवार ने सुनीता को अपनी ओर अधिक आकर्शित किया था। कुछ ही दिनों में सुनीता मिशन की कर्मठ सदस्या बन गई थी।

सप्ताह में एक दिन रात्रि के समय उनके यहाँ मिशन का कार्यक्रम रहने लगा था। जिससे सारे सेक्टर के वातावरण में एक नई स्फूर्ति आ जाती है। सारे सेक्टर के लोग कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आने लगे। खूब भीड़ रहने लगी। महिलाओं के लिए भी अलग से कार्यक्रम रहता था। महिलाओं के कार्यक्रम में सुनीता को अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिल जाता।

मानव का वर्तमान चाहे कितना ही सुखद क्यों न हो गया हो। अतीत की स्मृतियां मानस पटल पर आ ही जाती हैं।

छुट्टी के दिन पूरे समय फुर्सत रहती थी। भगवती सारे दिन घर पर ही रहता था। दोपहर खा-पीकर आराम करने का समय रहता था। दोनों आराम करने अपने-अपने बिस्तरों पर लेट जाते। एक दिन सुनीता लेटे ही लेटे पूछ बैठी-

‘एक बात बतलाओगे।’

भगवती झट से बोला-‘सुनीता एक क्या अनेक............? जो पूछोगी बतलाऊंगा।’

उसे क्या पता था कि सुनीता जीवन की स्मृतियों को कुरेद देगी। सुनीता बोली-‘कैसा था अपना बीता हुआ कल ?’

भगवती समझ गया, बात टालते हुए बोला-‘अच्छा तो था। क्या कहिए उस जीवन के बारे में ? जिसने हमें यहाँ लाकर बसा दिया।’

‘मैं यह नहीं कह रही हूँ, मेरा मतलब अपने पिछले जीवन से है।’

‘और तुम्हारा ?’

‘तुम तो मुझसे हमेशा पूछते रहते हो सुनीता अतीत की स्मृतियां सुनाओ और मैं यह कहकर टाल देती हूँ। क्या करोगे भगवती मेरे अतीत को जानकर। काश ! हर नारी का अतीत का राज, राज ही बना रहे। आप यह तो जानते ही हो मैं होटल में नौकरी करती थी।

होटल में नौकरी करने वाली हर नारी कैसी हो सकती है? यह आप क्या सभी जानते हैं, फिर आपको मेरा यह जीवन तो अच्छा लगता है ना। मेरा व्यवहार भी पसन्द है ना। फिर भी आप मेरे अतीत को कुरेदते रहते हैं। अपने बारे में कुछ नहीं कहते। आपने कुछ गलत कार्य भी किए होंगे तो मैं नारी हूँ, आप पुरुष हैं।’ यह कहते हुए सुनीता की आंखों से आंसू छलक पड़े।

यह देख भगवती बोला-‘अच्छा बाबा, मैं तुमसे कभी कुछ न पूछूगा। वैसे भी मन्दिर पर यह वचन भी ले चुकी हो। फिर भी पूंछता हूँ यह गलत है। रहा मेरा, तो मेरे जीवन की लम्बी कहारी है। जिसने मुझे बुरी तरह झकझोर डाला है। मेरा अतीत इतना घिनोना है कि तुम मेरे से घृणा करने लगोगी। इतने दिनों बाद भी उन घटनाओं की मात्र याद करने से पश्चाताप करने लगता हूँ। अपने आपसे घृणा होने लगती है।’

यह कहकर वह एक क्षण के लिए रुका, फिर बोला-‘बहुत दिन हो गए, मैं उन दिनों विद्यालय में पढ़ने जाता था। मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता था। स्कूल में दादागिरी करने में आनन्द आता था। लड़कों पर झूठी बातों के द्वारा अपना प्रभाव जमाना, मुझे अच्छी तरह आने लगा था।

बढ़-चढ़कर झूठ बोलने से मेरी शान दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी। छात्रों के चुनावी माहौल ने मुझे उस ओर आकर्शित किया। मैं छात्र संघ के चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए खड़ा हो गया। मेरा अध्ययन मुझसे कोसों दूर भाग गया।

नकल के सहारे परीक्षाएं उत्तीर्ण करना, मेरा लक्ष्य शेष रह गया था। इस निश्चय के बाद पढ़ने की आवश्यकता न रही और मैं शून्य का शून्य रह गया। मेरे पास कोई कला भी नहीं थी जिससे जीवन चलता। लोग मुझे आवारा समझने लगे।’

सुनीता सोचने लगी थी कि ‘यदि भगवती को यह मालूम होता कि मैं वही हूँ तो ये अपनी कहानी बिलकुल न सुनाते और क्या पता उसे फिर छोड़कर भाग जाता।’

भगवती अपनी कहानी कहे जा रहा था-‘सुनीता तुमने मेरा एलबम देखा है। उसके अन्तिम पृष्ठ पर एक चित्र लगा है। यह एक ऐसी लड़की का चित्र है जो मुझे हकीकत से दूर ले गई। ख्वावों की दुनिया बसा डाली। प्यार का भूत ऐसा चढ़ा कि उसकी खुमारी बहुत दिनों तक बनी रही।

प्यार का अन्त उस समय हुआ जब मैं दहेज के कारण अपनी पत्नी को छोड़ आया। वह भी पिता की बातों में आकर। ऐसे वक्त पर उस लड़की ने भी मुझे ठोकर मारी जिसे मैं अपनी जान से भीज्यादा प्यार करता था। कहने लगी कि‘तुम जैसे आवारा से कौन शादी करेगा ? क्या खिलाएगा तू मुझे। उसकी शादी एक पैसे वाले से हो गई। वह मुझसे बहुत दूर चली गई। इसके बाद मैंने आत्महत्या करने की सोची, पर यह भी नहीं कर पाया।’

सुनीता बोली-‘एक बात छूट गई।’

‘कौन सी बात ?’

‘आपकी पत्नी ............।’

‘सुनीता वह कैसे छूट सकती है? एक वही अभिशाप आज भी चैन से जीने नहीं दे रहा है। जहाँ जाता हूँ पश्चाताप की आग में जलता रहता हूँ। जाने कहाँ होगी वह............?’

सुनीता ने कह दिया-कहीं हो आपको क्या ?’

भगवती विशय पर ही रहा-‘मेरी शादी में बीस हजार रुपये दहेज की मांग की गई थी............‘ वाक्य अधूरा छोड़कर चुप हो गया।

‘अरे चुप क्यों हो गए ?’‘सुना तो रहा हूँ। सुनाने में देर इसलिए हो रही है। मेरी आत्मा मुझे स्वयं जलील कर रही है।’

‘सुनाओगे भी या पहेलियां बुझाते रहोगे।’

‘मेरी बारात बड़े धूमधाम से सजाई गई। टीका हुआ। टीक पर ही लड़की वाले ने कुछ रकम काट ली। बारात लौटने को हो गई तो लोगों ने कहा कि ‘विदाई के समय वह सारा पैसा दे देगा।’ इस आशा पर सभी रुक रहे, शादी हुई। विदाई के समय वे वायदा के अनुसार रुपये नहीं चुका सके।’

‘इसलिए आप उस बेचारी को छोड़कर चले आए। आपका रोम भी न पसीजा। वो बेचारे किस तरह से आप लोगों के सामने गिड़गिड़ाते रहे होंगे।’ सुनीता ने अपनी वेदना कह डाली।

यह सुनकर भगवती बोला-‘मैं तो लौटना नहीं चाहता था पर पिताश्री की आज्ञा को मैं टाल नहीं पाया।’

‘पितृभक्ति इतनी ऊंची चीज थी। उसको नकारना आपको सम्भव नहीं था। अन्यथा समाज इस श्रवण कुमार पर थूकता कि इसने अपने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया। भगवती यह कहो कि तुम्हारे दिल में कोई दूसरी ही बसी थी।’

यह सुनकर पश्चाताप करते हुए बोला-‘कुछ कहो सुनीता, इसलिए तो अब जलता रहता हूँ। कहते हैं बिना सोचे-विचारे काम करने के यही परिणाम होते हैं।’

‘यह मान लेती हूँ आपक पिताश्री के सामने तुम्हारे सोच-विचार की क्षमता नष्ट हो गई थी।’

‘धन के लोभ ने उनके सोचने-विचारने की आंखें बन्द कर दी थीं।’

‘और वे अन्धे हो गए। उन्होंने अपने आज्ञाकारी पुत्र को आदेश दिया कि विवाहित पत्नी को छोड़ दे।’

‘हाँ, यही पाप मुझे सोने नहीं देता। वह बेचारी जाने कहाँ होगी?’

यह बात सुनकर सुनीता ने प्रश्न किया-

‘आपने काश ! उसका पता चलाया होता। कहीं वह आज भी आपकी प्रतीक्षा तो नहीं कर रही है।’

यह सुनकर भगवती ने उत्तर दिया-‘एक बार मैंने पता चलाया था। पता चला था वह किसी के साथ गाँव से भाग गई है।’

यह सुनकर सुनीता बोली-‘आपकी प्रतीक्षा करते-करते थक गई होगी। युवावस्था में वह भी भटक गई होगी। क्या पता भटकाव से लौटकर आज भी आपकी प्रतीक्षा तो नहीं कर रही हो ? तुम उसको ढूंढो, उसके पास चले जाओ। एक बार उससे मिलकर तो देखो।’

‘अब यह कैसे सम्भव है? हम बहुत दूर निकल आए हैं।’

‘मेरी आप चिन्ता न करें। आप उसे ले आएंगे तो मैं उस देवी की नौकरानी बनने में अपना सौभाग्य समझूंगी। उसकी छत्रछाया में जीवन काट दूँगी।’

‘सुनीता, तुम नहीं जानती, वो लोग बड़े घमण्डी किस्म के हैं और जो रास्ते छूट गए उन पर लौटकर जाना सम्भव नहीं लगता। वे लोग भी तो कभी मुझसे मिलने आ सकते थे पर वे कभी नहीं आए।’

सुनीता क्रोध में आते हुए बोली-‘तुम जैसे नीच आदमी के पास उन्हें कभी नहीं आना चाहिए था। सब कुछ लुट गया फिर भी आपका घमण्ड बरकरार है। तुम्हारा क्या भरोसा किस चौराहे पर मुझे भी छोड़ दो।’

‘अरे हट्ट सुनीता। आदमी जीवन में भूल कर तो जाता है पर बार-बार भूल नहीं करता। जो बारम्बार भूल करता है वह आदमी नहीं। मुझे इस घटना ने इतना रुलाया है कि अब कोई भूल नहीं होगी।’

‘देखो तुमने ऐसा किया और मैंने आत्महत्या की। बताओ अब मैं कहाँ जाऊंगी। तुम्हें क्या ? कोई दूसरी मिल जाएगी?’

‘सुनीता अब इस तरह सोचने में भी मुझे डर लगता है।’

‘चलो इतना क्या कम है? कि आप इस तरह की गलती अब नहीं करेंगे। मैं भी कैसी हूँ ? आपकी कहानी सुनने बैठी थी और आपके दोष निकालने लगी।’

कुछ देर तक दोनों चुप बैठे कुछ सोचते रहे।

भगवती ने फिर कहना शुरु किया-‘हाँ तो मेरी कहानी चल रही थी। उस घटना के कुछ ही दिनों बाद पिताजी चल बसे। उनके बाद मांजी स्वर्ग सिधार गईं। एक भाई था वह तालाब में डूब गया। यों वह पाप मेरे पूरे परिवार को निगल गया।

पाप के प्रायश्चित में मैं भी जलने लगा। घमण्ड चूर-चूर होकर मिट्टी में मिल गया। कोई काम-धन्धा न था। धीरे-धीरे जमीन-जायदाद बिक गई। दादागिरी की पुरानी साख का लाभ लेने की सोचकर पुनः वही काम प्रारम्भ कर दिया। गाँव छूट गया। ग्वालियर आ गया। दादागिरी करना मेरा काम हो गया। मेरा स्वास्थ्य अच्छा है ही, सामने वाला देखकर दहशत खाता है।

कुछ दिन पुराने दोस्तों के सहारे गुजरे। चुनाव आ गए। नेताओं को चुनाव में दादाओं की जरुरती होती है। चुनाव से खाने-पीने का काम चलाने के चक्कर में, मैंने एक नेताजी का प्रचार करना शुरु कर दिया। नेताजी से मेल-मुलाकात बढ़ गई। खाना-पीना आराम से चलने लगा। नेताजी चुनाव जीत गए। उन्हाँंेने मेरी नौकरी श्री टॉकीज पर लगवा दी।

यहाँ से मेरे जीवन का सुखद अध्याय शुरु होता है। अब वह फिर मौन रह गया। जैसे कुछ सोच रहा हो।

सुनीता चाय बना लाई थी। भगवती की ओर देखकर बोली-‘आप फिर क्या सोच रहे हैं ?’

‘मैं सुमन की याद में खो गया। एक बार वह श्री टॉकीज में सिनेमा देखने आई थी। टिकिट लेने में मुलाकात हो गई। उसके पति उसके साथ थे। बरसात के दिन थे। बाहर पानी वर्ष रहाथा।

मैं बुकिंग ऑफिस में बैठा बुकिंग करवा रहा था। टिकिट के लिए हाथ खिड़की से अन्दर आया। मैंने पैसे लिये, उसके हाथ की लकीरें दिखीं। अंगुष्ठ के ऊपर का मस्सा दिख गया। वह चिर-परिचित हाथ था। मन में आया हाथ चूम लूं। गुदगुदी हो आई।

दिल की धड़कन बढ़ गई। पास में बुकिंग क्लर्क भी बैठा था। मैं दो टिकटों को बार -बार गिनने लगा। खिड़की के ऊपर झरोखे से देखा, आंखें मिल गईं। मैंने टिकिट और उसके पूरे पैसे हाथ पर रखे दिये। मेरा हाथ उसके हाथ से छू गया। सारे बदन में झनझनाहट फैल गई।

अब मेरे सामने दूसरा हाथ पैसे लिये अन्दर आ गया था। मैंने बुकिंग, बुकिंग क्लर्क को सौंप दी। उठकर बाहर आ गया। वे हॉल में बैठने का प्रयास कर रहे थे। मैं सामने पहुँच गयां उसकी आंखें झुक गईं। उसके पति जानते न थे। मेरा उसके सामने इस तरह पहुँचना उसके पति को खल गया। वह बोला-

‘इसमें हमारी क्या गलती है जी, आपने हमारे पूरे पैसे वापस कर दिए तो हम क्या करें ?’

मैंने कहा-‘पैसे की बात नहीं है।’

‘तो आप क्या चाहते हैं।’

‘ये सुमन जी हमारे गाँव की हैं। हम साथ-साथ खेले हैं।’

‘अच्छा तभी बहिन की दक्षिणा टिकिट के साथ वापिस कर दी।’

‘मैंने सोचा आप लोगों की मेजबानी करुं। आप हैं कि बिगड़ रहे हैं।’

कहते हुए मैंने उन्हें उनकी सीट पर बिठा दिया। मध्यान्तर में मैंने ठण्डा भेज दिया। मैं चाहते हुए उनके पास नहीं गया। जब शो छूटा। वे बाहर निकले। मैं पास पहुँच गया। वे अनदेखा कर गए। मैं समझ गया सुमन ने मेरे बारे में अच्छा परिचय नहीं दिया। अब ये रिक्शे में बैठ गए। मैंने रिक्शे वाले से कहा-

‘इनसे पैसे नहीं लेना, समझे। पैसे मैं दूँगा।’

रिक्शा वाला परिचित था, बोला-‘जी साब।’

अब मैंने उनकी ओर हाथ जोड़ दिए। और कहा-‘अब कब आएंगे।’ आप जब भी आएं मुझे सेवा का अवसर दें।’

श्रीमान जी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और बोले-‘हाँ-हाँ, अब तो हमारे घर की टॉकीज है। अब हम यहाँ का कोई सिनेमा नहीं छोड़ेंगे क्यों जी ं ............।’

यह उसने सुमन को सम्बोधित करते हुए कहाँ सुमन कुछ नहीं बोली। रिक्शा चला गया। मैं उन्हें दूर तक जाते देखता रहा।

घड़ी की ओर देखते हुए सुनीता बोली-‘हाय राम ! आपकी बातें सुनने में कितना समय हो गया, देखना तो।’

भगवती ने भी घड़ी की ओर देखा। दोपहर के 11 बज गए थे। वह बोला-

‘भूख लगने लगी है। कुछ खाने की इच्छा हो रही है।’

यह सुनकर सुनीता खाना बनाने रसोईघर में चली गई।